अभयप्राप्तिसूक्त

जीवन में सर्वाधिक प्रिय वस्तु अपने प्राण ही होते हैं और सबसे बड़ा भय भी प्राणों से रहित होने का-मृत्यु का ही होता है। इसी दृष्टि से मन्त्रद्रष्टा ऋषि ने सब प्रकार से भयमुक्त रहने के लिये प्राणों की प्रार्थना की है और कहा है-जिस प्रकार द्यौ, पृथिवी, अन्तरिक्ष, सूर्य, चन्द्रमा आदि सभी भयमुक्त रहते हैं- कभी क्षीण नहीं होते, उसी प्रकार हे प्राणो ! तुम भी निर्भय हो जाओ और अक्षुण्ण बने रहो। यह सूक्त हमें निर्भय तथा साहसी बनने की शिक्षा देता है। अथर्ववेद के द्वितीय काण्ड के इस पन्द्रहवें सूक्त में तेरह मन्त्र हैं। इस सूक्त के ऋषि ब्रह्मा हैं, देवता प्राण-अपान आदि हैं और छन्द त्रिवृद्गायत्री है । जीवन में प्राणों की रक्षा तथा उत्साहसम्वर्धन आदि प्रसंगों के लिये यह सूक्त बड़ा उपयोगी सिद्ध हो सकता है।

यथा द्यौश्च पृथिवी च न बिभीतो न रिष्यतः ।
एवा मे प्राण मा बिभेः एवा मे प्राण मा रिषः ॥ १ ॥
यथा वायुश्चान्तरिक्षं च न बिभीतो न रिष्यतः ।
एवा मे प्राण मा बिभेः एवा मे प्राण मा रिषः ॥ २ ॥
यथा सूर्यश्च चन्द्रश्च न बिभीतो न रिष्यतः ।
एवा मे प्राण मा बिभेः एवा मे प्राण मा रिषः ॥ ३ ॥

जिस प्रकार द्यौ और पृथिवी न डरते हैं और न क्षीण होते हैं, हे मेरे प्राण! उसी प्रकार तुम भी न डरो, न क्षीण हो ॥ १ ॥
जिस प्रकार वायु और अन्तरिक्ष न डरते हैं, न क्षीण होते हैं, हे मेरे प्राण! उसी प्रकार तुम भी न डरो, न क्षीण हो ॥ २ ॥
जिस प्रकार सूर्य और चन्द्रमा न डरते हैं, न क्षीण होते हैं, हे मेरे प्राण ! उसी प्रकार तुम भी न डरो, न क्षीण हो ॥ ३ ॥

यथाहश्च रात्री च न बिभीतो न रिष्यतः ।
एवा मे प्राण मा बिभेः एवा मे प्राण मा रिषः ॥ ४ ॥
यथा धेनुश्चानड्वांश्च न बिभीतो न रिष्यतः ।
एवा मे प्राण मा बिभेः एवा मे प्राण मा रिषः ॥ ५ ॥
यथा मित्रश्च वरुणश्च न बिभीतो न रिष्यतः ।
एवा मे प्राण मा बिभेः एवा मे प्राण मा रिषः ॥ ६ ॥
यथा ब्रह्म च क्षत्रं च न बिभीतो न रिष्यतः ।
एवा मे प्राण मा बिभेः एवा मे प्राण मा रिषः ॥ ७ ॥
यथेन्द्रश्चेन्द्रियं च न बिभीतो न रिष्यतः ।
एवा मे प्राण मा बिभे: एवा मे प्राण मा रिषः ॥ ८ ॥
यथा वीरश्च वीर्यं च न बिभीतो न रिष्यतः ।
एवा मे प्राण मा बिभेः एवा मे प्राण मा रिषः ॥ ९ ॥

जिस प्रकार दिन और रात्रि न डरते हैं, न क्षीण होते हैं, हे मेरे प्राण ! उसी प्रकार तुम भी न डरो, न क्षीण हो ॥ ४ ॥
जिस प्रकार धेनु और वृषभ डरते हैं, न क्षीण होते हैं, हे मेरे प्राण ! उसी प्रकार तुम भी न डरो, न क्षीण हो ॥ ५ ॥
जिस प्रकार मित्र और वरुण न डरते हैं, न क्षीण होते हैं, हे मेरे प्राण ! उसी प्रकार तुम भी न डरो, न क्षीण हो ॥ ६ ॥
जिस प्रकार ब्रह्म और क्षत्र न डरते हैं, न क्षीण होते हैं, हे मेरे प्राण ! उसी प्रकार तुम भी न डरो, न क्षीण हो ॥ ७ ॥
जिस प्रकार इन्द्र और इन्द्रियाँ न डरते हैं, न क्षीण होते हैं, हे मेरे प्राण ! उसी प्रकार तुम भी न डरो, न क्षीण हो ॥ ८ ॥
जिस प्रकार वीर और वीर्य न डरते हैं और न क्षीण होते हैं, हे मेरे प्राण! उसी प्रकार तुम भी न डरो, न क्षीण हो ॥ ९ ॥

यथा प्राणश्चापानश्च न बिभीतो न रिष्यतः ।
एवा मे प्राण मा बिभेः एवा मे प्राण मा रिषः ॥ १० ॥
यथा मृत्युश्चामृतं च न बिभीतो न रिष्यतः ।
एवा मे प्राण मा बिभेः एवा मे प्राण मा रिषः ॥ ११ ॥
यथा सत्यं चानृतं च न बिभीतो न रिष्यतः ।
एवा मे प्राण मा बिभेः एवा मे प्राण मा रिषः ॥ १२ ॥
यथा भूतं च भव्यं च न बिभीतो न रिष्यतः ।
एवा मे प्राण मा बिभेः एवा मे प्राण मा रिषः ॥ १३ ॥

[ अथर्ववेद, पैप्पलादशाखा २।१५]

जिस प्रकार प्राण और अपान न डरते हैं, न क्षीण होते हैं, हे मेरे प्राण ! उसी प्रकार तुम भी न डरो, न क्षीण हो ॥ १० ॥
जिस प्रकार मृत्यु और अमृत न डरते हैं और न क्षीण होते हैं, हे मेरे प्राण ! उसी प्रकार तुम भी न डरो, न क्षीण हो ॥ ११ ॥
जिस प्रकार सत्य और अनृत न डरते हैं और न क्षीण होते हैं, हे मेरे प्राण ! उसी प्रकार तुम भी न डरो, न क्षीण हो ॥ १२ ॥
जिस प्रकार भूत और भव्य न डरते हैं और न क्षीण होते हैं, हे मेरे प्राण ! उसी प्रकार तुम भी न डरो, न क्षीण हो ॥ १३ ॥

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