June 6, 2025 | aspundir | Leave a comment अग्निपुराण – अध्याय 030 ॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ तीसवाँ अध्याय भद्र-मण्डल आदि की पूजन-विधि का वर्णन सर्वतोभद्रमण्डलादिविधिकथनम् नारदजी कहते हैं — मुनिवरो ! पूर्वोक्त भद्रमण्डल के मध्यवर्ती कमल में अङ्गसहित ब्रह्म का पूजन करना चाहिये। पूर्ववर्ती कमल में भगवान् पद्मनाभ का, अग्निकोणवाले कमल में प्रकृतिदेवी का तथा दक्षिण दिशा के कमल में पुरुष की पूजा करनी चाहिये। पुरुष के दक्षिण भाग में अग्निदेवता की, नैर्ऋत्यकोण में निर्ऋति की, पश्चिम दिशावाले कमल में वरुण की, वायव्यकोण में वायु की, उत्तर दिशा के कमल में आदित्य की तथा ईशानकोणवाले कमल में ऋग्वेद एवं यजुर्वेद का पूजन करे। द्वितीय आवरण में इन्द्र आदि दिक्पालों का और षोडशदलवाले कमल में क्रमशः सामवेद, अथर्ववेद, आकाश, वायु, तेज, जल, पृथिवी, मन, श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, रसना,घ्राणेन्द्रिय, भूर्लोक, भुवर्लोक तथा सोलहवें में स्वर्लोक का पूजन करना चाहिये ॥ १-४ ॥ ‘ तदनन्तर तृतीय आवरण में चौबीस दल वाले कमल में क्रमशः महर्लोक, जनलोक, तपोलोक, सत्यलोक,अग्निष्टोम, अत्यग्निष्टोम, उक्थ, षोडशी, वाजपेय, अतिरात्र, आप्तोर्याम, व्यष्टि मन, व्यष्टि बुद्धि, व्यष्टि अहंकार, शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध, जीव, समष्टि मन, समष्टि बुद्धि (महत्तत्त्व), समष्टि अहंकार तथा प्रकृति — इन चौबीस की अर्चना करे। इन सबका स्वरूप शब्दमात्र है —अर्थात् केवल इनका नाम लेकर इनके प्रति मस्तक झुका लेना चाहिये । इनकी पूजा में इनके स्वरूप का चिन्तन अनावश्यक है। पचीसवें अध्याय में कथित वासुदेवादि नौ मूर्ति वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न, अनिरुद्ध, नारायण, ब्रह्म, विष्णु, नरसिंह और वराह,दशविध प्राण, मन, बुद्धि, अहंकार, पायु और उपस्थ, श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, रसना, प्राण, वाक् पाणि और पाद — इन बत्तीस वस्तुओं की बत्तीस दलवाले कमल में अर्चना करनी चाहिये। ये चौथे आवरण के देवता हैं। उक्त आवरण में इनका साङ्ग एवं सपरिवार पूजन होना चाहिये ॥ ५-९ ॥ तदनन्तर बाह्य आवरण में पायु और उपस्थ की पूजा करके बारह मासों के बारह अधिपतियों का तथा पुरुषोत्तम आदि छब्बीस तत्त्वों का यजन करे। उनमें से जो मासाधिपति हैं, उनका चक्राब्ज में क्रमशः पूजन करना चाहिये। आठ, छः, पाँच या चार प्रकृतियों का भी पूजन वहीं करना चाहिये। तदनन्तर लिखित मण्डल में विभिन्न रंगों के चूर्ण डालने का विधान है। कहाँ, किस रंग के चूर्ण का उपयोग है, यह सुनो। ॥ १०-११ १/२ ॥ कमल की कर्णिका पीले रंग की होनी चाहिये। समस्त रेखाएँ बराबर और श्वेत रंग की रहें। दो हाथ के मण्डल में रेखाएँ अँगूठे के बराबर मोटी होनी चाहिये। एक हाथ के मण्डल में उनकी मोटाई आधे अँगूठे के समान रखनी चाहिये। रेखाएँ श्वेत बनायी जायें। कमल को श्वेत रंग से और संधियों को काले या श्याम (नीले) रंग से रँगना चाहिये। केसर लाल-पीले रंग के हों। कोणगत कोष्ठों को लाल रंग के चूर्ण से भरना चाहिये। इस प्रकार योगपीठ को सभी तरह के रंगों से यथेष्ट विभूषित करना चाहिये । लता वल्लरियों और पत्तों आदि से वीथी की शोभा बढ़ावे। पीठ के द्वार को श्वेत रंग से सजावे और शोभास्थानों को लाल रंग के चूर्ण से भरे । उपशोभाओं को नीले रंग से विभूषित करे। कोणों के शङ्खों को श्वेत चित्रित करे। यह भद्र-मण्डल में रंग भरने की बात बतायी गयी है। अन्य मण्डलों में भी इसी तरह विविध रंगों के चूर्ण भरने चाहिये। त्रिकोण मण्डल को श्वेत, रक्त और कृष्ण रंग से अलंकृत करे। द्विकोण को लाल और पीले से रँगे। चक्राब्ज में जो नाभिस्थान है, उसे कृष्ण रंग के चूर्ण से विभूषित करे ॥ १०–१७ ॥ चक्राब्ज के अरों को पीले और लाल रंगों से रँगे । नेमि को नीले तथा लाल रंग से सजावे और बाहर की रेखाओं को श्वेत, श्याम, अरुण, काले एवं पीले रंगों से रँगे। अगहनी चावल का पीसा हुआ चूर्ण आदि श्वेत रंग का काम करता है। कुसुम्भ आदि का चूर्ण लाल रंग की पूर्ति करता है। पीला रंग हल्दी के चूर्ण से तैयार होता है। जले हुए चावल के चूर्ण से काले रंग की आवश्यकता पूर्ण होती है। शमी पत्र आदि से श्याम रंग का काम लिया जाता है। बीज मन्त्रों का एक लाख जप करने से, अन्य मन्त्रों का उनके अक्षरों के बराबर लाख बार जप करने से, विद्याओं को एक लक्ष जपने से, बुद्ध – विद्याओं को दस हजार बार जपने से, स्तोत्रों का एक सहस्र बार पाठ करने से अथवा सभी मन्त्रों को पहली बार एक लाख जप करने से उन मन्त्रों की तथा अपनी भी शुद्धि होती है। दूसरी बार एक लाख जपने से मन्त्र क्षेत्रीकृत होता है। बीज मन्त्रों का पहले जितना जप किया गया हो, उतना ही उनके लिये होम का भी विधान है। अन्य मन्त्रादि के होम की संख्या पूर्वजप के दशांश के तुल्य बतायी गयी है। मन्त्र से पुरश्चरण करना हो तो एक-एक मास का व्रत ले। पृथ्वी पर पहले -बायाँ पैर रखे। किसी से दान न ले। इस प्रकार दुगुना और तिगुना जप करने से ही मध्यम और उत्तम श्रेणी की सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं। अब मैं मन्त्र का ध्यान बताता हूँ, जिससे मन्त्र जपजनित फल की प्राप्ति होती है। मन्त्र का स्थूलरूप शब्दमय है; इसे उसका बाह्य विग्रह माना गया है। मन्त्र का सूक्ष्मरूप ज्योतिर्मय है। यही उसका आन्तरिक रूप है। यह केवल चिन्तनमय है। जो चिन्तन से भी रहित है, उसे ‘पर’ कहा गया है। वाराह, नरसिंह तथा शक्ति के स्थूल रूप की ही प्रधानता है। वासुदेव का रूप चिन्तनरहित (अचिन्त्य ) कहा गया है ॥ १८-२७ ॥ अन्य देवताओं का चिन्तामय आन्तरिक रूप ही सदा ‘मुख्य’ माना गया है। ‘वैराज’ अर्थात् विराट् का स्वरूप ‘स्थूल’ कहा गया है। लिङ्गमय स्वरूप को ‘सूक्ष्म’ जानना चाहिये। ईश्वर का जो स्वरूप बताया गया है, वह चिन्तारहित है। बीज-मन्त्र हृदयकमल में निवास करनेवाला, अविनाशी, चिन्मय, ज्योतिःस्वरूप और जीवात्मक है। उसकी आकृति कदम्ब-पुष्प के समान है — इस तरह ध्यान करना चाहिये। जैसे घड़े के भीतर रखे हुए दीपक की प्रभा का प्रसार अवरुद्ध हो जाता है; वह संहतभाव से अकेला ही स्थित रहता है; उसी प्रकार मन्त्रेश्वर हृदय में विराजमान हैं। जैसे अनेक छिद्रवाले कलश में जितने छेद होते हैं, उतनी ही दीपक की प्रभा की किरणें बाहर की ओर फैलती हैं, उसी तरह नाडियों द्वारा ज्योतिर्मय बीजमन्त्र की रश्मियाँ आँतों को प्रकाशित करती हुई दैव-देह को अपनाकर स्थित हैं। नाडियाँ हृदय से प्रस्थित हो नेत्रेन्द्रियों तक चली गयी हैं। उनमें से दो नाडियाँ अग्नीषोमात्मक हैं, जो नासिकाओं के अग्रभाग में स्थित हैं। मन्त्र का साधक सम्यक् उद्धात योग से शरीरव्यापी प्राणवायु को जीतकर जप और ध्यान में तत्पर रहे तो वह मन्त्रजनित फल का भागी होता है।पञ्चभूततन्मात्राओं- की शुद्धि करके योगाभ्यास करनेवाला साधक यदि सकाम हो तो अणिमा आदि सिद्धियों को पाता है और यदि विरक्त हो तो उन सिद्धियों को ‘लाँघकर, चिन्मय स्वरूप से स्थित हो, भूतमात्र से तथा इन्द्रियरूपी ग्रह से सर्वथा मुक्त हो जाता है ॥ २८-३६ ॥ ॥ इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘भद्र मण्डलादिविधि-कथन’ नामक तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३० ॥ See Also :- अग्निपुराण – अध्याय 025 Content is available only for registered users. 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