June 7, 2025 | aspundir | Leave a comment अग्निपुराण – अध्याय 039 ॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ उन्तालीसवाँ अध्याय विष्णु आदि देवताओं की स्थापना के लिये भूपरिग्रह का विधान विष्ण्वादिदेवताप्रतिष्ठाने भूपरिग्रहविधानम् भगवान् हयग्रीव कहते हैं — ब्रह्मन् ! अब मैं विष्णु आदि देवताओं की प्रतिष्ठा के विषय में कहूँगा, ध्यान देकर सुनिये। इस विषय में मेरे द्वारा वर्णित पञ्चरात्रों एवं सप्तरात्रों का ऋषियों ने मानवलोक में प्रचार किया है। वे संख्या में पच्चीस हैं। (उनके नाम इस प्रकार हैं -) आदिहयशीर्षतन्त्र, त्रैलोक्यमोहनतन्त्र, वैभवतन्त्र, पुष्करतन्त्र, प्रह्लादतन्त्र, गार्ग्यतन्त्र, गालवतन्त्र, नारदीयतन्त्र, श्रीप्रश्नतन्त्र, शाण्डिल्यतन्त्र, ईश्वरतन्त्र, सत्यतन्त्र, शौनकतन्त्र, वसिष्ठक्त ज्ञानसागरतन्त्र, स्वायम्भुवतन्त्र, कापिलतन्त्र, तार्क्ष्य ( गारुड) – तन्त्र, नारायणीयतन्त्र, आत्रेयतन्त्र, नारसिंहतन्त्र, आनन्दतन्त्र, आरुणतन्त्र, बौधायनतन्त्र, अष्टाङ्गतन्त्र और विश्वतन्त्र ॥ १-५ ॥’ इन तन्त्रों के अनुसार मध्यदेश आदि में उत्पन्न द्विज देवविग्रहों की प्रतिष्ठा करे। कच्छदेश, कावेरीतटवर्ती देश, कोंकण, कामरूप, कलिङ्ग, काञ्ची तथा काश्मीर देश में उत्पन्न ब्राह्मण देवप्रतिष्ठा आदि न करे। आकाश, वायु, तेज, जल एवं पृथ्वी – ये पञ्चमहाभूत पञ्चरात्र हैं जो चेतनाशून्य एवं अज्ञानान्धकार से आच्छा हैं, वे पञ्चरात्र से रहित हैं। जो मनुष्य यह धारणा करता है कि ‘मैं पापमुक्त परब्रह्म विष्णु हूँ’ – वह देशिक होता है। वह समस्त बाह्य लक्षणों (वेष आदि) से हीन होने पर भी तन्त्रवेत्ता आचार्य माना गया है ॥ ६-८१/२ ॥ देवताओं की नगराभिमुख स्थापना करनी चाहिये। नगर की ओर उनका पृष्ठभाग नहीं होना चाहिये । कुरुक्षेत्र, गया आदि तीर्थस्थानों में अथवा नदी के समीप देवालय का निर्माण कराना चाहिये। ब्रह्मा का मन्दिर नगर के मध्य में तथा इन्द्र का पूर्व दिशा में उत्तम माना गया है। अग्निदेव तथा मातृकाओं का आग्नेयकोण में, भूतगण और यमराज का दक्षिण में, चण्डिका, पितृगण एवं दैत्यादि का मन्दिर नैर्ऋत्य- कोण में बनवाना चाहिये। वरुण का पश्चिम में, वायुदेव और नाग का वायव्यकोण में, यक्ष या कुबेर का उत्तर दिशा में, चण्डीश महेश का ईशानकोण में और विष्णु का मन्दिर सभी ओर बनवाना श्रेष्ठ है। ज्ञानवान् मनुष्य को पूर्ववर्ती देव मन्दिर को संकुचित करके अल्प, समान या विशाल मन्दिर नहीं बनवाना चाहिये ॥ ९-१३१/२ ॥ (किसी देव मन्दिर के समीप मन्दिर बनवाने पर) दोनों मन्दिरों की ऊँचाई के बराबर दुगुनी सीमा छोड़कर नवीन देव प्रासाद का निर्माण करावे । विद्वान् व्यक्ति दोनों मन्दिरों को पीडित न करे। भूमि का शोधन करने के बाद भूमि परिग्रह करे। तदनन्तर प्राकार की सीमा तक माष, हरिद्राचूर्ण, खील, दधि और सक्तु से भूतबलि प्रदान करे। फिर अष्टाक्षरमन्त्र पढ़कर आठों दिशाओं में सक्तु बिखेरते हुए कहे — राक्षसाश्च पिशाचाश्च येस्मिंस्तिष्ठन्ति भूतले ॥ १७ ॥ सर्वे ते व्यपगच्छन्तु स्थानं कुर्यामहं हरेः । ‘इस भूमिखण्ड पर जो राक्षस एवं पिशाच आदि निवास करते हों, वे सब यहाँ से चले जायें। मैं यहाँ पर श्रीहरि के लिये मन्दिर का निर्माण करूँगा।” फिर भूमि को हल से जुतवाकर गोचारण करावे। आठ परमाणु का ‘रथरेणु’ माना गया है। आठ रथरेणु का ‘त्रसरेणु’ माना जाता है। आठ त्रसरेणु का ‘बालाग्र’ तथा आठ बालाग्र की ‘लिक्षा’ कही जाती है। आठ लिक्षा की ‘यूका,’ आठ यूका का ‘यवमध्यम’, आठ यव का ‘अङ्गुल, ‘ चौबीस अङ्गुल का ‘कर’ और अट्ठाईस अङ्गुल का ‘पद्महस्त’ होता है1 ॥ १४-२१ ॥ ॥ इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में विष्णु आदि देवताओं की स्थापना के लिये ‘भूपरिग्रह का वर्णन’ नामक उन्तालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३९ ॥ 1. श्रीविद्यार्णवतन्त्र में यह मान इस प्रकार दिया गया है — वातायनपथं प्राप्य ये भान्ति रविरश्मयः । तेषु सूक्ष्मा विसर्पन्ते रेणवस्त्रसरेणवः ॥ परमाणोरष्टगुणस्त्रसरेणुरुदाहृतः । तेऽष्टौ केशाह्वयास्तेऽष्टौ लिक्षा यूकास्तदष्टकम् ॥ तदष्टकं यवस्तेऽष्टावङ्गुलिः समुदाहृता । सा तूत्तमाङ्गुलिः सप्तयवा सैव तु मध्यमा ॥ षट्यवा साधमा प्रोक्ता मानाङ्गुलमितीरितम् ॥ ( १२ । १-४ ) Content is available only for registered users. Please login or register Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. Type your email… Subscribe