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॥ अघोरास्त्र मन्त्र प्रयोगः ॥

सामान्य क्रम में अश्वशान्ति, गजशांति, महामारी, राजकीय उपद्रव, प्रेत, शत्रुबाधा असामयिक गर्भपात शान्ति हेतु इस मन्त्र का प्रयोग किया जा सकता है ।
इसके साथ में शिवपूजा, ईशानदि देवों का पूजन करना चाहिये । शारदा तिलक व अग्निपुराण में इनका विधान है ।
अघोरास्त्र  मंत्र –

“ह्रीं स्फुर स्फुर प्रस्फुर प्रस्फुर घोर घोरतर तनुरूप चट चट प्रचट प्रचट कह कह वम वम बंध बंध घातय घातय हुँ फट् ॥”

विनियोगः- ॐ अस्य श्री अघोरास्त्र मंत्रस्य, अघोर ऋषिः, त्रिष्टुप् छंदः अघोर रुद्रदेवता, ह ल (व्यंजन वर्ण) बीजं, स्वराः शक्तिं सर्वोपद्रव शमनार्थे जपे विनियोगः । (पद्मपादाचार्य के मत से ‘हुँ’ बीजं, ‘ह्रीं’ शक्तिं)

करन्यासः
ह्रीं स्फुर स्फुर अंगुष्ठाभ्यां नमः ।
प्रस्फुर प्रस्फुर तर्जनीभ्यां नमः ।
घोर घोर-तर तनुरूप मध्यमाभ्यां नमः ।
चट चट प्रचट प्रचट अनामिकाभ्यां नमः ।
कह कह वम वम कनिष्ठिकाभ्यां नमः ।
बंध बंध घातय घातय हुँ फट करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः ।

षडङ्गन्यासः
ह्रीं स्फुर स्फुर हृदयाय नमः ।
प्रस्फुर प्रस्फुर शिरसे स्वाहा ।
घोर घोर-तर तनुरूप शिखायै वषट् ।
चट चट प्रचट प्रचट कवचाय हुँ ।
कह कह वम वम नेत्रत्रयाय वौषट् ।
बंध बंध घातय घातय हुँ फट अस्त्राय फट् ।

इसके पश्चात् १. शिर, २. नेत्र, ३. मुख, ४. कण्ठ, ५. हृदय, ६. नाभि, ७. लिङ्ग, ८. ऊरू, ९. दो जानु, १०. दो जङ्घा, तथा ११. दोनों पैर-इन ११ स्थानों में इस मन्त्र का ११ भाग कर न्यास करना चाहिए, वे भाग क्रमश: पाँच, छः, दो, आठ, चार, छः, चार, चार, चार, छः और दो वर्णों के क्रम से समझना चाहिए ॥ यथा –
ह्रीं स्फुर स्फुर शिरसि । प्रस्फुर प्रस्फुर नेत्रे । घोर मुखे । घोरतर तनुरूप कण्ठाय । चट चट हृदि । प्रचट प्रचट नाभये । कह कह लिङ्गे । वम वम ऊरुवे । बंध बंध जानुनी । घातय घातय जङ्घे । हुँ फट् पदे ॥

ध्यानम्
सजल घनसमाभं भीम दंष्ट्रं त्रिनेत्रं
भुजगधरमघोरं ह्यरक्त वस्त्राङ्ग रागाम् (रागम्)।
परशु डमरू खड्गान् खेटकं बाण चापौ
त्रिशिखि नर कपाले विभ्रतं भावयामि ॥

जलयुक्त बादल के समान जिनके शरीर की कान्ति हैं, जिनकी दंष्ट्रा अत्यन्त भयानक हैं जो तीन नेत्रों से युक्त तथा साँपों को धारण करने वाले हैं-ऐसे रक्त वस्त्र एवं रक्त अङ्गराग से भूषित परशु डमरू, खड्ग, खेटक, बाण, चाप, त्रिशूल तथा नर कपाल को धारण करने वाले अघोर का मैं ध्यान करता हूँ ॥

अलग अलग कामना भेद से अलग अलग ध्यान दिये गये है । शारदा तिलक के अनुसार अभिचार में तथा ग्रहोत्पात में कृष्णवर्ण का ध्यान करे, वश्य प्रयोग में कुसुम्भ के वर्ण का, मुक्ति लाभ हेतु प्रभु का वर्ण चन्द्रमा के समान आभायुक्त होता है । यथा —
अभिचारे ग्रहध्वंसे कृष्णवर्णो भवेद्विभुः ।
वश्ये कुसुम्भसङ्काशो मुक्तौ चन्द्रसमप्रभः ॥

शत्रुसेना नाश हेतु
सहस्राब्धिरवं हस्तैर्धनुं पञ्चशतैरपि ।
संधायाकृष्य च शरान् विमुंचंतमनारतम् ॥
धावन्तं रिपुसेनायां वमद् विद्युद्घनोपमं ।
ज्वलत् पिंगोर्ध्वकेशं च गजचर्मावगुंठितम् ॥

घोर अपस्मृतिनाश ग्रहशान्त्यार्थ-गजशांति, अश्वशांति, उल्कापात आदि शांति हेतु
त्रि-पादहस्तनयनं नीलाञ्जन चयोपमम् ।
शूलांसि सूची-हस्तं च घोरदंष्ट्राट्टहासिनम् ॥

उपरोक्त ध्यान में त्रिपाद, त्रिहस्त, त्रिनयन वाले नीलाञ्जन स्वरूप है तथा तीनों हाथों में शूल, तलवार एवं सूची है, उनके भयानक दांत है एवं भयंकर गर्जना अट्टहास करने वाले शिव को नमन करता हु ऐसा ध्यान करना चाहिये ।
भूत प्रेतादिनाश हेतु
खङ्ग खेटं तथा घण्टां वेतालं शूलमेव च ।
कपालं चापि विभ्राणं पिङ्गोर्ध्व कच भीषणम् ॥
भूतप्रेत विनाशाय ध्यायेद् भीमाट्टहासिनम् ॥

मृत्युभय (मारकेश ग्रहों को) दूर करने हेतु
सीताब्ज शीतांशुपुटमिन्दु कांतेन्दु-वर्चसम् ।
आशाम्बरं व्याघ्रनख-प्रमुखैवलि भूषणैः ॥
अलंकृताङ्गं द्विभुजं त्रिवर्षार्धकरूपिणम् ।
क्रमाङ्गं सुमुखं सौभ्यं नीलकुंचित कुन्तलम् ॥

श्रीलाभ हेतु
तप्तजाम्बूनदनिभं शूलखड्ग वराभयम् ।
रक्तारविदवसतिं स्मरन्नुच्चैः श्रियं लभेत् ॥

पुरश्चरण – साधक उक्त मन्त्र का एक लाख जप करे, पश्चात् उसका दशांश घृतसिक्त तिल से होम करे, जिससे साधक को मन्त्र सिद्ध हो जाता है ।

॥ अघोरास्त्र-यन्त्रार्चनम् ॥
(१) त्रिकोण मध्य में ध्यान सहित अघोर शिव का आवाहन करे ।
(२) षट्कोणे – हृदयाय नमः, शिरसे स्वाहा, शिखायै वषट् , कवचाय हुँ नेत्रत्रयाय वौषट् अस्त्राय फट् से अङ्गन्यास करे । या षडङ्ग न्यासवत् मंत्रो से आवाहन करें ।
(३) अष्टदल मध्ये – (पूर्वादि क्रमण) – परशवे नमः, डमरुवे नमः, खङ्गाय नमः, खेटाय नमः, वाणाय नमः, कार्मुकाय नमः, शूलाय नमः, कपालाय नमः ।
(४) अष्टदले – (दलाग्रभागे) – ब्राह्म यैनमः, माहेश्वर्यै नमः, कौमार्यै नमः, वैष्णवै नमः, वाराह्यै नमः, इन्द्राण्यै नमः, चामुण्डायै नमः, महालक्ष्यै नमः ।
(५) भूपूरे- परिधि में इन्द्रादि लोकपालों व उनके वज्रादि आयुधों की पूजा करें ।

॥ मेरुतंत्रोक्त अघोरास्त्र मन्त्र ॥
मन्त्र – “ह्रीं स्फुर स्फुर प्रस्फुर प्रस्फुर तर तर प्रतर प्रतर प्रद प्रद प्रचट प्रचट कह कह मह मह बंध बंध घातय घातय हुं हुं ।”
विनियोग में छन्दः उष्णिक् वं बीज कहा गया है शेष उपरोक्तानुसार है ।
अङ्गन्यास के लिये ६ विभाग इस तरह से है यथा – ह्रीं स्फुर स्फुर हृदयाय नमः । प्रस्फुर प्रस्फुर शिरसे स्वाहा । तर तर प्रतर प्रतर शिखायै वषट् । प्रद प्रद प्रचट प्रचट कवचाय हुं । कह कह मह मह नेत्रत्रयाय वौषट् । बंध बंध घातय घातय हुं हुं अस्त्राय फट् ।
ध्यानम्
मेघाकारं ततो ध्यायेद् भीमदंष्ट्रं त्रिलोचनम्,
भुजङ्गभूषणं रक्तवसनालेप शोभितम् ।
परशुं करवालं च वाणं त्रिशिखमेव च,
दधानां दक्षिणैर्हस्तैरूर्ध्वादि क्रमतः परैः ॥

एक लक्ष जप करके दशांश होम करें ।
इस प्रकार पूजा जपादि के द्वारा मन्त्र सिद्ध हो जाने के पश्चात् साधक अपना अभिलषित काम्य प्रयोग करे । ऐसा करने से उसके मनोरथों की सिद्धि होगी इसमें संशय नहीं ॥ घी, अपामार्ग, तिल, सफेद सर्षप, पायस इनमें घी मिला कर एक एक के क्रम से रात्रि काल में बुद्धिमान् साधक एक एक सहस्र होम करे ॥ इस प्रकार से किया गया होम तत्क्षण भूत एवं कृत्यादि उपद्रवों को नष्ट करता हैं ।
सित किंशुक, निर्गुण्डी, धतूरा, अपामार्ग की लकड़ी से इस मन्त्र द्वारा किया गया होम पूर्ववत् भूत बाधा को शान्त करता है ।
अपामार्ग एवं आरग्वध की समिधा जो पञ्चगव्य में प्रक्षालित की गई हो उससे कृष्णपक्ष की पञ्चमी तिथि की रात्रि में साधक संयमपूर्वक पृथक् पृथक् एक एक हजार होम करे तो भूतों का निग्रह हो जाता है ॥
क्रमश: घी. अपामार्ग और पञ्चगव्य में पकाये गये पायस-इनमें घी मिला कर एक एक द्रव्य से पृथक् पृथक् सहस्र संख्या में होम करे और आहुति शेष घृत किसी पात्र में छोड़ता जाय, फिर उस संस्रव को भूत बाधा की शान्ति के लिये साध्य को पिलावे तो भूत बाधा शान्त हो जाती है ॥

यंत्र प्रयोग- (द्वितीय प्रकाराः)
(१) षट्कोण के मध्य में शक्ति सहित अघोर रुद्र का ध्यान करे। या मंत्र यंत्र में लिखें। षट्कोणों में हृदयादि न्यास शक्तियों का आवाहन करें।
यंत्रोंद्धार में लिखा है कि
मध्ये शक्तिं ससाध्यां स्वरगणसहितां केसरेष्वष्टवर्गान्
पत्रान्तर्मन्त्रवर्णान् लिखतु गुणमितानग्रदेशेषु तद्वत् ।
वर्मास्त्रोल्लासिकोणे दहनपुरयुगे कल्पिते भूपुरस्थे
यन्त्रेऽस्मिन् प्राग्विधानात् कृतकलशविधिः सर्वदुःखापहारी ॥
इस प्रकार से अष्टदल के मध्य में सशक्ति देव का आवाहन करे अष्टदल के केसर(मूलभाग)में अं आं, इं, ईं, उं ऊं, ऋं, ॠं, लृं, ॡं, एं ऐं, ओं औं, अं अः लिखें ।
(अष्टवर्गान् पत्रान्तं) क वर्ग, च वर्ग, ट वर्ग, त वर्ग, प वर्ग, यं रं लं वं, शं वं सं हं, लं क्षं लिखे ।
(अग्रदेशेषु मंत्र वर्णान्) अष्टदलों के अग्रभाग में ह्रीं स्फुर स्फुर, प्रस्फुर प्रस्फुर, घोरघोर तनुरूप, चट चट, प्रचट प्रचट, कह कह, वम वम, बंध बंध, घातय घातय लिखे एवं ईशान व अग्निकोण में क्रमश: हुं एवं फट् लिखकर बाहर चारद्वार युक्त परिधि बनायें । इस यंत्र पर कलश स्थापन करे पूजा करें । कलश के जल से अभिषेक करे यंत्र को धारण करने से सभी प्रकार के दुःखों का हरण होता है ।
यंत्र प्रयोग- (तृतीय प्रकाराः)
षट्कोण के प्रत्येक कोणों पर प्रस्फुर शब्द के एक एक अक्षर को क्रमश: दो बार लिखें, पुन: उसके भीतर स्फर से संघटित साध्य साधन कर्म तथा साधक के सहित शक्ति मन्त्र (ह्रीं) लिखें । पुनः उसके चारों ओर बनाये गये अष्टदल कमल पर शिष्ट मन्त्र वर्ण अर्थात् घोर से लेकर घातय पर्यन्त ३८ अक्षरों को छ:, चार, चार, छ:, चार, चार, छः और छः वर्णों के क्रम से आठ भागों में प्रविभक्त कर प्रत्येक पत्रों पर लिखें, उस अष्टदल कमल को चारों ओर षट्कोण से आवृत कर उसके प्रत्येक कोणों पर हुं फट् लिख कर आवृत करे । उसके षट्कोण के चारों ओर दो भूपुर बना दे तो अघोर यन्त्र बन जाता है ॥
यह अघोर यन्त्र क्षुद्र रोग, चोर, ग्रह, व्याल, भूत तथा अपस्मारजन्य बाधाओं को दूर करता है, और सब प्रकार की संपत्ति से परिपूर्ण करता है ॥

॥ श्रीनीलकण्ठ अघोरास्त्र स्तोत्रं ॥

विनियोगः- ॐ अस्य श्री भगवान् नीलकण्ठ सदा-शिव-स्तोत्र-मंत्रस्य श्री ब्रह्मा ऋषिः, अनुष्टुप् छन्दः । श्रीनील-कण्ठ सदाशिवो देवता । ब्रह्म बीजं । पार्वती शक्तिः । मम समस्त-पाप-क्षयार्थं क्षेम-स्थैर्यायुरारोग्याभिवृद्ध्यर्थं मोक्षादि-चतुर्वर्ग-साधनार्थं च श्रीनील-कण्ठ-सदा-शिव-प्रसादसिद्ध्यर्थे जपे विनियोगः ॥
ऋष्यादिन्यासः – श्रीब्रह्मा ऋषये नमः शिरसि । अनुष्टप छन्दसे नमः मुखे । श्रीनीलकण्ठ सदाशिव देवतायै नमः हृदि । ब्रह्म-बीजाय नमः लिङ्गे । पार्वती-शक्त्यै नमः नाभौ । मम समस्त पापक्षयार्थ क्षेमस्थैर्यायुरारोग्याभि वृद्धयर्थं मोक्षादि चतुर्वर्ग साधनार्थं च श्रीनीलकण्ठ सदाशिव प्रसाद सिद्ध्यर्थे जपे विनियोगाय नमः सर्वाङ्गे ।

॥ स्तोत्रम् ॥
ॐ नमो नीलकण्ठाय, श्वेतशरीराय, सर्पालंकारभूषिताय,
भुजङ्गपरिकराय, नागयज्ञोपवीताय, अनेकमृत्यु विनाशाय नमः ।
युग युगान्त कालप्रलयप्रचण्डाय, प्रज्वाल-मुखाय नमः ।
दंष्ट्राकराल घोररूपाय हूं हूं फट् स्वाहा ।
ज्वालामुखाय, मंत्र करालाय, प्रचण्डार्क सहस्रांशु-चण्डाय नमः ।
कर्पूरमोद-परिमलाङ्गाय नमः ।
ॐ ईं ईं नील महानील वज्र वैलक्ष्य मणि-माणिक्य मुकुट भूषणाय,
हन-हन-हन-दहन-दहनाय
श्रीअघोरास्त्र मूल मंत्र – ॐ ह्रां ॐ ह्रीं ॐ ह्रूं स्फुर अघोर-रूपाय रथ रथ तंत्र-तंत्र-चट्-चट्-कह-कह मद-मद-दहन-दाहनाय जरा-मरण-भय-हूं हूं फट् स्वाहा।
अनन्ताघोर-ज्वर-मरण-भय-क्षय-कुष्ठ-व्याधि-विनाशाय,
शाकिनीडाकिनी-ब्रह्मराक्षस-दैत्य-दानव-बन्धनाय,
अपस्मार-भूत-बैताल-डाकिनी-शाकिनी-सर्व-ग्रह-विनाशाय,
मंत्र-कोटि-प्रकटाय, पर-विद्योच्छेदनाय, हूं हूं फट् स्वाहा ।
आत्म-मंत्र संरक्षणाय नमः ।
ॐ ह्रां ह्रीं ह्रौं नमो भूत-डामरी-ज्वाल-वश-भूतानां द्वादश-भूतानां
त्रयोदश-षोडश-प्रेतानां पञ्च-दश-डाकिनी-शाकिनीनां हन हन ।
दहन-दारनाथ ! एकाहिक-द्व्याहिक-त्र्याहिक-चातर्थिक-पञ्चाहिक-व्याघ्र-
पादान्त-वातादि-वात-सरिक-कफ-पित्तक-काश-श्वास-श्लेष्मादिकं दह-दह,
छिन्धि-छिन्धि, श्रीमहादेव-निर्मित-स्तंभन-मोहन-वश्याकर्षणोच्चाटन-
कीलनोद्वेषणइति षट्-कर्माणि वृत्य हूं हूं फट् स्वाहा ।
वात ज्वर, मरण-भय, छिन्न-छिन्न नेह नेह भूतज्वर,
प्रेतज्वर, पिशाचज्वर, रात्रिज्वर, शीतज्वर, तापज्वर, बालज्वर, कुमारज्वर,
अमितज्वर, दहनज्वर, ब्रह्मज्वर, विष्णुज्वर, रुद्रज्वर, मारीज्वर, प्रवेशज्वर,
कामादि-विषम ज्वर, मारी-ज्वर, प्रचण्ड-घराय, प्रमथेश्वर ! शीघ्रं हूं हूं फट् स्वाहा ।
ॐ नमो नीलकण्ठाय, दक्षज्वर-ध्वंसनाय, श्रीनीलकण्ठाय नमः ।
फलश्रुति-
सप्तवारं पठेत् स्तोत्रं, मनसा चिन्तितं जपेत् ।
तत्सर्वं सफलं प्राप्तं, शिवलोकं स गच्छति ॥
॥ श्रीरामेश्वर तंत्रे श्रीनीलकण्ठ-अघोरास्त्र स्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥

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