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भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व तृतीय – अध्याय १
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(प्रतिसर्गपर्व — तृतीय भाग)
अध्याय – १
आल्हा-खण्ड (आल्हा-ऊदल की कथा) का उपक्रम

विशेषः- भविष्यपुराण के प्रतिसर्गपर्व का तीसरा खण्ड रामांश और कृष्णांश अर्थात् आल्हा और ऊदल (उदयसिंह)- के चरित्र जयचन्द्र एवं पृथ्वीराज चौहान की वीरगाथाओं से परिपूर्ण है । इधर भारत में जगनिक भाट रचित आल्हाका वीरकाव्य बहुत प्रचलित है । इसके बुंदेलखण्डी तथा भोजपुरी आदि कई संस्करण हैम, जिनमें भाषाओं का थोड़ा-थोड़ा भेद है । इन कथाओं का मूल यह प्रतिसरीपर्व ही प्रतीत होता है । इसी के आधार पर ये रचनाएँ प्रचलित हैं । प्राय: ये कथाएँ लोकरञ्जन के अनुसार अतिशयोक्तिपूर्ण-सी प्रतीत होती हैं, किंतु ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्व की भी हैं ।

ऋषियों ने पूछा — सूतजी महाराज ! आपने महाराज विक्रमादित्य के इतिहास का वर्णन किया । om, ॐद्वापर युग के समान उनका शासन, धर्म एवं न्यायपूर्ण था और लम्बे समय तक इस पृथ्वीपर रहा । महाभाग ! उस समय भगवान् श्रीकृष्ण ने अनेक लीलाएँ की थीं । आप उन लीलाओं का हमलोगों से वर्णन कीजिये, क्योंकि आप सर्वज्ञ हैं ।श्रीसूतजी ने मंगल-स्मरणपूर्वक कहा —

नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम् ।
देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत् ॥
(प्रतिसर्गपर्व ३ । १ । ३)

‘भगवान् नर-नारायण के अवतार-स्वरूप भगवान् श्रीकृष्ण एवं उनके सखा नरश्रेष्ठ अर्जुन, उनकी लीलाओं को प्रकट करनेवाली भगवती सरस्वती तथा उनके चरित्रों का वर्णन करनेवाले वेदव्यास को नमस्कार कर अष्टादश पुराण, रामायण और महाभारत आदि जय नाम से व्यपदिष्ट ग्रन्थों का वाचन करना चाहिये ।’

मुनिगणों ! भविष्य नामक महाकल्प के वैवस्वत मन्वन्तर के अट्ठाईसवें द्वापर युग के अन्त में कुरुक्षेत्र का प्रसिद्ध महायुद्ध हुआ । उसमें युद्ध कर दुरभिमानी सभी कौरवों पर पाण्डवों ने अठारहवें दिन पूर्ण विजय प्राप्त की । अन्तिम दिन भगवान् श्रीकृष्ण ने काल की दुर्गति को जानकर योगरुपी सनातन शिवजी की मन से इस प्रकार स्तुति की –
‘शान्तस्वरूपी, सब भूतों के स्वामी, कपर्दी, कालकर्ता, जगद्भर्ता, पाप-विनाशक रूद्र ! मैं आपको बार-बार प्रणाम करता हूँ । भगवन ! आप मेरे भक्त पाण्डवों की रक्षा कीजिये ।’

इस स्तुति को सुनकर भगवान् शंकर नन्दी पर आरूढ़ हो हाथ में त्रिशूल लिये पाण्डवों के शिविर की रक्षा के लिये आ गये । उस समय महाराज युधिष्ठिर की आज्ञा से भगवान् श्रीकृष्ण हस्तिनापुर गये थे और पाण्डव सरस्वती के किनारे रहते थे ।

मध्यरात्रि में अश्वत्थामा, भोज (कृतवर्मा) और कृपाचार्य – ये तीनों पाण्डव-शिविर के पास आये और उन्होंने मन से भगवान् रूद्र की स्तुति कर उन्हें प्रसन्न कर लिया । इस पर भगवान् शंकर ने उन्हें पाण्डव शिविर में प्रवेश करने की आज्ञा दे दी । बलवान अश्वत्थामा ने भगवान शंकर द्वारा प्राप्त तलवार से धृष्टद्युम्न आदि वीरों की हत्या कर दी, फिर वह कृपाचार्य और कृतवर्मा के साथ वापस चला गया । वहाँ एकमात्र पार्षद सूत ही बचा रहा, उसने इस जनसंहार की सुचना पाण्डवों को दी । भीम आदि पाण्डवों ने इसे शिवजी का ही कृत्य समझा; वे क्रोध से तिलमिला गये और अपने आयुधों से देवाधिदेव पिनाकी से युद्ध करने लगे । भीम आदि द्वारा प्रयुक्त अस्त्र-शस्त्र शिवजी के शरीर में समाहित हो गये । इस पर भगवान् शिव ने कहा कि तुम श्रीकृष्ण के उपासक हो अतः हमारे द्वारा तुम लोग रक्षित हो, अन्यथा तुमलोग वध के योग्य थे । इस अपराध का फल तुम्हें कलियुग में जन्म लेकर भोगना पड़ेगा । ऐसा कहकर वे अदृश्य हो गये और पाण्डव बहुत दुःखी हुए । वे अपराध से मुक्त होने के लिये भगवान् श्रीकृष्ण की शरण में आये । निःशस्त्र पाण्डवों ने श्रीकृष्ण के साथ एकाग्र मन से शंकरजी की स्तुति की । इसपर भगवान् शंकर ने प्रत्यक्ष प्रकट होकर उनसे वर माँगने को कहा ।

भगवान् श्रीकृष्ण बोले — देव ! पाण्डवों के जो शस्त्रास्त्र आपके शरीर में लीन हो गये हैं, उन्हें पाण्डवों को वापस कर दीजिये और इन्हें शाप से भी मुक्त कर दीजिये ।

श्रीशिवजी ने कहा – श्रीकृष्णचन्द्र ! मैं आपको प्रणाम करता हूँ । उस समय मैं आपकी माया से मोहित हो गया था । उस माया के अधीन होकर मैंने यह शाप दे दिया । यद्यपि मेरा वचन तो मिथ्या नहीं होगा तथापि ये पाण्डव तथा कौरव अपने अंशों से कलियुग में उत्पन्न होकर अंशतः अपने पापों का फल भोगकर मुक्त हो जायेंगें ।

युधिष्ठिर वत्सराज का पुत्र होगा, उसका नाम बलखानि (मलखान) होगा, वह शिरीष नगर का अधिपति होगा । भीम का नाम वीरण होगा और वह वनरस का राजा होगा । अर्जुन के अंश से जो जन्म लेगा, वह महान बुद्धिमान् और मेरा भक्त होगा । उसका जन्म परिमल के यहाँ होगा और नाम होगा ब्रह्मानन्द । महाबलशाली नकुल का जन्म कान्यकुब्ज में रत्नभानु के पुत्र के रूप में होगा और नाम होगा लक्षण । सहदेव भीमसिंह का पुत्र होगा और उसका नाम होगा देवसिंह । धृतराष्ट्र के अंश से अजमेर में पृथ्वीराज जन्म लेगा और द्रोपदी पृथ्वीराज की कन्या के रूप में वेला नाम से प्रसिद्ध होगी । महादानी कर्ण तारक नाम से जन्म लेगा । उस समय रक्तबीज के रूप में पृथ्वी पर मेरा भी अवतार होगा । कौरव माया-युद्ध में निष्णात होगे और पाण्डु-पक्ष के योद्धा धार्मिक और बलशाली होंगे ।

सूतजी बोले — ऋषियों ! यह सब बातें सुनकर श्रीकृष्ण मुस्कराये और उन्होंने कहा ‘मैं भी अपनी शक्ति-विशेष से अवतार लेकर पाण्डवों की सहायता करूँगा । मायादेवी द्वारा निर्मित महावती नाम की पूरी में देशराज के पुत्र-रूप में मेरा अंश उत्पन्न होगा, जो उदयसिंह (ऊदल) कहलायेगा, वह देवकी के गर्भ से उत्पन्न होगा । मेरे वैकुण्ठ धाम का अंश आह्लाद नाम से जन्म लेगा, वह मेरा गुरु होगा । अग्निवंश में उत्पन्न राजाओं का विनाश कर मैं (श्रीकृष्ण- उदयसिंह) धर्म की स्थापना करूँगा ।’ श्रीकृष्ण की यह बात सुनकर शिवजी अन्तर्हित हो गये ।
(अध्याय १)

See Also :-

1.  भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय २१६
2. भविष्यपुराण – मध्यमपर्व प्रथम – अध्याय १९ से २१
3. भविष्यपुराण – मध्यमपर्व द्वितीय – अध्याय १९ से २१

4. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय ३५

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