अग्निपुराण – अध्याय 214
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
दो सौ चौदहवाँ अध्याय
नाड़ीचक्र का वर्णन
मन्त्रमाहात्म्यं

अग्निदेव कहते हैं — वसिष्ठ ! अब मैं नाड़ीचक्र के विषय में कहता हूँ, जिसके जानने से श्रीहरि का ज्ञान हो जाता है। नाभि के अधोभाग में कन्द (मूलाधार) है, उससे अङ्कुरों की भाँति नाड़ियाँ निकली हुई हैं। नाभि के मध्य में बहत्तर हजार नाड़ियाँ स्थित हैं। इन नाड़ियों ने शरीर को ऊपर-नीचे, दायें-बायें सब ओर से व्यास कर रखा है और ये चक्राकार होकर स्थित हैं। इनमें प्रधान दस नाड़ियाँ हैं — इड़ा, पिङ्गला, सुषुम्णा, गान्धारी, हस्तिजिह्वा, पृथा, यशा, अलम्बुषा, कुहू और दसवीं शङ्खिनी — ये दस प्राणों का वहन करनेवाली प्रमुख नाड़ियाँ बतलायी गयीं। प्राण, अपान, समान, उदान, व्यान, नाग, कूर्म, कृकर, देवदत्त और धनंजय — ये दस ‘प्राणवायु’ हैं। इनमें प्रथम वायु प्राण दसों का स्वामी है। यह प्राण- रिक्तता की पूर्ति प्रति प्राणों को प्राणयन (प्रेरण) करता है और सम्पूर्ण प्राणियों के हृदयदेश में स्थित रहकर अपान वायु द्वारा मल-मूत्रादि के त्याग से होने वाली रिक्तता को नित्य पूर्ण करता है। जीव में आश्रित यह प्राण श्वासोच्छ्वास और कास आदि द्वारा प्रयाण (गमनागमन) करता है, इसलिये इसे ‘प्राण’ कहा गया है। अपानवायु मनुष्यों के आहार को नीचे की ओर ले जाता है और मूत्र एवं शुक्र आदि का भी नीचे की ओर वहन करता है, इस अपानयन के कारण इसे ‘अपान’ कहा जाता है। ‘समान वायु मनुष्यों के खाये-पीये और सूँघे हुए पदार्थों को एवं रक्त, पित्त, कफ तथा वात को सारे अङ्गों में समानभाव से ले जाता है, इस कारण उसे ‘समान’ कहा गया है। उदान नामक वायु मुख और अधरों को स्पन्दित करता है, नेत्रों की अरुणिमा को बढ़ाता है और मर्मस्थानों को उद्विग्न करता है, इसीलिये उसका नाम ‘उदान’ है। ‘व्यान’ अङ्गों को पीड़ित करता है। यही व्याधि को कुपित करता है और कण्ठ को अवरुद्ध कर देता है। व्यापनशील होने से इसे ‘व्यान’ कहा गया है। ‘नागवायु’ उद्गार (डकार वमन आदि) में और ‘कूर्मवायु’ नयनों के उन्मीलन (खोलने) – में प्रवृत्त होता है। ‘कृकर’ भक्षण में और ‘देवदत्त’ वायु जंभाई में अधिष्ठित है। ‘धनंजय’ पवन का स्थान घोष है। यह मृत शरीर का भी परित्याग नहीं करता। इन दसों द्वारा जीव प्रयाण करता है, इसलिये प्राणभेद से नाड़ीचक्र के भी दस भेद हैं ॥ १-१४ ॥

संक्रान्ति, विषुव, दिन, रात, अयन, अधिमास, ऋण, ऊनरात्र एवं धन — ये सूर्य की गति से होने वाली दस दशाएँ शरीर में भी होती हैं। इस शरीर में हिक्का ( हिचकी) ऊनरात्र, विजृम्भिका (जंभाई) अधिमास, कास (खाँसी) ऋण और निःश्वास ‘धन’ कहा जाता है। शरीरगत वामनाड़ी ‘उत्तरायण’ और दक्षिणनाड़ी ‘दक्षिणायन’ है। दोनों के मध्य में नासिका के दोनों छिद्रों से निर्गत होनेवाली श्वासवायु ‘विषुव’ कहलाती है। इस विषुववायु का ही अपने स्थान से चलकर दूसरे स्थान से युक्त होना ‘संक्रान्ति’ है। द्विजश्रेष्ठ वसिष्ठ ! शरीर के मध्यभाग में ‘सुषुम्णा’ स्थित है, वामभाग में ‘इड़ा’ और दक्षिणभाग में ‘पिङ्गला’ है। ऊर्ध्वगतिवाला प्राण ‘दिन’ माना गया है और अधोगामी अपान को ‘रात्रि’ कहा गया है। एक प्राणवायु ही दस वायु के रूप में विभाजित है। देह के भीतर जो प्राणवायु का आयाम (बढ़ना) है, उसे ‘चन्द्रग्रहण’ कहते हैं। वही जब देह से ऊपर तक बढ़ जाता है, तब उसे ‘सूर्यग्रहण’ मानते हैं ॥ १५-२० ॥

साधक अपने उदर में जितनी वायु भरी जा सके, भर ले। यह देह को पूर्ण करनेवाला, ‘पूरक’ प्राणायाम है श्वास निकलने के सभी द्वारों को रोककर, श्वासोच्छास की क्रिया से शून्य हो परिपूर्ण कुम्भ की भाँति स्थित हो जाय – इसे ‘कुम्भक’ प्राणायाम कहा जाता है। तदनन्तर मन्त्रवेत्ता साधक ऊपर की ओर एक ही नासारन्ध्र से वायु को निकाले। इस प्रकार उच्छ्वासयोग से युक्त हो वायु का ऊपर की ओर विरेचन (निःसारण) करे (यह ‘रेचक’ प्राणायाम है)। यह श्वासोच्छ्वास की क्रिया द्वारा अपने शरीर में विराजमान शिवस्वरूप ब्रह्म का ही (‘सोऽहं’ ‘हंसः’ के रूप में) उच्चारण होता है, अतः तत्त्ववेत्ताओं के मत में वही ‘जप’ कहा गया है। इस प्रकार एक तत्त्ववेत्ता योगीन्द्र श्वास-प्रश्वास द्वारा दिन रात में इक्कीस हजार छ: सौ की संख्या में मन्त्र जप करता है। यह ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर से सम्बन्ध रखनेवाली ‘अजपा’ नामक गायत्री है। जो इस अजपा का जप करता है, उसका पुनर्जन्म नहीं होता। चन्द्रमा, अग्नि तथा सूर्य से युक्त मूलाधार निवासिनी आद्या कुण्डलिनी- शक्ति हृदयप्रदेश में अंकुर के आकार में स्थित है। सात्त्विक पुरुषों में उत्तम वह योगी सृष्टिक्रम का अवलम्बन करके सृष्टिन्यास करे तथा ब्रह्मरन्ध्रवर्ती शिव से कुण्डलिनी के मुखभाग में झरते हुए अमृत का चिन्तन करे। शिव के दो रूप हैं-सकल और निष्कल सगुण साकार देह में विराजित शिव को ‘सकल’ जानना चाहिये और जो देह से रहित हैं, वे ‘निष्कल’ कहे गये हैं। वे ‘हंस-हंस’ का जप करते हैं। ‘हंस’ नाम है – ‘सदाशिव’ का जैसे तिलों में तेल और पुष्पों में गन्ध की स्थिति है, उसी प्रकार अन्तर्यामी पुरुष (जीवात्मा) में बाहर और भीतर भी सदाशिव का निवास है। ब्रह्मा का स्थान हृदय में है, भगवान् विष्णु कण्ठ में अधिष्ठित हैं, तालु के मध्यभाग में रुद्र, ललाट में महेश्वर और प्राणों के अग्रभाग में सदाशिव का स्थान है। उनके अन्त में परात्पर ब्रह्म विराजमान हैं। ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, महेश्वर और सदाशिव — इन पाँच रूपों में ‘सकल’ (साकार या सगुण) परमात्मा का वर्णन किया गया है। इसके विपरीत परमात्मा, जो निर्गुण निराकाररूप है, उसे ‘निष्कल’ कहा गया है ॥ २१-३२ ॥

जो योगी अनाहत नाद को प्रासाद तक उठाकर अनवरत जप करता है, वह छः महीनों में ही सिद्धि प्राप्त कर लेता है, इसमें संशय नहीं है। गमनागमन के ज्ञान से समस्त पापों का क्षय होता है और योगी अणिमा आदि सिद्धियों, गुणों और ऐश्वर्य को छः महीनों में ही प्राप्त कर लेता है। मैंने स्थूल, सूक्ष्म और पर के भेद से तीन प्रकार के प्रासाद का वर्णन किया है। प्रासाद को ह्रस्व, दीर्घ और प्लुत- इन तीन रूपों में लक्षित करे। ‘ह्रस्व’ पापों को दग्ध कर देता है, ‘दीर्घ’ मोक्षप्रद होता है और ‘प्लुत’ आप्यायन (तृप्तिप्रदान) करने में समर्थ है। यह मस्तक पर बिन्दु (अनुस्वार) – से विभूषित होता है। ह्रस्व-प्रासाद-मन्त्र के आदि और अन्त में ‘फट्’ लगाकर जप किया जाय तो यह मारण कर्म में हितकारक होता है। यदि उसके आदि-अन्त में ‘नमः’ पद जोड़कर जपा जाय तो वह आकर्षण साधक बताया गया है। महादेवजी के दक्षिणामूर्तिरूप सम्बन्धी मन्त्र का खड़े होकर यदि पाँच लाख जप किया जाय तथा जप के अन्त में घी का दस हजार होम कर दिया जाय तो वह मन्त्र आप्यायित (सिद्ध) हो जाता है। फिर उससे वशीकरण, उच्चाटन आदि कार्य कर सकते हैं ॥ ३३-३८१/२

जो ऊपर शून्य, नीचे शून्य और मध्य में भी शून्य है, उस त्रिशून्य निरामय मन्त्र को जो जानता है, वह द्विज निश्चय ही मुक्त हो जाता है। पाँच मन्त्रों के मेल से महाकलेवरधारी अड़तीस कलाओं से युक्त प्रासाद मन्त्र को जो नहीं जानता है, वह आचार्य नहीं कहलाता है जो ओंकार, गायत्री तथा रुद्रादि मन्त्रों को जानता है, वही गुरु है ॥ ३९-४१ ॥

॥ इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘नाड़ीचक्र कथन’ नामक दो सौ चौदहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २१४ ॥

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