July 6, 2025 | aspundir | Leave a comment अग्निपुराण – अध्याय 245 ॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ दो सौ पैंतीसवाँ अध्याय चामर, धनुष, बाण तथा खड्ग के लक्षण आयुधलक्षणादि अग्निदेव कहते हैं — वसिष्ठ ! सुवर्णदण्डभूषित चामर उत्तम होता है। राजा के लिये हंसपक्ष, मयूरपक्ष या शुकपक्ष से निर्मित छत्र प्रशस्त माना गया है। वकपक्ष से निर्मित छत्र भी प्रयोग में लाया जा सकता है, किंतु मिश्रित पक्षों का छत्र नहीं बनवाना चाहिये। तीन, चार, पाँच, छः, सात या आठ पर्वों से युक्त दण्ड प्रशस्त है ॥ १-२१/२ ॥ भद्रासन पचास अङ्गुल ऊँचा एवं क्षीरकाष्ठ से निर्मित हो। वह सुवर्णचित्रित एवं तीन हाथ विस्तृत होना चाहिये। द्विजश्रेष्ठ ! धनुष के निर्माण के लिये लौह, शृङ्ग या काष्ठ- इन तीन द्रव्यों का प्रयोग करे । प्रत्यञ्चा के लिये तीन वस्तु उपयुक्त हैं — वंश, भङ्ग एवं चर्म ॥ ३-४१/२ ॥’ दारुनिर्मित श्रेष्ठ धनुष का प्रमाण चार हाथ माना गया है। उसी में क्रमश: एक-एक हाथ कम मध्यम तथा अधम होता है। मुष्टिग्राह के निमित्त धनुष के मध्यभाग में द्रव्य निर्मित करावे ॥ ५-६ ॥ धनुष की कोटि कामिनी की भ्रूलता के समान आकारवाली एवं अत्यन्त संयत बनवानी चाहिये । लौह या शृङ्ग के धनुष पृथक् पृथक् एक ही द्रव्य के या मिश्रित भी बनवाये जा सकते हैं। शृङ्गनिर्मित धनुष को अत्यन्त उपयुक्त तथा सुवर्ण-बिन्दुओं से अलंकृत करे। कुटिल, स्फुटित या छिद्रयुक्त धनुष निन्दित होता है। धातुओं में सुवर्ण, रजत, ताम्र एवं कृष्ण लौह का धनुष के निर्माण में प्रयोग करे। शार्ङ्गधनुषों में – महिष, शरभ एवं रोहिण मृग के शृङ्गों से निर्मित चाप शुभ माना गया है। चन्दन, वेतस, साल, धव तथा अर्जुन वृक्ष के काष्ठ से बना हुआ दारुमय शरासन उत्तम होता है। इनमें भी शरद् ऋतु में काटकर लिये गये पके बाँसों से निर्मित धनुष सर्वोत्तम माना जाता है। धनुष एवं खड्ग की भी त्रैलोक्यमोहन- मन्त्रों से पूजा करे ॥ ७-११ ॥ लोहे, बाँस, सरकंडे अथवा उससे भिन्न किसी और वस्तु के बने हुए बाण सीधे, स्वर्णाभ, स्नायुश्लिष्ट, सुवर्णपुङ्खभूषित, तैलधौत, सुनहले एवं उत्तम पद्धयुक्त होने चाहिये। राजा यात्रा एवं अभिषेक में धनुष- बाण आदि अस्त्रों तथा पताका, अस्त्रसंग्रह एवं दैवज्ञ का भी पूजन करे ॥ १२-१३१/२ ॥ एक समय भगवान् ब्रह्मा ने सुमेरु पर्वत के शिखर पर आकाशगङ्गा के किनारे एक यज्ञ किया था। उन्होंने उस यज्ञ में उपस्थित हुए लौहदैत्य को देखा। उसे देखकर वे इस चिन्ता में डूब गये कि ‘यह मेरे यज्ञ में विघ्नरूप न हो जाय।’ उनके चिन्तन ही अग्रि से एक महाबलवान् पुरुष प्रकट हुआ और उसने भगवान् ब्रह्मा की वन्दना की। तदनन्तर देवताओं ने प्रसन्न होकर उसका अभिनन्दन किया। इस अभिनन्दन के कारण ही वह ‘नन्दक’ कहलाया और खड्गरूप हो गया। देवताओं के अनुरोध करने पर भगवान् श्रीहरि ने उस नन्दक खड्ग को निजी आयुध के रूप में ग्रहण किया। उन देवाधिदेव ने उस खड्ग को उसके गले में हाथ डालकर पकड़ा, इससे वह खड्ग म्यान के बाहर हो गया। उस खड्ग की कान्ति नीली थी, उसकी मुष्टि रत्नमयी थी। तदनन्तर वह बढ़कर सौ हाथ का हो गया। लौहदैत्य ने गदा के प्रहार से देवताओं को युद्धभूमि से भगाना आरम्भ किया। भगवान् विष्णु ने उस लौहदैत्य के सारे अङ्ग उक्त खड्ग से काट डाले। नन्दक के स्पर्शमात्र से छिन्न-भिन्न होकर उस दैत्य के सारे लौहमय अङ्ग भूतल पर गिर पड़े। इस प्रकार लोहासुर का वध करके भगवान् श्रीहरि ने उसे वर दिया कि ‘तुम्हारा पवित्र अङ्ग (लोह) भूतल पर आयुध के निर्माण के काम आयेगा।’ फिर श्रीविष्णु के कृपा प्रसाद से ब्रह्माजी ने भी उन सर्वसमर्थ श्रीहरि का यज्ञ के द्वारा निर्विघ्न पूजन किया। अब मैं खड्ग के लक्षण बतलाता हूँ ॥ १४-२०१/२ ॥ खटीखट्टर देश में निर्मित खड्ग दर्शनीय माने गये हैं। ऋषीक देश के खड्ग शरीर को चीर डालने वाले तथा शूर्पारकदेशीय खङ्ग अत्यन्त दृढ़ होते हैं। बङ्गदेश के खङ्ग तीखे एवं आघात को सहन करने वाले तथा अङ्गदेशीय खङ्ग तीक्ष्ण कहे जाते हैं। पचास अङ्गुल का खड्ग श्रेष्ठ माना गया है। इससे अर्ध-परिमाण का मध्यम होता है। इससे हीन परिमाण का खड्ग धारण न करे ॥ २१-२३ ॥ द्विजोत्तम! जिस खङ्ग का शब्द दीर्घ एवं किंकिणी की ध्वनि के समान होता है, उसको धारण करना श्रेष्ठ कहा जाता है। जिस खड्ग का अग्रभाग पद्मपत्र, मण्डल या करवीर पत्र के समान हो तथा जो घृत-गन्ध से युक्त एवं आकाश की-सी कान्तिवाला हो वह प्रशस्त होता है। खङ्ग में समाङ्गल पर स्थित लिङ्ग के समान व्रण (चिह्न) प्रशंसित है। यदि वे काक या उलूक के समान वर्ण या प्रभा से युक्त एवं विषम हों, तो मङ्गलजनक नहीं माने जाते। खङ्ग में अपना मुख न देखे। जूँठे हाथों से उसका स्पर्श न करे । खङ्ग की जाति एवं मूल्य भी किसी को न बतलाये तथा रात्रि के समय उसको सिरहाने रखकर न सोवे ॥ २४-२७ ॥ ॥ इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘चामर आदि के लक्षणों का कथन’ नामक दो सौ पैंतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २४५ ॥ Content is available only for registered users. Please login or register Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. Type your email… Subscribe