अग्निपुराण – अध्याय 051
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
इक्यावनवाँ अध्याय
सूर्यादि ग्रहों तथा दिक्पाल आदि देवताओं की प्रतिमाओं के लक्षणों का वर्णन
सूर्य्यादिप्रतिमालक्षणम्

श्रीभगवान् हयग्रीव कहते हैं — ब्रह्मन् ! सात अश्वों से जुते हुए एक पहिये वाले रथ पर विराजमान सूर्यदेव की प्रतिमा को स्थापित करना चाहिये । भगवान् सूर्य अपने दोनों हाथों में दो कमल धारण करते हैं। उनके दाहिने भाग में दावात और कलम लिये दण्डी खड़े हैं और वाम भाग में पिङ्गल हाथ में दण्ड लिये द्वार पर विद्यमान हैं। ये दोनों सूर्यदेव के पार्षद हैं। भगवान् सूर्यदेव के उभय पार्श्व में बालव्यजन (चँवर) लिये ‘राज्ञी’ तथा ‘निष्प्रभा’ खड़ी हैं? 1  अथवा घोड़े पर चढ़े हुए एकमात्र सूर्य की ही प्रतिमा बनानी चाहिये । समस्त दिक्पाल हाथों में वरद मुद्रा, दो-दो कमल तथा शस्त्र लिये क्रमशः पूर्वादि दिशाओं में स्थित दिखाये जाने चाहिये ॥ १-३ ॥’

बारह दलों का एक कमल चक्र बनावे। उसमें सूर्य, अर्यमा 2  आदि नाम वाले बारह आदित्यों का क्रमशः बारह दलों में स्थापन करे। यह स्थापना वरुण-दिशा एवं वायव्यकोण से आरम्भ करके नैर्ऋत्यकोण के अन्त तक के दलों में होनी चाहिये। उक्त आदित्यगण चार-चार हाथवाले हों और उन हाथों में मुद्गर, शूल, चक्र एवं कमल धारण किये हों। अग्निकोण से लेकर नैर्ऋत्यतक, नैर्ऋत्य से वायव्यतक, वायव्य से ईशानतक और वहाँ से अग्निकोणतक के दलों में उक्त आदित्यों की स्थिति जाननी चाहिये ॥ ४ ॥

बारह आदित्यों के नाम इस प्रकार हैं — वरुण, सूर्य, सहस्रांशु, धाता, तपन, सविता, गभस्तिक, रवि, पर्जन्य, त्वष्टा, मित्र और विष्णु। ये मेष आदि बारह राशियों में स्थित होकर जगत् को ताप एवं प्रकाश देते हैं। ये वरुण आदि आदित्य क्रमशः मार्गशीर्ष मास ( या वृश्चिक राशि) – से लेकर कार्तिक मास (या तुलाराशि) – तक के मासों (एवं राशियों) में स्थित होकर अपना कार्य सम्पन्न करते हैं। इनकी अङ्गकान्ति क्रमश: काली, लाल, कुछ-कुछ लाल, पीली, पाण्डुवर्ण, श्वेत, कपिलवर्ण, पीतवर्ण, तोते के समान हरी, धवलवर्ण, धूम्रवर्ण और नीली है। इनकी शक्तियाँ द्वादशदल कमल के केसरों के अग्रभाग में स्थित होती हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं — इडा, सुषुम्ना, विश्वार्चि, इन्दु प्रमर्दिनी (प्रवर्द्धिनी), प्रहर्षिणी, महाकाली, कपिला, प्रबोधिनी, नीलाम्बरा, वनान्तस्था (घनान्तस्था) और अमृताख्या। वरुण आदि की जो अङ्गकान्ति है, वही इन शक्तियों की भी है। केसरों के अग्रभागों में इनकी स्थापना करे। सूर्यदेव का तेज प्रचण्ड और मुख विशाल है। उनके दो भुजाएँ हैं। वे अपने हाथों में कमल और खड्ग धारण करते हैं ॥ ५-१० ॥

चन्द्रमा कुण्डिका तथा जपमाला धारण करते हैं। मङ्गल के हाथों में शक्ति और अक्षमाला शोभित होती हैं। बुध के हाथों में धनुष और अक्षमाला शोभा पाते हैं। बृहस्पति कुण्डिका और अक्षमालाधारी हैं। शुक्र का भी ऐसा ही स्वरूप है। अर्थात् उनके हाथों में भी कुण्डिका और अक्षमाला शोभित होती हैं। शनि किङ्किणी-सूत्र धारण करते हैं। राहु अर्द्धचन्द्रधारी हैं तथा केतु के हाथों में खड्ग और दीपक शोभा पाते हैं। अनन्त, तक्षक, कर्कोटक, पद्म, महापद्म, शङ्ख और कुलिक आदि सभी मुख्य नागगण सूत्रधारी होते हैं। फन ही इनके मुख हैं। ये सब के सब महान् प्रभापुञ्ज से उद्भासित होते हैं । इन्द्र वज्रधारी हैं। ये हाथी पर आरूढ होते हैं। अग्नि का वाहन बकरा है। अग्निदेव शक्ति धारण करते हैं। यम दण्डधारी हैं और भैंसे पर आरूढ होते हैं। निर्ऋति खड्गधारी हैं और मनुष्य उनका वाहन है। वरुण मकर पर आरूढ हैं और पाश धारण करते हैं। वायुदेव वज्रधारी हैं और मृग उनका वाहन है। कुबेर भेड़ पर चढ़ते और गदा धारण करते हैं। ईशान जटाधारी हैं और वृषभ उनका वाहन है ॥ ११-१५ ॥

समस्त लोकपाल द्विभुज हैं। विश्वकर्मा अक्षसूत्र धारण करते हैं। हनुमान् जी के हाथ में वज्र है। उन्होंने अपने दोनों पैरों से एक असुर को दबा रखा है। किंनर मूर्तियाँ हाथ में वीणा लिये हों और विद्याधर माला धारण किये आकाश में स्थित दिखाये जायें। पिशाचों के शरीर दुर्बल कङ्कालमात्र हों। वेतालों के मुख विकराल हों। क्षेत्रपाल शूलधारी बनाये जायँ । प्रेतों के पेट लंबे और शरीर कृश हों ॥ १६-१८ ॥

॥ इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘सूर्यादि ग्रहों तथा दिक्पालादि देवताओं की प्रतिमाओं के लक्षणों का वर्णन’ नामक इक्यावनवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ५१ ॥

1. राज्ञी’ और ‘निष्प्रभा’ — ये चँवर डुलानेवाली स्त्रियों के नाम हैं। अथवा इन नामों द्वारा सूर्यदेव की दोनों पत्नियों की ओर संकेत किया गया है। ‘राज्ञी’ शब्द से उनकी रानी ‘संज्ञा’ गृहीत होती हैं और ‘निष्प्रभा’ शब्द से ‘छाया’ ये दोनों देवियाँ चंवर डुलाकर पति की सेवा कर रही हैं।

2. सूर्य आदि द्वादश आदित्यों के नाम नीचे गिनाये गये हैं और अर्यमा आदि द्वादश आदित्यों के नाम १९वें अध्याय के दूसरे और तीसरे श्लोकों में देखने चाहिये। वे नाम वैवस्वत मन्वन्तर के आदित्यों के हैं। चाक्षुष मन्वन्तर में वे ही ‘तुषित’ नाम से विख्यात थे। अन्य पुराणों में भी आदित्यों की नामावली तथा उनके मासक्रम में यहाँ की अपेक्षा कुछ अन्तर मिलता है। इसकी संगति कल्पभेद के अनुसार माननी चाहिये।

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