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॥ अग्निसूक्त ॥
॥ अग्निसूक्त (क) ॥
इस सूक्तके ऋषि वैश्वामित्र मधुच्छन्दा हैं, देवता अग्नि हैं तथा छन्द गायत्री है । वेद में अग्निदेवता का विशेष महत्व है । ऋग्वेदसंहिता में दो सौ सूक्त अग्नि के स्तवन में प्राप्त हैं । ऋग्वेद के सभी मण्डलों के आदि में ‘अग्निसूक्त’ के अस्तित्व से इस देव की प्रमुखता प्रकट होती है । सर्वप्रधान और सर्वव्यापक होने के साथ अग्नि सर्वप्रथम, सर्वाग्रणी भी हैं । इनका ‘जातवेद’ नाम इनकी विशेषता का द्योतक है । भूमण्डल के प्रमुख तत्त्वों से अग्नि का सम्बन्ध बताया जाता है ।

अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम् ।
होतारं रत्नधातमम् ॥ १ ॥

सबका हित करनेवाले, यज्ञ के प्रकाशक, सदा अनुकूल यज्ञकर्म करनेवाले, विद्वानों के सहायक अग्नि की मैं प्रशंसा करता हूँ ॥ १ ॥

अग्निः पूर्वेभिर्ऋषिभिरीड्यो नूतनैरुत ।
स देवाँ एह वक्षति ॥ २ ॥

सदैव से प्रशंसित अग्निदेव का आवाहन करते हैं । अग्नि के द्वारा ही देवता शरीर में प्रतिष्ठित रहते हैं । शरीर से अग्निदेव के निकल जाने पर समस्त देव इस शरीर को त्याग देते हैं ॥ २ ॥

अग्निना रयिमश्नवत् पोषमेव दिवेदिवे ।
यशसं वीरवत्तमम् ॥ ३ ॥

अग्नि ही पुष्टिकारक, बलयुक्त और यशस्वी अन्न प्रदान करते हैं । अग्नि से ही पोषण होता है, यश बढ़ता है और वीरता से धन प्राप्त होता है ॥ ३ ॥

अग्ने यं यज्ञमध्वरं विश्वतः परिभूरसि ।
स इद् देवेषु गच्छति ॥ ४ ॥

हे अग्नि ! जिस हिंसारहित यज्ञ को सब ओर से आप सफल बनाते हैं, वहीं देवों के समीप पहुँचता है ॥ ४ ॥

अग्निर्होता कविक्रतुः सत्यश्चित्रश्रवस्तमः ।
देवो देवे-भिरा गमत् ॥ ५ ॥

देवों का आवाहन करनेवाला, यज्ञ-निष्पादक, ज्ञानियों की कर्मशक्ति का प्रेरक, सत्यपरायण, विविध रूपोंवाला और अतिशय कीर्तियुक्त यह तेजस्वी अग्नि देवों के साथ इस यज्ञमें आये हैं ॥ ५ ॥

यदङ्ग दाशुषे त्वमग्ने भद्रं करिष्यसि ।
तवेत् तत् सत्य-मङ्गिरः ॥ ६ ॥

हे अग्नि ! आप दानशील का कल्याण करते हैं । हे शरीर में व्यापक अग्नि! यह आपका नि:संदेह एक सत्यकर्म है ॥ ६ ॥

उप त्वाग्ने दिवेदिवे दोषावस्तर्धिया वयम् ।
नमो भरन्त एमसि ॥ ७ ॥

हे अग्नि ! प्रतिदिन दिन और रात बुद्धिपूर्वक नमस्कार करते हुए हम आपके समीप आते हैं अर्थात् अपनी स्तुतियों द्वारा हमेशा उस प्रकाशक एवं तेजस्वी अग्नि का गुणगान करना चाहिये, दिन और रात्रि के समय उनको सदा प्रणाम करना चाहिये ॥ ७ ॥

राजन्तमध्वराणां गोपामृतस्य दीदिविम् ।
वर्धमानं स्वे दमे ॥ ८ ॥

दीप्यमान, हिंसारहित यज्ञों के रक्षक, अटल-सत्य के प्रकाशक और अपने घर में बढ़नेवाले अग्नि के पास हम नमस्कार करते हुए आते हैं ॥ ८ ॥

स नः पितेव सूनवे ऽग्ने सूपायनो भव ।
सचस्वा नः स्वस्तये ॥ ९ ॥

( ऋग्वेद १। १)
हे अग्नि ! जिस प्रकार पिता पुत्र के कल्याणकारी काम में सहायक होता है, उसी प्रकार आप हमारे कल्याण में सहायक हों ॥ ९ ॥

॥ अग्निसूक्त (ख) ॥
‘अग्नि’ वैदिक यज्ञ-प्रक्रिया के मूल आधार तथा पृथ्वीस्थानीय देव हैं । ऐतरेय आदि ब्राह्मणों में कहा गया है कि देवताओं में प्रथम स्थान ‘अग्नि’ का ही हैं-‘अग्निर्वे देवानां प्रथमः०।’ अग्नि के द्वारा ही विश्वब्रह्माण्ड में जीवन, गति और ऊर्जा का संचार सम्भव होता है । अग्नि को सब देवताओं का मुख बताया गया है और अग्नि में दी गयी आहुतियाँ हविद्रव्य के रूप में देवताओं को प्राप्त होती हैं, इसीलिये इन्हें देवताओं का उपकारक कहा गया है । सामवेद के पूर्वार्चिक का आग्नेयपर्व अग्नि की महिमा एवं स्तुति में पर्यवसित है । इस आग्नेयपर्व के अन्तिम बारहवें खण्ड में १२ मन्त्र पठित हैं, यह खण्ड अग्निसूक्त कहलाता है । इसमें अग्नि को सत्यस्वरूप, यज्ञ का पालक, महान् तेजस्वी और रक्षा करनेवाला बताया गया है।

प्र मंहिष्ठाय गायत ऋताव्ने बृहते शुक्रशोचिषे ।
उपस्तुतासो अग्नये ॥ १ ॥
हे स्तोताओं ! आप श्रेष्ठ स्तोत्रों द्वारा अग्निदेव की स्तुति करें । वे महान् सत्य और यज्ञ के पालक, महान् तेजस्वी और रक्षक हैं ॥ १ ॥


प्र सो अग्ने तवोतिभिः सुवीराभिस्तरति वाजकर्मभिः ।
यस्य सख्यमाविथ ॥ २ ॥
हे अग्निदेव ! आप जिसके मित्र बनकर सहयोग करते हैं, वे स्तोतागण आपसे श्रेष्ठ संतान, अन्न, बल आदि समृद्धि प्राप्त करते हैं ॥ २ ॥


तं गूर्धया स्वर्णरं देवासो देवमरतिं दधन्विरे ।
देवत्रा हव्यमूहिषे ॥ ३ ॥

हे स्तोताओं ! स्वर्ग के लिये हवि पहुँचानेवाले अग्निदेव की स्तुति करो । याजकगण स्तुति करते हैं और देवताओं को हवनीय द्रव्य पहुँचाते हैं ॥ ३ ॥

मा नो हृणीथा अतिथिं वसुरग्निः पुरुप्रशस्त एषः ।
यः सुहोता स्वध्वरः ॥ ४ ॥

हमारे प्रिय अतिथिस्वरूप अग्निदेव को यज्ञ से दूर मत ले जाओ । वे देवताओं को बुलानेवाले, धनदाता एवं अनेक मनुष्यों द्वारा स्तुत्य हैं ॥ ४ ॥

भद्रो नो अग्निराहुतो भद्रा रातिः सुभग भद्रो अध्वरः ।
भद्रा उत प्रशस्तयः ॥ ५ ॥

हवियों से संतुष्ट हुए हे अग्निदेव ! आप हमारे लिये मंगलकारी हों । हे ऐश्वर्यशाली ! हमें कल्याणकारी धन प्राप्त हो और स्तुतियाँ हमारे लिये । मंगलमयी हों ॥ ५ ॥

यजिष्ठं त्वा ववृमहे देवं देवत्रा होतारममर्त्यम् ।
अस्य यज्ञस्य सुक्रतुम् ॥ ६ ॥

हे देवाधिदेव अग्ने ! आप श्रेष्ठ याज्ञिक हैं। इस यज्ञको भली प्रकार सम्पन्न करनेवाले हैं। हम आपकी स्तुति करते हैं ॥ ६ ॥

तदग्ने द्युम्नमा भर यत्सासाहा सदने कं चिदत्रिणम् ।
मन्यु जनस्य दूढ्यम् ॥ ७ ॥

हे अग्ने ! आप हमें प्रखर तेज प्रदान करें, जिससे यज्ञ में आनेवाले अतिभोगी दुष्टों को नियन्त्रित किया जा सके। साथ ही आप दुर्बुद्धियुक्त जनों के क्रोध को भी दूर करें ॥ ७ ॥

यद्वा उ विश्पतिः शितः सुप्रीतो मनुषो विशे ।
विश्वेदग्निः प्रतिरक्षांसि सेधति ॥ ८ ॥

[ सामवेद, पूर्वाचिक, आग्नेयपर्व १२ । १-८]
यजमानोंके रक्षक, हविष्यान्नसे प्रदीप्त ये अग्निदेव प्रसन्न होकर याजकोंके यहाँ प्रतिष्ठित होते तथा सभी दुष्ट-दुराचारियोंका (अपने प्रभावसे) विनाश करते हैं ॥ ८ ॥

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