June 7, 2025 | aspundir | Leave a comment अग्निपुराण – अध्याय 036 ॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ छत्तीसवाँ अध्याय भगवान् विष्णु के लिये पवित्रारोपण की विधि विष्णुपवित्रारोपणविधिः अग्निदेव कहते हैं — मुने! प्रात:काल स्नान आदि करके, द्वारपालों का पूजन करने के पश्चात् गुप्त स्थान में प्रवेश करके, पूर्वाधिवासित पवित्रक में से एक लेकर प्रसादरूप से धारण कर ले। शेष द्रव्य- वस्त्र, आभूषण, गन्ध एवं सम्पूर्ण निर्माल्य को हटाकर भगवान् को स्नान कराने के पश्चात् उनकी पूजा करे। पञ्चामृत, कषाय एवं शुद्ध गन्धोदक से नहलाकर भगवान् के निमित्त पहले से रखे हुए वस्त्र, गन्ध और पुष्प को उनकी सेवा में प्रस्तुत करे। अग्नि में नित्यहोम की भाँति हवन करके भगवान् की स्तुति प्रार्थना करने के अनन्तर उनके चरणों में मस्तक नवावे। फिर अपने समस्त कर्म भगवान् को अर्पित करके उनकी नैमित्तिकी पूजा करे द्वारपाल, विष्णु कुम्भ और वर्धनी की प्रार्थना करे । ‘अतो देवाः’ इत्यादि मन्त्र से, अथवा मूल मन्त्र से कलश पर श्रीहरि की स्तुति प्रार्थना करे —‘ कृष्ण कृष्ण नमस्तुभ्यं गृह्णीष्वेदं पवित्रकम् । पवित्रीकरणार्थाय वर्षपूजाफलप्रदम् ॥ ६ ॥ पवित्रकं कुरुध्वाद्य यन्मया दुष्कृतं कृतम् । शुद्धो भवाम्यहं देव त्वत्प्रसादात् सुरेश्वर ॥ ७ ॥ ‘हे कृष्ण ! हे कृष्ण! आपको नमस्कार है। इस पवित्रक को ग्रहण कीजिये। यह उपासक को पवित्र करने के लिये है और वर्ष भर की हुई पूजा के सम्पूर्ण फल को देने वाला है। नाथ! पहले मुझसे जो दुष्कृत (पाप) बन गया हो, उसे नष्ट करके आप मुझे परम पवित्र बना दीजिये। देव ! सुरेश्वर! आपकी कृपा से मैं शुद्ध हो जाऊँगा। हृदय, सिर आदि मन्त्रों द्वारा पवित्रक का तथा अपना भी अभिषेक करके विष्णुकलश का भी प्रोक्षण करने के बाद भगवान् के समीप जाय । उनके रक्षाबन्धन को हटाकर उन्हें पवित्रक अर्पण करे और कहे — गृहाण ब्रह्मसूत्रञ्च यन्मया कल्पितं प्रभो ॥ ९ ॥ कर्मणां पूरणार्थाय यथा दोषो न मे भवेत् । ‘प्रभो! मैंने जो ब्रह्मसूत्र तैयार किया है, इसे आप ग्रहण करें। यह कर्म की पूर्ति का साधक है; अतः इस पवित्रारोपण कर्म को आप इस तरह सम्पन्न करें, जिससे मुझे दोष का भागी न होना पड़े ‘ ॥ १-९१/२ ॥ द्वारपाल, योगपीठासन तथा मुख्य गुरुओं को पवित्रक चढ़ावे। इनमें कनिष्ठ श्रेणी का (नाभि तक का) पवित्रक द्वारपालों को, मध्यम श्रेणी का (जाँघ तक लटकने वाला) पवित्रक योगपीठासन को और उत्तम (घुटने तक का) पवित्रक गुरुजनों को दे। साक्षात् भगवान् को मूल मन्त्र से वनमाला (पैरों तक लटकने वाला पवित्रक) अर्पित करे । ‘नमो विष्वक्सेनाय’ मन्त्र बोलकर विष्वक्सेन को भी पवित्रक चढ़ावे । अग्नि में होम करके अग्निस्थ विश्वादि देवताओं को पवित्रक अर्पित करे। तदनन्तर पूजन के पश्चात् मूल मन्त्र से प्रायश्चित्त के उद्देश्य से पूर्णाहुति दे । अष्टोत्तरशत अथवा पाँच औपनिषद- मन्त्रों से पूर्णाहुति देनी चाहिये। मणि या मूंगों की मालाओं से अथवा मन्दारपुष्प आदि से अष्टोत्तरशत की गणना करनी चाहिये। अन्त में भगवान् से इस प्रकार प्रार्थना करे — इयं सांवत्सरी पूजा तवास्तु गरुडध्वज । वनमाला यथा देव कौस्तुभं सततं हृदि ॥ १४ ॥ तद्वत् पवित्रतन्तूंश्च पूजां च हृदये वह । कामतोऽकामतो वापि यत्कृतं नियमार्चने ॥ १५ ॥ ‘गरुडध्वज ! यह आपकी वार्षिक पूजा सफल हो। देव! जैसे वनमाला आपके वक्षःस्थल में सदा शोभा पाती है, उसी तरह पवित्रक के इन तन्तुओं को और इनके द्वारा की गयी पूजा को भी आप अपने हृदय में धारण करें। मैंने इच्छा से या अनिच्छा से नियमपूर्वक की जानेवाली पूजा में जो त्रुटियाँ की हैं, विघ्नवश विधि के पालन में जो न्यूनता हुई है, अथवा कर्मलोप का प्रसङ्ग आया है, वह सब आपकी कृपा से पूर्ण हो जाय। मेरे द्वारा की हुई आपकी पूजा पूर्णतः सफल हो’ ॥ १०–१५१/२ ॥ इस प्रकार प्रार्थना और नमस्कार करके अपराधों के लिये क्षमा माँगकर पवित्रक को मस्तक पर चढ़ावे । फिर यथायोग्य बलि अर्पित करके दक्षिणा द्वारा वैष्णव गुरु को संतुष्ट करे । यथाशक्ति एक दिन या एक पक्ष तक ब्राह्मणों को भोजन- वस्त्र आदि से संतोष प्रदान करे। स्नानकाल में पवित्रक को उतारकर पूजा करे। उत्सव के दिन किसी को आने से न रोके और सबको अनिवार्यरूप से अन्न देकर अन्त में स्वयं भी भोजन करे विसर्जन के दिन पूजन करके पवित्रकों का विसर्जन करे और इस प्रकार प्रार्थना करे ‘ हे पवित्रक! मेरी इस वार्षिक पूजा को विधिवत् सम्पादित करके अब तुम मेरे द्वारा विसर्जित हो विष्णुलोक को पधारो।’ उत्तर और ईशानकोण के बीच में विष्वक्सेन की पूजा करके उनके भी पवित्रकों की अर्चना करने के पश्चात् उन्हें ब्राह्मण को दे दे। उस पवित्रक में जितने तन्तु कल्पित हुए हैं, उतने सहस्र युगों तक उपासक विष्णुलोक में प्रतिष्ठित होता है। साधक पवित्रारोपण से अपनी सौ पूर्व पीढ़ियों का उद्धार करके दस पहले और दस बाद की पीढ़ियों को विष्णुलोक में स्थापित करता और स्वयं भी मुक्ति प्राप्त कर लेता है ॥ १६-२२ ॥ ॥ इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘विष्णु-पवित्रारोपणविधि-निरूपण’ नामक छत्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३६ ॥ Content is available only for registered users. Please login or register Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. Type your email… Subscribe