अभ्युदयसूक्त

अथर्ववेद के उत्तरार्द्ध भाग में १७वें काण्ड के रूप में अभ्युदयसूक्त प्राप्त है। इसके ऋषि ब्रह्मा तथा देवता आदित्य हैं। इस सूक्त में स्तोता अपने अभ्युदय हेतु परब्रह्म परमेश्वर से दीर्घायु, सर्वप्रियता, सुमति, सुख, तेज, ज्ञान, बल, पवित्र वाणी, बलवान् प्राणशक्ति, सर्वत्र अनुकूलता आदि वरदानों की प्रार्थना कर रहा है। इसीलिये आत्म- अभ्युदय हेतु इस सूक्त का पाठ करने की परम्परा है।

विषासहिं सहमानं सासहानं सहीयांसम् ।
सहमानं सहोजितं स्वर्जितं गोजितं संधनाजितम् ।
ईड्यं नाम ह्व इन्द्रमायुष्मान् भूयासम् ॥ १ ॥
विषासहिं सहमानं सासहानं सहीयांसम् ।
सहमानं सहोजितं स्वर्जितं गोजितं संधनाजितम् ।
ईड्यं नाम ह्न इन्द्रं प्रियो देवानां भूयासम् ॥ २ ॥

अत्यन्त समर्थ, अत्यन्त बलवान्, नित्यविजयी, शत्रु को दबाने वाले, महाबलिष्ठ, बल से दिग्विजय करने वाले, अपने सामर्थ्य से जीतने वाले, भूमि इन्द्रियों और गौओं को जीतने वाले, धन को जीतकर प्राप्त करने वाले तथा प्रशंसनीय यश वाले प्रभु की मैं प्रशंसा करता हूँ, जिससे मैं दीर्घायु होऊँ ॥ १ ॥
अत्यन्त समर्थ, अत्यन्त बलवान्, नित्यविजयी, शत्रु को दबाने वाले, महाबलिष्ठ, बल से दिग्विजय करने वाले, अपने सामर्थ्य से जीतने वाले, भूमि इन्द्रियों और गौओं को जीतने वाले, धन को जीतकर प्राप्त करने वाले तथा प्रशंसनीय यश वाले प्रभु की मैं प्रशंसा करता हूँ, जिससे मैं देवों का प्रिय बनूँ ॥ २ ॥

विषासहिं सहमानं सासहानं सहीयांसम् ।
सहमानं सहोजितं स्वर्जितं गोजितं संधनाजितम् ।
ईड्यं नाम ह्व इन्द्रं प्रियः प्रजानां भूयासम् ॥ ३ ॥
विषासहिं सहमानं सासहानं सहीयांसम् ।
सहमानं सहोजितं स्वर्जितं गोजितं संधनाजितम् ।
ईड्यं नाम ह्व इन्द्रं प्रियः पशूनां भूयासम् ॥ ४ ॥
विषासहिं सहमानं सासहानं सहीयांसम् ।
सहमानं सहोजितं स्वर्जितं गोजितं संधनाजितम् ।
ईड्यं नाम ह्व इन्द्रं प्रियः समानानां भूयासम् ॥ ५ ॥

अत्यन्त समर्थ, अत्यन्त बलवान्, नित्यविजयी, शत्रु को दबाने वाले, महाबलिष्ठ, बल से दिग्विजय करने वाले, अपने सामर्थ्य से जीतने वाले, भूमि इन्द्रियों और गौओं को जीतने वाले, धन को जीतकर प्राप्त करने वाले तथा प्रशंसनीय यश वाले प्रभु की मैं प्रशंसा करता हूँ, जिससे मैं प्रजाओं का प्रिय होऊँ ॥ ३ ॥
अत्यन्त समर्थ, अत्यन्त बलवान्, नित्यविजयी, शत्रु को दबाने वाले, महाबलिष्ठ, बल से दिग्विजय करने वाले, अपने सामर्थ्य से जीतने वाले, भूमि इन्द्रियों और गौओं को जीतने वाले, धन को जीतकर प्राप्त करने वाले तथा प्रशंसनीय यश वाले प्रभु की मैं प्रशंसा करता हूँ, जिससे मैं पशुओं का प्रिय होऊँ ॥ ४ ॥
अत्यन्त समर्थ, अत्यन्त बलवान्, नित्यविजयी, शत्रु को दबानेवाले, महाबलिष्ठ, बल से दिग्विजय करने वाले, अपने सामर्थ्य से जीतने वाले, भूमि; इन्द्रियों और गौओं को जीतने वाले, धन को जीतकर प्राप्त करने वाले तथा प्रशंसनीय यश वाले प्रभु की मैं प्रशंसा करता हूँ, जिससे मैं समान योग्यता वाले पुरुषों को भी प्रिय बनूँ ॥ ५ ॥

उदिद्युदिहि सूर्य वर्चसा माभ्युदिहि ।
द्विषंश्च मह्यं रध्यतु मा चाहं द्विषते रधं
तवेद् विष्णो बहुधा वीर्याणि ।
त्वं नः पृणीहि पशुभिर्विश्वरूपैः सुधायां मा धेहि परमे व्योमन् ॥ ६ ॥
उदिह्युदिहि सूर्य वर्चसा माभ्युदिहि ।
यांश्च पश्यामि यांश्च न तेषु मा सुमतिं
कृधि तवेद् विष्णो बहुधा वीर्याणि ।
त्वं नः पृणीहि पशुभिर्विश्वरूपैः सुधायां मा धेहि परमे व्योमन् ॥ ७ ॥
मा त्वा दभन्त्सलिले अप्स्व१न्तर्ये पाशिन उपतिष्ठन्त्यत्र ।
हित्वाशस्तिं दिवमारुक्ष एतां स नो
मृड सुमतौ ते स्याम तवेद् विष्णो बहुधा वीर्याणि ।
त्वं नः पृणीहि पशुभिर्विश्वरूपैः सुधायां मा धेहि परमे व्योमन् ॥ ८ ॥

हे सूर्य उदय होइये, उदय को प्राप्त होइये, अपने तेज से उदित होकर मुझ पर चारों ओर से प्रकाशित होइये। मेरा द्वेष करने वाला मेरे वश में हो जाय, परंतु मैं द्वेष करने वाले शत्रु के वश कभी न होऊँ । हे व्यापक ईश्वर ! आपके ही वीर्य अनेक प्रकार के हैं। आप हमें अनेक रूपवाले पशुओं से पूर्ण करें और परम आकाश में मुझे अमृत में धारण करें ॥ ६ ॥
हे सूर्य ! उदय को प्राप्त होइये, उदय को प्राप्त होइये और अपने तेज से मुझे प्रकाशित कीजिये। जिन प्राणियों को मैं देखता हूँ और जिनको नहीं भी देखता – उनके विषय में मुझे सुमति वाला कीजिये। आप हमें अनेक रूप वाले पशुओं से पूर्ण करें और परम आकाश में मुझे अमृत में धारण करें ॥ ७ ॥
जल के अन्दर जो पाश वाले यहाँ आकर उपस्थित होते हैं, वे आपको न दबायें । निन्दा को त्यागकर द्युलोक पर आरूढ़ होइये और वह आप हमें सुखी कीजिये, हम आपकी सुमति में रहेंगे। आप हमें अनेक रूपवाले पशुओं से पूर्ण करें और परम आकाश में मुझे अमृत में धारण करें ॥ ८ ॥

त्वं न इन्द्र महते सौभगायादब्धेभिः परि
पाह्यक्तुभिस्तवेद् विष्णो बहुधा वीर्याणि ।
त्वं नः पृणीहि पशुभिर्विश्वरूपैः सुधायां मा धेहि परमे व्योमन् ॥ ९ ॥
त्वं न इन्द्रोतिभिः शिवाभिः शंतमो भव ।
आरोहंस्त्रिदिवं दिवो गुणानः सोमपीतये प्रियधामा
स्वस्तये तवेद् विष्णो बहुधा वीर्याणि ।
त्वं नः पृणीहि पशुभिर्विश्वरूपैः सुधायां मा धेहि परमे व्योमन् ॥ १० ॥
त्वमिन्द्रासि विश्वजित् सर्वावित् पुरुहूतस्त्वमिन्द्र ।
त्वमिन्द्रेमं सुहवं स्तोममेरयस्व स नो मृड सुमतौ
ते स्याम तवेद् विष्णो बहुधा वीर्याणि ।
त्वं नः पृणीहि पशुभिर्विश्वरूपैः सुधायां मा धेहि परमे व्योमन् ॥ ११ ॥

हे इन्द्र ! आप हम सबको बड़े सौभाग्य के लिये न दबने वाले प्रकाशों से सब ओर से सुरक्षित रखें। आप हमें अनेक रूप वाले पशुओं से पूर्ण करें और परम आकाश में मुझे अमृत में धारण करें ॥ ९ ॥
हे इन्द्र ! आप कल्याणपूर्ण रक्षणों के साथ हमें उत्तम कल्याण देने वाले हों । द्युलोक पर आरूढ़ होकर प्रकाश को देते हुए सोमपान और कल्याण के लिये प्रस्थान करें। आप हमें अनेक रूप वाले पशुओं से पूर्ण करें और परम आकाश में मुझे अमृत में धारण करें ॥ १० ॥
हे इन्द्र ! आप जगज्जेता और सर्वज्ञ हैं और हे इन्द्र ! आप बहुत प्रशंसित हैं । हे इन्द्र ! आप इस उत्तम प्रार्थना वाले स्तोत्र को प्रेरित करें। आप हमें अनेक रूपवाले पशुओं से पूर्ण करें और परम आकाश में मुझे अमृत में धारण करें ॥ ११ ॥

अदब्धो दिवि पृथिव्यामुतासि न त आपुर्महिमानमन्तरिक्षे ।
अदब्धेन ब्रह्मणा वावृधानः स त्वं न इन्द्र
दिवि षंछर्म यच्छ तवेद् विष्णो बहुधा वीर्याणि ।
त्वं नः पृणीहि पशुभिर्विश्वरूपैः सुधायां मा धेहि परमे व्योमन् ॥ १२ ॥
या त इन्द्र तनूरप्सु या पृथिव्यां यान्तरग्नौ
या त इन्द्र पवमाने स्वर्विदि ।
ययेन्द्र तन्वा३न्तरिक्षं व्यापिथ तया न
इन्द्र तन्वा३ शर्म यच्छ तवेद् विष्णो बहुधा वीर्याणि ।
त्वं नः पृणीहि पशुभिर्विश्वरूपैः सुधायां मा धेहि परमे व्योमन् ॥ १३ ॥
त्वामिन्द्र ब्रह्मणा वर्धयन्तः सत्रं नि
षेदुर्ऋषयो नाधमानास्तवेद् विष्णो बहुधा वीर्याणि ।
त्वं नः पृणीहि पशुभिर्विश्वरूपैः सुधायां मा धेहि परमे व्योमन् ॥ १४ ॥

हे इन्द्र ! आप द्युलोक में और इस पृथ्वी पर दबे हुए नहीं हैं, अन्तरिक्ष में आपकी महिमा को कोई नहीं प्राप्त हो सकते। न दबने वाले ज्ञान से बढ़ते हुए लोक में आप हमें सुख प्रदान करें। आप हमें अनेक रूपवाले पशुओं से पूर्ण करें और परम आकाश में मुझे अमृत में धारण करें ॥ १२ ॥
हे इन्द्र ! जो आपका अंश जल में है, जो पृथ्वी पर और जो अग्नि के अन्दर है, और जो आपका अंश पवित्र करने वाले प्रकाशपूर्ण लोक में हैं, हे इन्द्र ! जिस तनू से आप अन्तरिक्ष में व्यापते हैं, उस तनू से हम सबको सुख प्रदान करें। हमें अनेक रूपवाले पशुओं से पूर्ण करें और परम आकाश में मुझे अमृत में धारण करें ॥ १३ ॥
हे इन्द्र ! आपकी मन्त्रों से स्तुति करते हुए प्रार्थना करने वाले ऋषिगण सत्र नामक याग में बैठते हैं। आप हमें अनेक रूपवाले पशुओं से पूर्ण करें और परम आकाश में मुझे अमृत में धारण करें ॥ १४ ॥

त्वं तृतं त्वं पर्येष्युत्सं सहस्त्रधारं विदर्थं ।
स्वर्विदं तवेद् विष्णो बहुधा वीर्याणि ।
त्वं नः पृणीहि पशुभिर्विश्वरूपैः सुधायां मा धेहि परमे व्योमन् ॥ १५ ॥
त्वं रक्षसे प्रदिशश्चतस्त्रस्त्वं शोचिषा नभसी वि भासि ।
त्वमिमा विश्वा भुवनानु तिष्ठस ऋतस्य पन्था-
मन्वेषि विद्वांस्तवेद् विष्णो बहुधा वीर्याणि
त्वं नः पृणीहि पशुभिर्विश्वरूपैः सुधायां मा धेहि परमे व्योमन् ॥ १६ ॥
पञ्चभिः पराङ् तपस्येकयार्वाङ्शस्तिमेषि सुदिने
बाधमानस्तवेद् विष्णो बहुधा वीर्याणि ।
त्वं नः पृणीहि पशुभिर्विश्वरूपैः सुधायां मा धेहि परमे व्योमन् ॥ १७ ॥

हे व्यापक देव! आप तीनों स्थानों में प्राप्त सहस्रधाराओं से युक्त ज्ञानमय प्रकाशपूर्ण स्त्रोत को व्यापते हैं। आप हमें अनेक रूपवाले पशुओं से पूर्ण करें और परम आकाश में मुझे अमृत में धारण करें ॥ १५ ॥
हे देव ! आप चारों दिशाओं की रक्षा करते हैं। अपने तेज से आकाश को प्रकाशित करते हैं। आप इन सब भुवनों के अनुकूल होकर ठहरते हैं और जानते हुए सत्य के मार्ग का अनुसरण करते हैं। आप हमें अनेक रूपवाले पशुओं से पूर्ण करें और परम आकाश में मुझे अमृत में धारण करें ॥ १६ ॥
हे देव ! आप अपनी पाँचों शक्तियों से एक ओर तपते हैं और एक से दूसरी ओर तपते हैं और उत्तम दिन में अप्रशस्तता को दूर हटाते हुए चलते हैं। आप हमें अनेक रूपवाले पशुओं से पूर्ण करें और परम आकाश में मुझे अमृत में धारण करें ॥ १७ ॥

त्वमिन्द्रस्त्वं महेन्द्रस्त्वं लोकस्त्वं प्रजापतिः ।
तुभ्यं यज्ञो वि तायते तुभ्यं जुह्वति
जुह्वतस्तवेद् विष्णो बहुधा वीर्याणि ।
त्वं नः पृणीहि पशुभिर्विश्वरूपैः सुधायां मा धेहि परमे व्योमन् ॥ १८ ॥
असति सत् प्रतिष्ठितं सति भूतं प्रतिष्ठितम्
भूतं ह भव्यं आहितं भव्यं भूते
प्रतिष्ठितं तवेद् विष्णो बहुधा वीर्याणि ।
त्वं नः पृणीहि पशुभिर्विश्वरूपैः सुधायां मा धेहि परमे व्योमन् ॥ १९ ॥
शुक्रोऽसि भ्राजोऽसि ।
स यथा त्वं भ्राजता भ्राजोऽस्येवाहं भ्राजता भ्राज्यासम् ॥ २० ॥
रुचिरसि रोचोसि ।
स यथा त्वं रुच्या रोचो ऽस्येवाहं
पशुभिश्च ब्राह्मणवर्चसेन च रुचिषीय ॥ २१ ॥

हे देव ! आप इन्द्र हैं, आप महेन्द्र हैं, आप लोक – प्रकाशपूर्ण हैं, आप प्रजापालक हैं, यज्ञ आपके लिये फैलाया जाता है और हवन करने वाले आपके लिये आहुतियाँ देते हैं। आप हमें अनेक रूप वाले पशुओं से पूर्ण करें और परम आकाश में मुझे अमृत में धारण करें ॥ १८ ॥
हे देव ! आप असत् में अर्थात् प्राकृतिक विश्व में सत् अर्थात् आत्मा हैं, सत् में अर्थात् आत्मा में उत्पन्न हुए जगत् हैं, भूत होने वाले में आश्रित हैं, होने वाले भूत में प्रतिष्ठित हुए हैं। आप हमें अनेक रूपवाले पशुओं से पूर्ण करें और परम आकाश में मुझे अमृत में धारण करें ॥ १९ ॥
आप तेजस्वी हैं, आप प्रकाशमय हैं, जैसे आप तेजस्वी हैं, वैसे ही मैं तेज से प्रकाशित होऊँ ॥ २० ॥
आप प्रकाशमान हैं, आप देदीप्यमान् हैं, जैसे आप तेज से तेजस्वी हैं, वैसे ही मैं पशुओं और ज्ञान के तेज से प्रकाशित होऊँ ॥ २१ ॥

उद्यते नम उदायते नम उदिताय नमः ।
विराजे नमः स्वराजे नमः सम्राजे नमः ॥ २२ ॥
अस्तंयते नमोऽस्तमेष्यते नमोऽस्तमिताय नमः ।
विराजे नमः स्वराजे नमः सम्राजे नमः ॥ २३ ॥
उदगादयमादित्यो विश्वेन तपसा सह ।
सपत्नान् मह्यं रन्धयन् मा चाहं द्विषते
रथं तवेद् विष्णो बहुधा वीर्याणि ।
त्वं नः पृणीहि पशुभिर्विश्वरूपैः सुधायां मा धेहि परमे व्योमन् ॥ २४ ॥
आदित्य नावमारुक्षः शतारित्रां स्वस्तये ।
अहर्मात्यपीपरो रात्रिं सत्राति पारय ॥ २५ ॥

उदित होने वाले को नमस्कार है, ऊपर आने वाले के लिये नमस्कार है, उदय को प्राप्त हुए को नमस्कार है, विशेष प्रकाशमान को नमस्कार है, अपने तेज से चमकने वाले को नमस्कार है, उत्तम प्रकाशयुक्त को नमस्कार है ॥ २२ ॥
अस्त होने वाले को नमस्कार है, अस्त को जाने वाले को नमस्कार है, अस्त हुए को नमस्कार है, विशेष तेजस्वी, उत्तम प्रकाशमान और अपने तेज से प्रकाशित होने वाले को नमस्कार है ॥ २३ ॥
ये सूर्य सम्पूर्ण तेज के साथ उदित हैं। मेरे लिये मेरे शत्रुओं को वश में करते हैं, परंतु मैं शत्रुओं के कभी वश में न होऊँ। हे व्यापक देव ! आपके ही ये सब पराक्रम हैं। आप हम सबको अनन्त रूपों वाले पशुओं से परिपूर्ण करें और परम आकाश में विद्यमान अमृत में मुझे धारण करें ॥ २४ ॥
हे आदित्य ! आप हमारे कल्याण के लिये सैकड़ों आरों वाली नौका पर आरूढ हों। मुझे दिन के समय पारकर और रात्रि के समय भी साथ रहकर पार पहुँचा दें ॥ २५ ॥

सूर्य नावमारुक्षः शतारित्रां स्वस्तये ।
रात्रिं मात्यपीपरोऽहः सत्राति पारय ॥ २६ ॥
प्रजापतेरावृतो ब्रह्मणा वर्मणाहं कश्यपस्य ज्योतिषा वर्चसा च ।
जरदष्टिः कृतवीर्यो विहायाः सहस्रायुः सुकृतश्चरेयम् ॥ २७ ॥
परीवृतो ब्रह्मणा वर्मणाहं कश्यपस्य ज्योतिषा वर्चसा च ।
मा मा प्रापन्निषवो दैव्या या मा मानुषीरवसृष्टा वधाय ॥ २८ ॥
ऋतेन गुप्त ऋतुभिश्च सर्वैर्भूतेन गुप्तो भव्येन चाहम् ।
मा मा प्रापत् पाप्मा मोत मृत्युरन्तर्दधेऽहं सलिलेन वाचः ॥ २९ ॥
अग्निर्मा गोप्ता परि पातु विश्वत उद्यन्त्सूर्यो नुदतां मृत्युपाशान् ।
व्युच्छन्तीरुषसः पर्वता ध्रुवाः सहस्रं प्राणा मय्या यतन्ताम् ॥ ३० ॥

[ अथर्ववेद ]

हे सूर्य ! आप हमारे कल्याण के लिये नौका पर चढ़ें और हमें दिन तथा रात्रि के समय पार करें ॥ २६ ॥
मैं प्रजापति के ज्ञानरूप कवच से आवृत होकर और सर्वदर्शक देव के तेज और बल से युक्त होकर वृद्धावस्था तक वीर्यवान् हुआ विविध कर्मों से युक्त सहस्रायु-पूर्णायु होकर सर्वदर्शक देव के तेज से और बल से युक्त होकर जो दिव्य और मानवी बाण वध के लिये भेजे गये हों, वे मुझे न प्राप्त हों, उनसे मेरा वध न हो ॥ २७-२८ ॥
सत्य के द्वारा रक्षित, सब ऋतुओं द्वारा रक्षित, भूत और भविष्य द्वारा सुरक्षित हुआ मैं यहाँ विचरूँ। पाप अथवा मृत्यु मुझे न प्राप्त हो। मैं अपनी वाणी को-अपने शब्द को पवित्र जीवन के अन्दर धारण करता हूँ। वाणी की पवित्रता पवित्र जीवन से करता हूँ ॥ २९ ॥
रक्षक अग्नि सब ओर से मेरी रक्षा करे। उदय होने वाला सूर्य मृत्युपाशों को दूर करे । प्रकाशयुक्त उषाएँ और स्थिर पर्वत सहस्र बल वाले प्राण मेरे अन्दर फैलाये रखें ॥ ३० ॥

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