June 17, 2025 | aspundir | Leave a comment अग्निपुराण – अध्याय 106 ॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ एक सौ छठा अध्याय नगर आदि वास्तु का वर्णन नगरादिवास्तुः भगवान् महेश्वर कहते हैं — कार्तिकेय ! अब मैं राज्यादि की अभिवृद्धि के लिये नगर–वास्तु का वर्णन करता हूँ। नगर-निर्माण के लिये एक योजन या आधी योजन भूमि ग्रहण करे। वास्तु-नगर का पूजन करके उसको प्राकार से संयुक्त करे। ईशादि तीस पदों में सूर्य के सम्मुख पूर्व द्वार, गन्धर्व के समीप दक्षिण द्वार, वरुण के निकट पश्चिम द्वार और सोम के समीप उत्तर द्वार बनाना चाहिये। नगर में चौड़े-चौड़े बाजार बनाने चाहिये। नगर द्वार छः हाथ चौड़ा बनाना चाहिये, जिससे हाथी आदि सुखपूर्वक आ-जा सकें। नगर छिन्नकर्ण, भग्न तथा अर्धचन्द्राकार नहीं होना चाहिये। वज्र- सूचीमुख नगर भी हितकर नहीं है। एक, दो या तीन द्वारों से युक्त धनुषाकार वज्रनागाभ नगर का निर्माण शान्तिप्रद है ॥ १-५ ॥’ नगर के आग्नेयकोण में स्वर्णकारों को बसावे, दक्षिण दिशा में नृत्योपजीविनी वाराङ्गनाओं के भवन हों । नैर्ऋत्यकोण में नट, कुम्भकार तथा केवट आदि के आवास स्थान होने चाहिये। पश्चिम में रथकार, आयुधकार और खड्ग निर्माताओं का निवास हो। नगर के वायव्यकोण में मद्य विक्रेता, कर्मकार तथा भृत्यों का निवेश करे। उत्तर दिशा में ब्राह्मण, यति, सिद्ध और पुण्यात्मा पुरुषों को बसावे । ईशानकोण में फलादि का विक्रय करनेवाले एवं वणिग्-जन निवास करें। पूर्व दिशा में सेनाध्यक्ष रहें । आग्नेयकोण में विविध सैन्य, दक्षिण में स्त्रियों को ललित कला की शिक्षा देनेवाले आचार्यों तथा नैर्ऋत्यकोण में धनुर्धर सैनिकों को रखे। पश्चिम में महामात्य, कोषपाल एवं कारीगरों को, उत्तर में दण्डाधिकारी, नायक तथा द्विजों को; पूर्व में क्षत्रियों को, दक्षिण में वैश्यों को, पश्चिम में शूद्रों को, विभिन्न दिशाओं में वैद्यों को और अश्वों तथा सेना को चारों ओर रखे ॥ ६-१२ ॥ राजा पूर्व में गुप्तचरों, दक्षिण में श्मशान, पश्चिम में गोधन और उत्तर में कृषकों का निवेश करे। म्लेच्छों को दिक्कोणों में स्थान दे अथवा ग्रामों में स्थापित करे। पूर्व द्वार पर लक्ष्मी एवं कुबेर की स्थापना करे। जो उन दोनों का दर्शन करते है, उन्हें लक्ष्मी ( सम्पत्ति) की प्राप्ति होती है। पश्चिम में निर्मित देवमन्दिर पूर्वाभिमुख, पूर्व दिशा में स्थित पश्चिमाभिमुख तथा दक्षिण दिशा के मन्दिर उत्तराभिमुख होने चाहिये। नगर की रक्षा के लिये इन्द्र और विष्णु आदि देवताओं के मन्दिर बनवावे । देवशून्य नगर, ग्राम, दुर्ग तथा गृह आदि का पिशाच उपभोग करते हैं और वह रोगसमूह से परिभूत हो जाता है। उपर्युक्त विधि से निर्मित नगर आदि सदा जयप्रद और भोग-मोक्ष प्रदान करनेवाले होते हैं ॥ १३-१७ ॥ वास्तु- भूमि की पूर्व दिशा में शृङ्गार-कक्ष, अग्निकोण में पाकगृह (रसोईघर), दक्षिण में शयनगृह, नैर्ऋत्यकोण में शस्त्रागार, पश्चिम में भोजनगृह, वायव्यकोण में धान्य-संग्रह, उत्तर दिशा में धनागार तथा ईशानकोण में देवगृह बनवाना चाहिये। नगर में एकशाल, द्विशाल, त्रिशाल या चतुःशाल- गृह का निर्माण होना चाहिये। चतुःशाल गृह के शाला और अलिन्द (प्राङ्गण) के भेद से दो सौ भेद होते हैं। उनमें भी चतुःशाल गृह के पचपन, त्रिशाल – गृह के चार तथा द्विशाल के पाँच भेद होते हैं ॥ १८-२१ ॥ एकशाल गृह के चार भेद हैं। अब मैं अलिन्दयुक्त गृह के विषय में बतलाता हूँ, सुनिये। गृह- वास्तु तथा नगर वास्तु में अट्ठाईस अलिन्द होते हैं। चार तथा सात अलिन्दों से पचपन, छ: अलिन्दों से बीस तथा आठ अलिन्दों से भी बीस भेद होते हैं। इस प्रकार नगर आदि में आठ अलिन्दों से युक्त वास्तु भी होता है ॥ २२-२४ ॥ ॥ इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘नगर आदि के वास्तु का वर्णन’ नामक एक सौ छठा अध्याय पूरा हुआ ॥ १०६ ॥ Content is available only for registered users. Please login or register Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. Type your email… Subscribe