June 12, 2025 | aspundir | Leave a comment अग्निपुराण – अध्याय 067 ॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ सड़सठवाँ अध्याय जीर्णोद्धार–विधि जीर्णोद्धारविधानं श्रीभगवान् कहते हैं — ब्रह्मन् ! अब मैं जीर्णोद्धार की विधि बतलाता हूँ। आचार्य मूर्ति को विभूषित करके स्नान करावे। अत्यन्त जीर्ण, अङ्गहीन, भग्न तथा शिलामात्रावशिष्ट (विशेष चिह्न से रहित) प्रतिमा का परित्याग करे। उसके स्थान पर पूर्ववत् देवगृह में नवीन स्थिर मूर्ति का न्यास करे। आचार्य वहाँ पर ( भूतशुद्धि प्रकरण में उक्त) संहारविधि से सम्पूर्ण तत्त्वों का संहार करे। गुरु नृसिंह- मन्त्र की सहस्र आहुतियाँ देकर मूर्ति को उखाड़ दे। फिर दारुमयी मूर्ति को अग्नि में जला दे, प्रस्तरनिर्मित विसर्जित प्रतिमा को जल में फेंक दे, धातुमयी या रत्नमयी मूर्ति हो तो उसे समुद्र की अगाध जलराशि में विसर्जित कर दे। जीर्णाङ्ग प्रतिमा को यान पर आरूढ़ कर, वस्त्र आदि से आच्छादित करके, गाजे-बाजे के साथ ले जाय और जल में छोड़ दे। फिर आचार्य को दक्षिणा दे। उसी दिन पूर्व प्रतिमा के प्रमाण तथा द्रव्य के अनुसार उसी प्रमाण की मूर्ति स्थापित करे। इसी प्रकार कूप वापी और तड़ाग आदि का जीर्णोद्धार करने से भी महान् फल की प्राप्ति होती है ॥ १-६ ॥ ‘ ॥ इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘जीर्णोद्धारविधि-कथन’ नामक सड़सठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ६७ ॥ Content is available only for registered users. Please login or register Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. Type your email… Subscribe