अग्निपुराण – अध्याय 004
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
चौथा अध्याय
वराह, नृसिंह, वामन और परशुराम अवतारकी कथा

अग्निदेव कहते हैं — वसिष्ठ ! अब मैं वराहावतार की पापनाशिनी कथा का वर्णन करता हूँ। पूर्वकाल में ‘हिरण्याक्ष’ नामक दैत्य असुरों का राजा था। वह देवताओं को जीतकर स्वर्ग में रहने लगा। देवताओं ने भगवान् विष्णु के पास जाकर उनकी स्तुति की। तब उन्होंने यज्ञवाराह रूप धारण किया और देवताओं के लिये कण्टकरूप उस दानव को दैत्यों सहित मारकर धर्म एवं देवताओं आदि की रक्षा की। इसके बाद वे भगवान् श्रीहरि अन्तर्धान हो गये। हिरण्याक्ष के एक भाई था, जो ‘हिरण्यकशिपु’ के नाम से प्रसिद्ध था। उसने देवताओं के यज्ञभाग अपने अधीन कर लिये और उन सबके अधिकार छीनकर वह स्वयं ही उनका उपभोग करने लगा। भगवान् ने नृसिंहरूप धारण करके उसके सहायक असुरोंसहित उस दैत्य का वध किया। तत्पश्चात् सम्पूर्ण देवताओं को अपने-अपने पद पर प्रतिष्ठित कर दिया। उस समय देवताओं ने उन नृसिंह का स्तवन किया।’

पूर्वकाल में देवता और असुरों में युद्ध हुआ । उस युद्ध में बलि आदि दैत्यों ने देवताओं को परास्त करके उन्हें स्वर्ग से निकाल दिया। तब वे श्रीहरि की शरण में गये। भगवान् ने उन्हें अभयदान दिया और कश्यप तथा अदिति की स्तुति से प्रसन्न हो, वे अदिति के गर्भ से वामन रूप में प्रकट हुए। उस समय दैत्यराज बलि गङ्गाद्वार में यज्ञ कर रहे थे। भगवान् उनके यज्ञ में गये और वहाँ यजमान की स्तुति का गान करने लगे ॥ १-७ ॥

वामन के मुख से वेदों का पाठ सुनकर राजा बलि उन्हें वर देने को उद्यत हो गये और शुक्राचार्य के मना करने पर भी बोले ‘ब्रह्मन् ! आपकी जो इच्छा हो, मुझसे माँगें मैं आपको वह वस्तु अवश्य दूँगा ।’

वामन ने बलि से कहा — ‘मुझे अपने गुरु के लिये तीन पग भूमि की आवश्यकता है; वही दीजिये।’

बलि ने कहा — ‘अवश्य दूंगा।’

तब संकल्प का जल हाथ में पड़ते ही भगवान् वामन ‘अवामन’ हो गये। उन्होंने विराट् रूप धारण कर लिया और भूर्लोक, भुवर्लोक एवं स्वर्गलोक को अपने तीन पगों से नाप लिया। श्रीहरि ने बलि को सुतललोक में भेज दिया और त्रिलोकी का राज्य इन्द्र को दे डाला। इन्द्र ने देवताओं के साथ श्रीहरि का स्तवन किया। वे तीनों लोकों के स्वामी होकर सुख से रहने लगे ।

ब्रह्मन् ! अब मैं परशुरामावतार का वर्णन करूँगा, सुनो। देवता और ब्राह्मण आदि का पालन करने वाले श्रीहरि ने जब देखा कि भूमण्डल के क्षत्रिय उद्धत स्वभाव के हो गये हैं, तो वे उन्हें मारकर पृथ्वी का भार उतारने और सर्वत्र शान्ति स्थापित करने के लिये जमदग्नि के अंश द्वारा रेणुका के गर्भ से अवतीर्ण हुए। भृगुनन्दन परशुराम शस्त्र-विद्या के पारंगत विद्वान् थे । उन दिनों कृतवीर्य का पुत्र राजा अर्जुन भगवान् दत्तात्रेयजी की कृपा से हजार बाँहें पाकर समस्त भूमण्डल पर राज्य करता था । एक दिन वह वन में शिकार खेलने के लिये गया ॥ ८-१४ ॥

वहाँ वह बहुत थक गया। उस समय जमदग्नि मुनि ने उसे सेनासहित अपने आश्रम पर निमन्त्रित किया और कामधेनु के प्रभाव से सबको भोजन कराया। राजा ने मुनि से कामधेनु को अपने लिये माँगा किंतु उन्होंने देने से इनकार कर दिया। तब उसने बलपूर्वक उस धेनु को छीन लिया। यह समाचार पाकर परशुरामजी ने हैहयपुरी में जा उसके साथ युद्ध किया और अपने फरसे से उसका मस्तक काटकर रणभूमि में उसे मार गिराया। फिर वे कामधेनु को साथ लेकर अपने आश्रम पर लौट आये।

एक दिन परशुरामजी जब वन में गये हुए थे, कृतवीर्य के पुत्रों ने आकर अपने पिता के वैर का बदला लेने के लिये जमदग्नि मुनि को मार डाला। जब परशुरामजी लौटकर आये तो पिता को मारा गया देख उनके मन में बड़ा क्रोध हुआ। उन्होंने इक्कीस बार समस्त भूमण्डल के क्षत्रियों का संहार किया। फिर कुरुक्षेत्र में पाँच कुण्ड बनाकर वहीं उन्होंने अपने पितरों कातर्पण किया और सारी पृथ्वी कश्यप मुनि को दान देकर वे महेन्द्र पर्वत पर रहने लगे। इस प्रकार कूर्म, वराह, नृसिंह, वामन तथा परशुराम अवतार की कथा सुनकर मनुष्य स्वर्गलोक में जाता है ॥ १५–२१ ॥

॥ इस प्रकार आदि आग्रेय महापुराणमें ‘वराह, नृसिंह, वामन तथा परशुरामावतारकी कथाका वर्णन ‘ नामक चौथा अध्याय पूरा हुआ ॥ ४ ॥

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