उषासूक्त

ऋग्वेद प्रथम मण्डल का ११३वाँ सूक्त उषासूक्त कहलाता है। इस सूक्त में २० मन्त्र हैं, जिनमें कालाभिमानी उषाकाल का उषादेवता के रूप में निरूपण कर कुत्स आंगिरस ऋषि ने उनकी सुन्दर स्तुति और महिमा का चित्रण किया है। त्रिष्टुप् छन्दमयी इस स्तुति में उषा को एक श्रेष्ठ ज्योति के रूप में स्थिर किया गया है। उषा के साथ ही इसमें रात्रिदेवी की भी स्तुति है और बताया गया है कि यद्यपि उषा और रात्रि दोनों विरुद्ध स्वभाव वाली हैं, फिर भी एक-दूसरे के लिये बाधक नहीं हैं। जगत् के लिये जैसे रात्रि आवश्यक है, वैसे ही उषा भी आवश्यक है। दोनों नित्य हैं, दोनों बारी-बारी से तारा- पथ में आया-जाया करती हैं। इस सूक्त के प्रारम्भ में ही बताया गया है कि ग्रह-नक्षत्रादि केवल अपने रूप के प्रकाशक हैं किंतु उषा समस्त पदार्थों का स्पष्टतया प्रकाश करती हैं, स्वयं प्रकाशस्वरूप हैं और जगत् को प्रकाशिका भी हैं। इसलिये उषा सबसे श्रेष्ठ हैं। उषा ही सबको गतिशील और क्रियावान् बनाती हैं। अदिति के समान ही उषा को देवताओं की जननी कहा गया है- ‘माता देवानाम्’ ( मन्त्र १९ ) ।

इदं श्रेष्ठं ज्योतिषां ज्योतिरागाच्चित्रः प्रकेतो अजनिष्ट विभ्वा ।
यथा प्रसूता सवितुः सवायँ एवा रात्र्युषसे योनिमारैक् ॥ १ ॥

ग्रहनक्षत्रादि ज्योतियों के मध्य में ‘उषा’ नामक ज्योति श्रेष्ठ है । ग्रहनक्षत्रादि केवल अपने स्वरूप के प्रकाशक हैं, चन्द्रमा स्व-परप्रकाशक होता हुआ भी स्पष्ट प्रकाशक नहीं है और उषा समस्त पदार्थों का स्पष्टतया प्रकाश करती है। अतः उषा श्रेष्ठ है। वह उषारूप ज्योति पूर्व दिशा में (५५ घड़ी बीतने पर) आती है। उसके आने पर उसकी किरणें सर्वत्र व्याप्त हो जाती हैं। जिस प्रकार उषा रात्रि में सूर्य से उत्पन्न हुई हैं, उसी प्रकार रात्रि उषा की उत्पत्ति के लिये स्थान देती है ॥ १ ॥

रुशद्वत्सा रुशती श्वेत्यागादारैगु कृष्णा सदनान्यस्याः ।
समानबन्धू अमृते अनूची द्यावा वर्णं चरत आमिनाने ॥ २ ॥

दीप्तिमती, श्वेतवर्णा, सूर्यरूप बछड़े वाली उषा आ गयी है। उषा के आने पर कृष्णवर्णा रात्रि अपने अन्तिम याम के अर्धभागरूपी स्थान को उसे देती है । यह रात्रि और उषा सूर्यरूप बन्धन से युक्त है (उदयकाल में उषा सूर्य से सम्बद्ध है और अस्तकाल में रात्रि सूर्य से सम्बद्ध है)। ये दोनों कालरूप होने के कारण मरणरहित हैं। दिन से पहले उषा आती है और बाद में रात्रि इस तरह इन दोनों का क्रमिक आगमन होता है। रात्रि के द्वारा प्राणियों का रूप तिरोहित कर दिया जाता है और उषा के द्वारा वह प्रकट कर दिया जाता है। दोनों ही आकाशरूप एक ही मार्ग से क्रमशः आती- जाती हैं ॥ २ ॥

समानो अध्वा स्वस्रोनन्तस्तमन्यान्या चरतो देवशिष्टे ।
न मेथेते न तस्थतुः सुमेके नक्तोषासा समनसा विरूपे ॥ ३ ॥

परस्पर में भगिनी (बहन) – रूप रात्रि और उषा का संचारसाधनभूत आकाशरूप मार्ग एक ही है। वह आकाशमार्ग अन्तरहित है । प्रकाशात्मक सूर्य से रिक्त होने पर उस मार्ग में क्रमशः दोनों आती-जाती हैं। सम्पूर्ण जगत् को उत्पन्न करने वाली रात्रि और उषा तम और प्रकाश जैसे विरुद्ध रूपों से युक्त होने पर भी ऐकमत्य को प्राप्तकर एक-दूसरे की हिंसा नहीं करती हैं। ये दोनों लोकानुग्रहार्थ कहीं भी क्षणमात्र नहीं ठहरती हैं ॥ ३ ॥

भास्वती नेत्री सूनृतानामचेति चित्रा वि दुरो न आवः ।
प्रार्प्या जगद्वयु नो रायो अख्यदुषा अजीगर्भुवनानि विश्वा ॥ ४ ॥

विशिष्ट प्रकाशवाली और पशु-पक्षियों के शब्द को उत्पन्न करने वाली उषा को हम जानते हैं। आश्चर्यजनिका उषा ने अन्धकार से आच्छादित हमारे गृहद्वारों को प्रकाशित किया है और सम्पूर्ण जगत् को प्रकाशित कर हमारी धन आदि सम्पत्ति को प्रकाशयुक्त किया है। इसी प्रकार अन्धकार से आच्छादित समस्त प्राणियों को प्रकाश देकर अन्धकार के मुख से निकाल दिया है ॥ ४ ॥

जिह्यश्ये३ चरितवे मघोन्याभोगय इष्टये राय उ त्वम् ।
दभ्रं पश्यद्भय उर्विया विचक्ष उषा अजीगर्भुवनानि विश्वा ॥ ५ ॥

ओस, पाला आदिरूप धनवती उषा बुरी तरह से सोये हुए पुरुष को ठीक समय पर अपने अपेक्षित कार्य पर जाने के लिये चेष्टा करती है। किसी को बोलने के लिये किसी को यज्ञादि शुभ कर्म करने के लिये, किसी को धन प्राप्त करने के लिये चेष्टा करती है और अन्धकार से आच्छादित होने के कारण अल्प दृष्टिवाले मनुष्यों को विशिष्ट प्रकाश देने की चेष्टा करती है। सर्वत्र फैली हुई उषा अन्धकार से आच्छादित हुए प्राणियों को प्रकाश देकर अनुगृहीत करती है ॥ ५ ॥

क्षत्राय त्वं श्रवसे त्वं महीया इष्टये त्वमर्थमिव त्वमित्यै ।
विसदृशा जीविताभिप्रचक्ष उषा अजीगर्भुवनानि विश्वा ॥ ६ ॥

किसी को धन के लिये, किसी को अन्न के लिये, किसी को अग्निष्टोमादि श्रौत यज्ञों के लिये, किसी को अपेक्षित कार्यार्थगमन के लिये तथा अनेक प्रकार के वाणिज्यादि कार्यों को प्रकाशित करने के लिये विविध चेष्टाएँ करती हुई उषा अन्धकारावृत समस्त प्राणियों को स्व-प्रकाश द्वारा प्रकाशित करती है ॥ ६ ॥

एषा दिवो दुहिता प्रत्यदर्शि व्यच्छन्ती युवतिः शुक्रवासाः ।
विश्वस्येशाना पार्थिवस्य वस्व उषो अद्येह सुभगे व्युच्छ ॥ ७ ॥

 द्युलोक की कन्यारूपा, पुरुषों को सफल बनाने वाली, स्वच्छ दीप्ति वाली तथा पृथिवी सम्बन्धी समस्त धन की स्वामिनी जो उषा है, वह अन्धकार को दूर भगाती हुई समस्त प्राणियों द्वारा देखी गयी है। शोभन धनवाली उषा ! तुम इस समय इस देवयजन-स्थान के अन्धकार को दूर करो ॥ ७ ॥

परायतीनामन्वेति पाथ आयतीनां प्रथमा शश्वतीनाम् ।
व्युच्छन्ती जीवमुदीरयन्त्युषा मृतं कं चन बोधयन्ती ॥ ८ ॥

आज की उषा ने बीती हुई उषाओं के स्थान को प्राप्त किया है तथा आने वाली उषाओं के प्रति यह उषा पहली है। यह उषा अन्धकार को हटाती हुई, प्राणियों की आत्मा को शयन के बाद सचेष्ट करती हुई, शयनकाल में मृतक के समान निश्चेतन जिस किसी भी पुरुष को सचेत करती हुई विराजमान है ॥ ८ ॥

उषो यदग्निं समिधे चकर्थ वि यदावश्चक्षसा सूर्यस्य ।
यन्मानुषान् यक्ष्यमाणाँ अजीगस्तद् देवेषु चकृषे भद्रमप्नः ॥ ९ ॥

हे उषा ! तुमने गार्हपत्यादि अग्नियों को प्रदीप्त किया है और सम्पूर्ण जगत्‌ को सूर्य के प्रकाश से अन्धकारशून्य किया है। इसी प्रकार यज्ञ करने वाले मनुष्यों को अन्धकार से बाहर किया है। हे उषा ! देवताओं के बीच में केवल तुमने कल्याणकारी इन तीनों कार्यों को किया है ॥ ९ ॥

कियात्या यत् समया भवाति या व्यूषुर्याश्च नूनं व्युच्छान् ।
अनु पूर्वाः कृपते वावशाना प्रदीध्याना जोषमन्याभिरेति ॥ १० ॥

जब उषा समीप होती है, तो कितने समय तक वह रहती है अथवा वह कब समाप्त होती है, यह जानना कठिन है। जो उषा पहले बीत चुकी हैं और उसके बाद जो उषा व्यतीत होगी, उनमें अतीत उषाओं की कामना करती हुई वर्तमानकालिक उषा समर्थ होती है तथा प्रदीप्यमान यह उषा आगामिनी उषाओं के साथ संगत होती है अर्थात् आगामिनी उषा भी वर्तमान उषा के प्रकाश का अनुकरण करती है ॥ १० ॥

ईयुष्टे ये पूर्वतरामपश्यन् व्यच्छन्तीमुषसं मर्त्यासः ।
अस्माभिरू नु प्रतिचक्ष्याभूदो ते यन्ति ये अपरीषु पश्यान् ॥ ११ ॥

पूर्वकालीन उषा को जिन मनुष्यों ने देखा था, वे मृत्यु को प्राप्त हो चुके हैं और हमसे भी वर्तमानकालिक उषा देखी गयी है तथा भावी रात्रियों में आने वाली उषा को भी जो मनुष्य देखेंगे, वे भी इस संसार में निश्चित ही आयेंगे अर्थात् यह उषा तीनों कालों में रहती है ॥ ११ ॥

यावयद् द्वेषा ऋतपा ऋतेजाः सुम्नावरी सूनृता ईरयन्ती ।
सुमङ्गलीर्बिभ्रती देववीतिमिहाद्योषः श्रेष्ठतमा व्युच्छ ॥ १२ ॥

उषा ने हमसे राक्षसों को पृथक् कर दिया हैं तथा वह सत्य का पालन करने वाली, यज्ञ के लिये उत्पन्न हुई, सुख देने वाली, पशु-पक्षि-मृगादि की वाणी को उत्पन्न करने वाली, पति से अवियुक्ता, देवताओं से अभिलष्यमाण यज्ञ को धारण करने वाली है। हे उषा ! उक्त प्रकार से श्रेष्ठतम आप इस देवयजनस्थान में आज यज्ञ के समय अन्धकार को दूर करो ॥ १२ ॥

शश्वत् पुरोषा व्युवास देव्यथो अद्येदं व्यावो मघोनी ।
अथो व्युच्छादुत्तराँ अनु द्यूनजरामृता चरति स्वधाभिः ॥ १३ ॥

उषादेवी ने पूर्वकाल में नित्य अन्धकार को दूर किया है और इस काल में भी धनवती उषा ने इस सम्पूर्ण जगत् को अन्धकार से विमुक्त कर दिया है। इसके बाद आगामी दिनों में भी वह अन्धकार को दूर करती है । इस प्रकार कालत्रयव्यापिनी उषा जरा-मरणरहित होकर अपने प्रकाश के साथ वर्तमान है ॥ १३ ॥

व्य१ञ्जिभिर्दिव आतास्वद्यौदप कृष्णां निर्णिजं देव्यावः ।
प्रबोधयन्त्यरुणेभिरश्वैरोषा याति सुयुजा रथेन ॥ १४ ॥

द्युलोक की विस्तृत दिशाओं में अपने प्रकाश के साथ उषा प्रकाशित हो रही है। उस उषादेवी ने रात्रि के काले रूप को दूर कर दिया। वह सोये हुए प्राणियों को जगाती हुई रक्तवर्ण किरणों या घोड़ों से युक्त आदित्य अथवा रथ के द्वारा आ रही है ॥ १४ ॥

आवहन्ती पोष्या वार्याणि चित्रं केतुं कृणुते चेकिताना ।
ईयुषीणामुपमा शश्वतीनां विभातीनां प्रथमोषा व्यश्वैत् ॥ १५ ॥

उषा हमारे लिये यावज्जीवन पोषण के योग्य प्रार्थनीय धन को लाकर सब लोगों को सचेत करती हुई अपनी विचित्र किरण (रश्मि) को सम्पूर्ण जगत् के लिये प्रकाश करती है। ऐसी वह उषा व्यतीत उषाओं की उपमारूपिणी है और आगामिनी प्रकाशवती उषाओं की प्रारम्भस्वरूपिणी है। वह उषादेवी तेज से समृद्ध होकर प्रकाश करती है ॥ १५ ॥

उदीर्ध्वं जीवो असुर्न आगादप प्रागात् तम आ ज्योतिरेति ।
आरैक् पन्थां यातवे सूर्यायागन्म यत्र प्रतिरन्त आयुः ॥ १६ ॥

हे मनुष्यो ! निद्रा का त्यागकर उठो, हममें शरीर का प्रेरक जीवात्मा जाग उठा है। उषा के प्रकाश से अन्धकार हट गया। ब्रह्मरूप होने के कारण वह जीवात्मा उषा की ज्योति को प्राप्त कर रहा है। उषा सूर्य के गमनार्थ अन्तरिक्ष मार्ग को प्रकाशित कर रही है। अब हम उस स्थान में जाते हैं, जहाँ उदार बुद्धि वाले दातागण दान के द्वारा अन्न का सदुपयोग करते हैं ॥ १६ ॥

स्यूमना वाच उदियर्ति वह्निः स्तवानो रेभ उषसो विभातीः ।
अद्या तदुच्छ गृणते मघोन्यस्मे आयुर्नि दिदीहि प्रजावत् ॥ १७ ॥

स्तुतिवाहक अर्थात् स्तोत्रों का उच्चारण करने वाला स्तोता ऋत्विक् प्रकाशमान उषा की स्तुति करता हुआ वेदवाणीसम्बन्धी उक्थ्य स्तोत्र का उच्चारण करता है। हे धनवती उषा ! इस समय स्तुति करते हुए पुरुष के लिये रात्रि के अन्धकार को दूर करो और हमारे लिये पुत्र-पौत्रादियुक्त अन्न को दो ॥ १७ ॥

या गोमतीरुषसः सर्ववीरा व्युच्छन्ति दाशुषे मर्त्याय ।
वायोरिव सूनृतानामुदर्के ता अश्वदा अश्नवत् सोमसुत्वा ॥ १८ ॥

जिसने हवि दिया है, उस यजमान के लिये गौओं एवं वीरों से युक्त उषाएँ अन्धकार को दूर करती हैं। सोम का अभिषव करने वाला यजमान स्तुतिरूप वाणी की समाप्ति होने पर अश्वों (घोड़ों) को देने वाली उषा को प्राप्त करे ॥ १८ ॥

माता देवानामदितेरनीकं यज्ञस्य केतुर्बृहती वि भाहि ।
प्रशस्तिकृद् ब्रह्मणे नो व्यु१च्छा नो जने जनय विश्ववारे ॥ १९ ॥

उषा ! तुम देवताओं की जननी (माता) हो [ उष:काल में स्तुति द्वारा देवगण जगाये जाते हैं ], इसलिये अदिति (देवमाता) – से प्रतिस्पर्धा करने वाली हो । तुम यज्ञ को प्रख्यात करने वाली एवं महती हो, तुम प्रकाशित हो जाओ। इन्होंने मेरी भली-भाँति स्तुति की है, ऐसी प्रशंसा करती हुई तुम मन्त्ररूप स्तोत्र के लिये अन्धकार को दूर करो। हे सभी से प्रार्थनीय उषा ! तुम हमें अपने देश में स्थापित करो ॥ १९ ॥

यच्चित्रमप्न उषसो वहन्तीजानाय शशमानाय भद्रम् ।
तन्नो मित्रो वरुणो मामहन्तामदितिः सिन्धुः पृथिवी उत द्यौः ॥ २० ॥

{ऋग्वेद १ । ११३ }

उषाएँ संग्रहणीय एवं प्राप्तव्य सुवर्णादि धन को हवियों के द्वारा अथवा यज्ञ में की गयी स्तुतियों के द्वारा सेवा करने वाले पुरुष के लिये लाती हैं, वह धन यज्ञ – सम्पादक स्तोता के लिये कल्याणकारक होता है। सारांश यह है कि इस सूक्त के द्वारा हम लोगों के द्वारा जिन वस्तुओं के लिये प्रार्थना की गयी है, उन वस्तुओं को मित्र, वरुण, अदिति, सिन्धु, पृथिवी और आकाश-ये देवगण पूजित करें अर्थात् दें ॥ २० ॥

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