अग्निपुराण – अध्याय 159
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
एक सौ उनसठवाँ अध्याय
असंस्कृत आदि की शुद्धि
असंस्कृतादिशौचं

पुष्कर कहते हैं — मृतक का दाह संस्कार हुआ हो या नहीं, यदि श्रीहरि का स्मरण किया जाय तो उससे उसको स्वर्ग और मोक्ष दोनों की प्राप्ति हो सकती है। मृतक की हड्डियों को गङ्गाजी के जल में डालने से उस प्रेत (मृत व्यक्ति) – का अभ्युदय होता है। मनुष्य की हड्डी जब तक गङ्गाजी के जल में स्थित रहती है, तबतक उसका स्वर्गलोक में निवास होता है। आत्मत्यागी तथा पतित मनुष्यों के लिये यद्यपि पिण्डोदक क्रिया का विधान नहीं है तथापि गङ्गाजी के जल में उनकी हड्डियों का डालना भी उनके लिये हितकारक ही है। उनके उद्देश्य से दिया हुआ अन्न और जल आकाश में लीन हो जाता है। पतित प्रेत के प्रति महान् अनुग्रह करके उसके लिये ‘नारायण बलि’ करनी चाहिये। इससे वह उस अनुग्रह का फल भोगता है। कमल के सदृश नेत्रवाले भगवान् नारायण अविनाशी हैं, अतः उन्हें जो कुछ अर्पण किया जाता है, उसका नाश नहीं होता। भगवान् जनार्दन जीव का पतन से त्राण (उद्धार) करते हैं, इसलिये वे ही दान के सर्वोत्तम पात्र हैं ॥ १-५ ॥’

निश्चय ही नीचे गिरने वाले जीवों को भी भोग और मोक्ष प्रदान करने वाले एकमात्र श्रीहरि ही हैं। ‘सम्पूर्ण जगत् के लोग एक न एक दिन मरनेवाले हैं — यह विचारकर सदा अपने सच्चे सहायक धर्म का अनुष्ठान करना चाहिये। पतिव्रता पत्नी को छोड़कर दूसरा कोई बन्धु बान्धव मरकर भी मरे हुए मनुष्य के साथ नहीं जा सकता; क्योंकि यमलोक का मार्ग सबके लिये अलग- अलग है। जीव कहीं भी क्यों न जाय, एकमात्र धर्म ही उसके साथ जाता है। जो काम कल करना है, उसे आज ही कर ले; जिसे दोपहर बाद करना है, उसे पहले ही पहर में कर ले; क्योंकि मृत्यु इस बात की प्रतीक्षा नहीं करती कि इसका कार्य पूरा हो गया है या नहीं ? मनुष्य खेत-बारी, बाजारहाट तथा घर-द्वार में फँसा होता है, उसका मन अन्यत्र लगा होता है; इसी दशा में जैसे असावधान भेड़ को सहसा भेड़िया आकर उठा ले जाय, वैसे ही मृत्यु उसे लेकर चल देती है। काल के लिये न तो कोई प्रिय है, न द्वेष का पात्र ॥ ६-१० ॥

आयुष्य तथा प्रारब्धकर्म क्षीण होने पर वह हठात् जीव को हर ले जाता है। जिसका काल नहीं आया है, वह सैकड़ों बाणों से घायल होने पर भी नहीं मरता तथा जिसका काल आ पहुँचा है, वह कुश के अग्रभाग से ही छू जाय तो भी जीवित नहीं रहता। जो मृत्यु से ग्रस्त है, उसे औषध और मन्त्र आदि नहीं बचा सकते। जैसे बछड़ा गौओं के झुंड में भी अपनी माँ के पास पहुँच जाता है, उसी प्रकार पूर्वजन्म का किया हुआ कर्म जन्मान्तर में भी कर्ता को अवश्य ही प्राप्त होता है। इस जगत् का आदि और अन्त अव्यक्त है, केवल मध्य की अवस्था ही व्यक्त होती है। जैसे जीव के इस शरीर में कुमार तथा यौवन आदि अवस्थाएँ क्रमशः आती रहती हैं, उसी प्रकार मृत्यु के पश्चात् उसे दूसरे शरीर की भी प्राप्ति होती है जैसे मनुष्य (पुराने वस्त्र को त्यागकर) दूसरे नूतन वस्त्र को धारण करता है, उसी प्रकार जीव एक शरीर को छोड़कर दूसरे को ग्रहण करता है। देहधारी जीवात्मा सदा अवध्य है, वह कभी मरता नहीं; अतः मृत्यु के लिये शोक त्याग देना चाहिये ॥ ११-१५ ॥

॥ इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘असंस्कृत आदि की शुद्धि का वर्णन’ नामक एक सौ उनसठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १५९ ॥

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