June 26, 2025 | aspundir | Leave a comment अग्निपुराण – अध्याय 171 ॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ एक सौ इकहत्तरवाँ अध्याय गुप्त पापों के प्रायश्चित्त का वर्णन रहस्यादिप्रायश्वित्तं पुष्कर कहते हैं —अब मैं गुप्त पापों के प्रायश्चित्तों का वर्णन करता हूँ, जो परम शुद्धिप्रद है । एक मास तक पुरुषसूक्त का जप पाप का नाश करने वाला है। अघमर्षण मन्त्र का तीन बार जप करने मे मनुष्य सभी प्रकार के पापों से मुक्त हो जाता है। वेदमन्त्र, वायुसूक्त और यमसूक्त के जप एवं गायत्री का जप करने से मनुष्य अपने सब पाप को नष्ट कर डालता है । समस्त कृच्छ्रों में मुण्डन, स्नान, हवन और श्रीहरि का पूजन विहित है । ‘कृच्छ्रवत’ करने वाला दिन में खड़ा रहे और रात में बैठा रहे, इसे वीरासन’ कहा गया है। इससे मनुष्य निष्पाप हो जाता है। एक महीने- तक प्रतिदिन आठ ग्राम भोजन करे, इसे ‘यतिचान्द्रायण’ कहते हैं। एक मास तक नित्य प्रातःकाल चार ग्रास और शायंकाल चार ग्रास भोजन करने से ‘शिशुचान्द्रायण’ होता है। एक मास मे किसी भी प्रकार दो सौ चालीस पिण्ड भोजन करे, यह ‘सुरचान्द्रायण’ की विधि है। तीन दिन गरम जल, तीन दिन गरम दूध तीन दिन गरम घी और तीन दिन बायु पीकर रहे इसे ‘तप्तकृच्छ्र’ कहा गया है। और इसी क्रम से तीन दिन ठंढा जल, तीन दिन ठंढा दूध, तीन दिन ठंडा घी और तीन दिन वायु पीने पर ‘शीतकृच्छ्र’ होता है। इक्कीस दिन तक केवल दूध पीकर रहने से ‘कृच्छ्रातिकृच्छ्र’ होता है। एक दिन गोमूत्र, गोबर, दूध, दही, घी और कुश-जल का भक्षण करके रहे तथा एक दिन उपवास करे इसे कृच्छ्रांतपन व्रत’ माना गया है।’ ‘सांतपनकृच्छ्र’ की वस्तुओं को एक-एक दिन के क्रम से लेने पर महासांतपन’ व्रत माना जाता है। इन्हीं वस्तुओं को तीन-तीन दिन के क्रम से ग्रहण करने पर ‘अतिसांतपन’ माना जाता है। बारह दिन निराहार रहने से ‘पराककृच्छ्र’ होता है । तीन दिन प्रातःकाल, तीन दिन सायंकाल और तीन दिन बिना मांगे मिली हुई वस्तु का भोजन करे और अन्त में तीन दिन उपवास रक्खे, इसे ‘प्राजापत्य- व्रत’ कहा गया है। इसी के एक चरण का अनुष्ठान कृच्छ्रपाद’ कहलाता है । एक मास तक फल खाकर रहने से ‘फलकृच्छ्र’ और बेल खाकर रहने ‘श्रीकृच्छ्र’ होता है। इसी प्रकार पद्माक्ष (कमलगट्टा ) खाकर रहने से ‘पद्माक्षकृच्छ्र’, आँवले खाकर रहने से ‘आमलककृच्छ्र’ और पुष्प खाकर रहने से ‘पुष्पकृच्छ्र’ होता है। पूर्वोक्त क्रम से केवल पत्ते खाकर रहने ‘पत्रकृच्छ्र’, जल पीकर रहने से ‘जलकृच्छ्र, केवल मूल का भोजन करने से ‘मूलकृच्छ्र’ और दधि, दुग्ध अथवा तक्र पर निर्भर रहने से क्रमशः ‘दधिकृच्छ्र’, ‘दुग्धकृच्छ्र’ और ‘तक्रकृच्छ्र’ होते हैं। एक मास तक अञ्जलि भर अन्न के भोजन से ‘वायव्यकृच्छ्र’ होता है। बारह दिन केवल तिल का भोजन करके रहने से ‘आग्नेयकृच्छ्र’ माना जाता है, जो दुःख का विनाश करने वाला है। एक पक्षतक एक पसर लाज (खील) का भोजन करे । चतुर्दशी एवं पञ्चदशी (अमावास्या एवं पूर्णिमा) को उपवास रखे। फिर पञ्चगव्यपान करके हविष्यान्न का भोजन करे। यह ‘ब्रह्मकूर्च व्रत’ होता है। इस व्रत को एक मास में दो बार करने से मनुष्य समस्त पापों से मुक्त हो जाता है। जो मनुष्य धन, पुष्टि, स्वर्ग एवं पापनाश की कामना से देवताओं का आराधन और कृच्छ्रव्रत करता है, वह सब कुछ प्राप्त कर लेता है ॥ १-१७ ॥ ॥ इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘गुप्त पापों के प्रायश्चित्त का वर्णन’ नामक एक सौ इकहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १७१ ॥ Content is available only for registered users. Please login or register Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. Type your email… Subscribe