September 23, 2015 | Leave a comment उपासना का फल महर्षि अत्रि का आश्रम उनकी तपस्या का पवित्र प्रतीक थी । चारों ओर अनुपम शान्ति और दिव्य आनन्द की वृष्टि निरन्तर होती रहती थी । यज्ञ की धूम-शिखाओं और वेद-मन्त्रों के उच्चारण से आश्रम के कण-कण में रमणीयता का निवास था । महर्षि आनन्द-मग्न रहकर भी सदा उदास दीख पड़ते थे । उनकी उदासी का एकमात्र कारण थी “अपाला” । वह उनकी स्नेहसिक्ता कन्या थी । चर्मरोग से उसका शरीर बिगड़ गया था । श्वेत कुष्ठ के दागों से उसकी अंग-कान्ति म्लान दीखती थी । पति ने इसी रोग के कारण उसे अपने आश्रम से निकाल दिया था, वह बहुत समय से अपने पिता के ही आश्रम में रहकर समय काट रही थी । दिन-प्रति-दिन उसका यौवन गलता जा रहा था; महर्षि अत्रि के अनन्य स्नेह से उसके प्राण की दीप-शिखा प्रकाशित थी । चर्मरोग की निवृत्ति के लिये अपाला ने इन्द्र की शरण ली । वह बड़ी निष्ठा से उनकी उपासना में लग गयी । वह जानती थी कि इन्द्र सोमरस से प्रसन्न होते हैं । उसकी हार्दिक इच्छा थी कि इन्द्र प्रत्यक्ष दर्शन देकर सोम स्वीकार करें । ****************************************************** ‘कितनी निर्मल चाँदनी है । चन्द्रमा ऐसा लगता है मानो उसने अभी-अभी अमृत-सागर में स्नान किया है या कामधेनु के दूध से ऋषियों ने उसका अभिषेक किया है ।’ सरोवर में स्नान कर अपाला ने जल से भरा कलश कंधे पर रख लिया, वह प्रसन्न थी – रात ने अभी पहले पहर में ही प्रवेश किया था – वह आश्रम की ओर चली जा रही थी । ‘निस्संदेह आज इन्द्र मुझसे बहुत प्रसन्न हैं, मुझे अपना सर्वस्व मिल गया ।’ उसने रास्ते में सोमलता देखी और परीक्षा के लिये दाँतों से लगाते ही सोमाभिषव सम्पन्न हो गया, उसके दाँत से सोम-रस-कण पृथ्वी पर गिर पड़े । सोमलता-प्राप्ति से उसे महान् आनन्द हुआ । उसकी तपस्या सोमलता के रुप में मूर्तिमती हो उठी । अपाला ने रास्ते में ही एक दिव्य पुरुष का दर्शन किया । ‘मैं सोमपान के लिये घर-घर घूमता रहता हूँ । आज इस समय तुम्हारी सोमाभिषव क्रिया से मैं अपने-आप चला आया ।’ दिव्य स्वर्ण-रथ से उतर कर इन्द्र ने अपना परिचय दिया । देवराज ने सोमपान किया । उन्होंने तृप्ति के स्वर में वरदान माँगने की प्रेरणा दी । ‘आपकी प्रसन्नता ही मेरी इच्छा-पूर्ति है । उपास्य का दर्शन हो जाय, इससे बढ़कर दूसरा सौभाग्य ही क्या है ?’ ब्रह्म-बादिनी ऋषिकन्या ने इन्द्र की स्तुति की । ‘सच्ची भक्ति कभी निष्फल नहीं होती है, देवि !’ इन्द्र ने अपाला को पकड़कर अपने रथ-छिद्र से उसे तीन बार निकाला । उनकी कृपा से चर्मरोग दूर हो गया, वह सूर्य-की प्रभा-सी प्रदीप्त हो उठी । ऋषि अत्रि ने कन्या को आशीर्वाद दिया । अपाला अपने पति के घर गयी । उपासना के फलस्वरुप उसका दाम्पत्य-जीवन सरस हो उठा । (बृहद्देवता अ॰5/14-23) Related