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आकूतिसूक्त

इस सूक्त में शक्तितत्त्व ‘आकूति’ नाम से व्यक्त हुआ है । ‘आकूति’ नाम सभी शक्तिभेदों हेतु समानरूप से व्यवहार में आता है । इस सूक्त में इच्छा, ज्ञान तथा क्रिया-शक्ति के इन तीन भेदों को ही आकूति कहा गया है । इस सूक्त के द्रष्टा ऋषि अथर्वाङ्गिरा तथा देवता अग्निस्वरूपा आकूति हैं ।dugra

यामाहुतिं प्रथमामथर्वा या जाता या हव्यमकृणोज्जातवेदाः ।
तां त एतां प्रथमो जोहवीमि ताभिष्टुप्तो वहतु हव्यमग्निरग्नये स्वाहा ॥ १ ॥

अथर्वा ने जिस प्रथम आहुति का हवन किया, जो आहुती बनी और जातवेद अग्नि ने जिसका हवन किया, ‘उसको मैं पहले तेरे लिये हवन करता हूँ, उनसे प्रशंसित हुआ अग्नि हवन किये हुए को ले जाय, ऐसे अग्नि के लिये समर्पण करता हूँ ॥ १ ॥

आकूतिं देवीं सुभगां पुरो दधे चित्तस्य माता सुहवा नो अस्तु ।
यामाशामेमि केवली सा में अस्तु विदेयमेनां मनसि प्रविष्टाम् ॥ २ ॥

सौभाग्यवाली इच्छादेवी को आगे धर देता हूँ । यह चित्त की माता हमारे लिये सुगमता से बुलाने योग्य हो । जिस दिशा में मैं उस कामना की ओर जाता हूँ, वह मेरी हो, इसको मन में प्रविष्ट हुई प्राप्त करूं ॥ २ ॥

आकूत्या नो बृहस्पत आकूत्या न उपा गहि ।
अथो भगस्य नो धेह्यथो नः सुहवो भव ॥ ३ ॥

हे बृहस्पते ! प्रबल इच्छाशक्ति के साथ तू हमारे पास आ और भाग्य हमें दे और सुगम रीति से बुलाने योग्य हो ॥ ३ ॥

बृहस्पतिर्म आकूतिमाङ्गिरसः प्रति जानातु वाचमेताम् ।
यस्य देवा देवताः संबभूवुः स सुप्रणीताः कामो अन्वेत्वस्मान् ॥ ४ ॥

आंगिरस कुल का बृहस्पति मेरी इस प्रबल इच्छावाली वाणी को जाने । जिसके साथ देव और देवता रहते हैं, वह उत्तम रीति से प्रयोग में लाया काम हमारे समीप आ जाय ॥ ४ ॥

( अथर्व० १९ । ४)

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