अग्निपुराण – अध्याय 215
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
दो सौ पंद्रहवाँ अध्याय
संध्या-विधि
सन्ध्याविधिः

अग्निदेव कहते हैं — वसिष्ठ! जो पुरुष ॐकार को जानता है, वह योगी और विष्णुस्वरूप है। इसलिये सम्पूर्ण मन्त्रों के सारस्वरूप और सब कुछ देनेवाले ॐकार का अभ्यास करना चाहिये । समस्त मन्त्रों के प्रयोग में ॐकार का सर्वप्रथम स्मरण किया जाता है। जो कर्म उससे युक्त है, वही पूर्ण है। उससे विहीन कर्म पूर्ण नहीं है। आदि में ॐकार से युक्त (‘भूः भुवः स्वः’ – ये ) तीन शाश्वत महाव्याहृतियों एवं (‘तत्सवितुर्वरेण्यं, भर्गो देवस्य धीमहि, धियो यो नः प्रचोदयात्’ इस) तीन पदों से युक्त गायत्री को ब्रह्म का (वेद अथवा ब्रह्मा का मुख जानना चाहिये। जो मनुष्य नित्य तीन वर्षोंतक आलस्यरहित होकर गायत्री का जप करता है, वह वायुभूत और आकाशस्वरूप होकर परब्रह्म को प्राप्त होता है। एकाक्षर ॐकार ही परब्रह्म है और प्राणायाम ही परम तप है। गायत्री मन्त्र से श्रेष्ठ कुछ भी नहीं है। मौन रहने से सत्यभाषण करना ही श्रेष्ठ हैं ॥ १-५ ॥’

गायत्री की सात आवृत्ति पापों का हरण करने वाली हैं, दस आवृत्तियों से वह जपकर्ता को स्वर्ग की प्राप्ति कराती है और बीस आवृत्ति करने पर तो स्वयं सावित्री देवी जप करने वाले को ईश्वरलोक में ले जाती है। साधक गायत्री का एक सौ आठ बार जप करके संसार सागर से तर जाता है। रुद्र-मन्त्रों के जप तथा कूष्माण्ड- मन्त्रों के जप से गायत्री मन्त्र का जप श्रेष्ठ है। गायत्री से श्रेष्ठ कोई भी जप करने योग्य मन्त्र नहीं है तथा व्याहृति- होम के समान कोई होम नहीं है। गायत्री के एक चरण, आधा चरण, सम्पूर्ण ऋचा अथवा आधी ऋचा का भी जप करनेमात्र से गायत्री देवी साधक को ब्रह्महत्या, सुरापान, सुवर्ण की चोरी एवं गुरुपत्नीगमन आदि महापातकों से मुक्त कर देती है ॥ ६-९ ॥

कोई भी पाप करने पर उसके प्रायश्चित्तस्वरूप तिलों का हवन और गायत्री का जप बताया गया है। उपवासपूर्वक एक सहस्र गायत्री मन्त्र का जप करनेवाला अपने पापों को नष्ट कर देता है। गो- वध, पितृवध, मातृवध, ब्रह्महत्या अथवा गुरुपत्नीगमन करने वाला, ब्राह्मण की जीविका का अपहरण करने वाला, सुवर्ण की चोरी करने वाला और सुरापान करने वाला महापातकी भी गायत्री का एक लाख जप करने से शुद्ध हो जाता है। अथवा स्नान करके जल के भीतर गायत्री का सौ बार जप करे। तदनन्तर गायत्री से अभिमन्त्रित जल के सौ आचमन करे। इससे भी मनुष्य पापरहित हो जाता है। गायत्री का सौ बार जप करने पर वह समस्त पापों का उपशमन करने वाली मानी गयी है और एक सहस्र जप करने पर उपपातकों का भी नाश करती है। एक करोड़ जप करने पर गायत्री देवी अभीष्ट फल प्रदान करती है। जपकर्ता देवत्व और देवराजत्व को भी प्राप्त कर लेता है ॥ १०–१३१/२

आदि में ॐकार, तदनन्तर ‘भूर्भुवः स्वः’ का उच्चारण करना चाहिये। उसके बाद गायत्री- मन्त्र का एवं अन्त में पुनः ॐ कार का प्रयोग करना चाहिये। जप में मन्त्र का यही स्वरूप बताया गया है ।1  गायत्री मन्त्र के विश्वामित्र ऋषि, गायत्री छन्द और सविता देवता हैं। उपनयन, जप एवं होम में इनका विनियोग करना चाहिये । 2  गायत्री मन्त्र के चौबीस अक्षरों के अधिष्ठातृदेवता क्रमशः ये हैं — अग्नि, वायु, रवि, विद्युत्, यम, जलपति, गुरु, पर्जन्य, इन्द्र, गन्धर्व, पूषा, मित्र, वरुण, त्वष्टा, वसुगण, मरुद्गण, चन्द्रमा अङ्गिरा, विश्वदेव, अश्विनीकुमार, प्रजापतिसहित समस्त देवगण, रुद्र, ब्रह्मा और विष्णु । गायत्री जप के समय उपर्युक्त देवताओं का उच्चारण किया जाय तो वे जपकर्ता के पापों का विनाश करते हैं ॥ १४–१८१/२

गायत्री मन्त्र के एक-एक अक्षर का अपने निम्नलिखित अङ्गों में क्रमशः न्यास करे। पैरों के दोनों अङ्गुष्ठ, गुल्फद्वय, नलक (दोनों पिण्डलियाँ), घुटने, दोनों जाँघें, उपस्थ, वृषण, कटिभाग, नाभि, उदर, स्तनमण्डल, हृदय, ग्रीवा, मुख (अधरोष्ठ), तालु, नासिका, नेत्रद्वय भ्रूमध्य ललाट, पूर्व आनन (उत्तरोष्ठ), दक्षिण पार्श्व, उत्तर पार्श्व, सिर और सम्पूर्ण मुखमण्डल । गायत्री के चौबीस अक्षरों के वर्ण क्रमशः इस प्रकार हैं — पीत, श्याम, कपिल, मरकतमणिसदृश, अग्नितुल्य, रुक्मसदृश, विद्युत्प्रभ, धूम्र, कृष्ण, रक्त, गौर, इन्द्रनीलमणिसदृश, स्फटिकमणितुल्य, स्वर्णिम, पाण्डु, पुखराजतुल्य, अखिलद्युति, हेमाभधूम्र, रक्तनील, रक्तकृष्ण, सुवर्णाभ, शुक्ल, कृष्ण और पलाशवर्ण । गायत्री ध्यान करने पर पापों का अपहरण करती और हवन करने पर सम्पूर्ण अभीष्ट कामनाओं को प्रदान करती है। गायत्री मन्त्र से तिलों का होम सम्पूर्ण पापों का विनाश करनेवाला है । शान्ति की इच्छा रखनेवाला जौ का और दीर्घायु चाहनेवाला घृत का हवन करे। कर्म की सिद्धि के लिये सरसों का, ब्रह्मतेज की प्राप्ति के लिये दुग्ध का, पुत्र की कामना करने वाला दधि का और अधिक धान्य चाहनेवाला अगहनी के चावल का हवन करे। ग्रहपीड़ा की शान्ति के लिये खैर वृक्ष की समिधाओं का धन की कामना करनेवाला बिल्वपत्रों का, लक्ष्मी चाहनेवाला कमल- पुष्पों का, आरोग्य का इच्छुक और महान् उत्पात से आतङ्कित मनुष्य दूर्वा का, सौभाग्याभिलाषी गुग्गुल का और विद्याकामी खीर का हवन करे । दस हजार आहुतियों से उपर्युक्त कामनाओं की सिद्धि होती है और एक लाख आहुतियों से साधक मनोऽभिलषित वस्तु को प्राप्त करता है। एक करोड़ आहुतियों से होता ब्रह्महत्या के महापातक से मुक्त हो अपने कुल का उद्धार करके श्रीहरिस्वरूप हो जाता है । ग्रह यज्ञ प्रधान होम हो, अर्थात् ग्रहों की शान्ति के लिये हवन किया जा रहा हो तो उसमें भी गायत्री मन्त्र से दस हजार आहुतियाँ देने पर अभीष्ट फल की सिद्धि होती है ॥ १९-३० ॥

संध्या-विधि
गायत्री का आवाहन करके ॐकार का उच्चारण करना चाहिये। गायत्री मन्त्रसहित ॐकार का उच्चारण करके शिखा बाँधे। फिर आचमन करके हृदय, नाभि और दोनों कंधों का स्पर्श करे। प्रणव के ब्रह्मा ऋषि, गायत्री छन्द, अग्नि अथवा परमात्मा देवता हैं। इसका सम्पूर्ण कर्मों के आरम्भ में प्रयोग होता है।3 निम्नलिखित मन्त्र से गायत्री देवी का ध्यान करे —

शुक्ला चाग्निमुखी देव्या कात्यायनसगोत्रजा ।
त्रैलोक्यवरणा दिव्या पृथिव्याधारसंयुता ॥ ३३ ॥
अक्षरसूत्रधरा देवी पद्मासनगता शुभा ।

तदनन्तर निम्नाङ्कित मन्त्र से गायत्री देवी का आवाहन करे —

ॐ तेजोऽसि महोऽसि बलमसि भ्राजोऽसि देवानान्धामनामाऽसि ।
विश्वमसि विश्वायुः सर्वमसि सर्वायुः ॐ अभि भूः।’
आगच्छ वरदे देवि जप्ये मे सन्निधौ भव ॥ ३४ ॥
गायन्तं त्रायसे यस्माद् गायत्री त्वं ततः स्मृता ॥

समस्त व्याहृतियों के ऋषि प्रजापति ही हैं; वे सब व्यष्टि और समष्टि दोनों रूपों से परब्रह्मस्वरूप एकाक्षर ॐकार में स्थित हैं। सप्तव्याहृतियों के क्रमशः ये ऋषि हैं — विश्वामित्र, जमदग्नि, भरद्वाज, गौतम, अत्रि, वसिष्ठ तथा कश्यप । उनके देवता क्रमशः ये हैं — अग्नि, वायु, सूर्य, बृहस्पति, वरुण, इन्द्र और विश्वदेव । गायत्री, उष्णिक्, अनुष्टुप् बृहती, पङ्क्ति, त्रिष्टुप् और जगती — ये क्रमशः सात व्याहृतियों के छन्द हैं। इन व्याहृतियों का प्राणायाम और होम में विनियोग होता है। 4

ॐ आपो हि ष्ठा मयो भुवः, ॐ ता न ऊर्जे दधातन, ॐ महेरणाय चक्षसे, ॐ यो वः शिवतमो रसः, ॐ तस्य भाजयतेह नः, ॐ उशतीरिव मातरः ॐ तस्मा अरं गमाम वः, ॐ यस्य क्षयायः जिन्वथ, ॐ आपो जनयथा च नः। इन तीन ऋचाओं का तथा ‘ॐ द्रुपदादिव मुमुचानः स्विन्नः स्नातो मलादिव । पूतं पवित्रेणेवाज्यमापः शुन्धन्तु मैनसः ।’
इस मन्त्र का ‘हिरण्यवर्णाः शुचयः’ इत्यादि पावमानी ऋचाओं 5  का उच्चारण करके (पवित्रों अथवा दाहिने हाथ की अङ्गुलियों द्वारा) जल के आठ छींटे ऊपर उछाले। इससे जीवनभर के पाप नष्ट हो जाते हैं ॥ ३१-४१ ॥

जल के भीतर ‘ऋतं च० – इस अघमर्षण- मन्त्र 6  का तीन बार जप करे। ‘आपो हि ष्ठा’ आदि तीन ऋचाओं के सिन्धुद्वीप ऋषि, गायत्री छन्द और जल देवता माने गये हैं। ब्राह्मस्नान के लिये मार्जन में इसका विनियोग किया जाता है। 7  (अघमर्षण मन्त्र का विनियोग इस प्रकार करना चाहिये) इस अघमर्षण सूक्त के अघमर्षण ऋषि, अनुष्टुप् छन्द और भाववृत्त देवता हैं। पापनिःसारण के कर्म में इसका प्रयोग किया जाता है। 8  ‘ॐ आपो ज्योती रसोऽमृतं ब्रह्म भूर्भुवः स्वरोम् ।’ यह गायत्री मन्त्र का शिरोभाग है। इसके प्रजापति ऋषि हैं। यह छन्दरहित यजुर्मन्त्र है; क्योंकि यजुर्वेद के मन्त्र किसी नियत अक्षरवाले छन्द में आबद्ध नहीं हैं। शिरोमन्त्र के ब्रह्मा, अग्नि, वायु और सूर्य देवता माने गये हैं। 9  प्राणायाम से वायु, वायु से अग्नि और अग्नि से जल की उत्पत्ति होती है तथा उसी जल से शुद्धि होती है। इसलिये जल का आचमन निम्नलिखित मन्त्र से करे —

अन्तश्चरति भूतेषु गुहायां विश्वमूर्तिषु ॥ ४६ ॥
तपोयज्ञवषट्कार आपो ज्योती रसोऽमृतं ।10

‘उदुत्यं जातवेदसं०’ –  इस मन्त्र के प्रस्कण्व ऋषि कहे गये हैं। इसका गायत्री छन्द और सूर्य देवता हैं। इसका अतिरात्र और अग्निष्टोम याग में विनियोग होता है (परंतु संध्योपासना में इसका सूर्योपस्थान- कर्म में विनियोग किया जाता है)11‘चित्रं देवानां० ‘ – इस ऋचा के कौत्स ऋषि कहे गये हैं। इसका छन्द त्रिष्टुप् और देवता सूर्य माने गये हैं। यहाँ इसका भी विनियोग सूर्योपस्थान में ही है 12  ॥ ४२-४९ ॥

॥ इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘संध्याविधि का वर्णन’ नामक दो सौ पन्द्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २१५ ॥

1. इसके अनुसार जपनीय मन्त्र का पाठ यों होगा — ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् ॐ ।

2. गायत्र्या विश्वामित्र ऋषिर्गायत्री छन्दः सविता देवताग्निमुर्खमुपनयने जपे होमे या विनियोगः ।

3. ॐकारस्य ब्रह्मा ऋषिगायत्री छन्दोऽग्निर्देवता शुक्लो वर्णः सर्वकर्मारम्भे विनियोगः ।

4. सप्तव्याहृतीनां विश्वामित्रजमदग्नि भरद्वाजगोतमात्रिवसिष्ठकश्यपा ऋषयो गायत्र्युष्णिगनुष्टुब्बृहती पङ्क्तित्रिष्टुब्जगत्यश्छन्दांस्यग्नि- वाय्वादित्यबृहस्पतिवरुणेन्द्र विश्वेदेवा देवता अनादिष्टप्रायचित्ते प्राणायामे विनियोगः ।

5. ऋग्वेद (ऋग्वेद १.२३.९),  अथर्ववेद (अथर्ववेद १.३३.१) औरकृष्ण यजुर्वेद तैत्तिरीय संहिता (5.6 )
अथर्ववेदः – काण्डं १
सूक्तं १.३३ दे. (चन्द्रमाः) आपः (च)। त्रिष्टुप्।
हिरण्यवर्णाः शुचयः पावका यासु जातः सविता यास्वग्निः ।
या अग्निं गर्भं दधिरे सुवर्णास्ता न आपः शं स्योना भवन्तु ॥ १ ॥
यासां राजा वरुणो याति मध्ये सत्यानृते अवपश्यन् जनानाम् ।
या अग्निं गर्भं दधिरे सुवर्णास्ता न आपः शं स्योना भवन्तु ॥ २ ॥
यासां देवा दिवि कृण्वन्ति भक्षं या अन्तरिक्षे बहुधा भवन्ति ।
या अग्निं गर्भं दधिरे सुवर्णास्ता न आपः शं स्योना भवन्तु ॥ ३ ॥
शिवेन मा चक्षुषा पश्यतापः शिवया तन्वोप स्पृशत त्वचं मे ।
घृतश्चुतः शुचयो याः पावकास्ता न आपः शं स्योना भवन्तु ॥ ४ ॥

श्रीदेवीरहस्य पटल २२ में पावमानी ऋचा इस प्रकार है —
पावमान्याः परं ब्रह्म शुद्धं ज्योतिः सनातनम् ।
पितॄंस्तस्योपतिष्ठति क्षीरं सर्पिर्मधुदकैः ॥
पावमान्यं परं ब्रह्म पावमान्यः परो रसः ॥
पावमान्यं परं ज्ञानं तेन त्वां पावयाम्यहम् ।

6. . ॐ ऋतञ्च सत्यञ्चाभीद्धात्तपसोऽध्यजायत ।
ततो रात्र्यजायत। ततः समुद्रो अर्णवः ।
समुद्रादर्णवादधिसंवत्सरो अजायत ।
अहो रात्राणि विदधद्विश्वस्य मिषतो वशी ।
सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत् ।
दिवञ्च पृथिवीञ्चन्तरिक्षमयो स्वः ॥

7. आपो हिष्ठेत्यादि तृचस्य सिन्धुद्वीप ऋषिः, गायत्री छन्दः, आपो देवता ब्राह्मस्रानाय मार्जने विनियोगः ।

8. अघमर्षणसूतस्याघमर्षण ऋषिरनुष्टुप्छन्दोभाववृत्तो देवता अघमर्षणे विनियोगः ।

9. शिरसः प्रजापतिर्ऋषिस्त्रिपदा गायत्री छन्दो ब्रह्माग्निवायुसूर्या देवता यजुः प्राणायामे विनियोगः ।

10. इसका पाठ आजकल की संध्याप्रतियों में इस प्रकार उपलब्ध होता है —
ॐ अन्तश्चरति भूतेषु गुहायां विश्वतोमुखः ।
त्वं यज्ञस्त्वं वषट्कार आपो ज्योती रसोऽमृतम् ॥

11. उदुत्यमिति प्रस्कण्व ऋषिर्गायत्री छन्दः सूर्यो देवता सूर्योपस्थाने विनियोगः ॥

12.  चित्रमित्यस्य कौत्स ऋषिस्त्रिष्टुप्छन्दः सूर्यो देवता सूर्योपस्थाने विनियोगः ।

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