ऋतसूक्त

ऋग्वेद के १० वें मण्डल का १९० वाँ सूक्त ‘ऋतसूक्त’ है। यह अघमर्षणसूक्त भी कहलाता है। इसके ऋषि माधुच्छन्द अघमर्षण, देवता भाववृत्त तथा छन्द अनुष्टुप् है। यह सूक्त सृष्टि विषयक है। ऋषि ने परमपिता परमेश्वर की स्तुति करते हुए कहा है कि महान तप से सर्वप्रथम ऋत और सत्य प्रकट हुए। परम ब्रह्म की महिमा से क्रमश: प्रलयरूपी रात्रि, समुद्र, संवत्सर, दिन-रात, सूर्य, चन्द्रमा, द्युलोक और पृथ्वी की उत्पत्ति हुई। इस सूक्त का प्रयोग नित्य संध्या करते समय भी अघमर्षण (पापनाश) -हेतु किया जाता है।

ऋतं च सत्यं चाभीद्धात् तपसोऽध्यजायत ।
ततो रात्र्यजायत ततः समुद्रो अर्णवः ॥ १ ॥
समुद्रादर्णवादधि संवत्सरो अजायत ।
अहोरात्राणि विदधद् विश्वस्य मिषतो वशी ॥ २ ॥
सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत् ।
दिवं च पृथिवीं चाऽन्तरिक्षमथो स्वः ॥ ३ ॥

[ ऋग्वेद १० । १९०]

परमात्मा की उग्र तपस्या से (सर्वप्रथम ) ऋत और सत्य पैदा हुए। इसके बाद प्रलयरूपी रात्रि और जल से परिपूर्ण महासमुद्र उत्पन्न हुआ ॥ १ ॥
जल से भरे समुद्र की उत्पत्ति के बाद परमपिता ने संवत्सर का निर्माण किया; फिर निमेषोन्मेष मात्र में ही जगत्‌ को वश में करने वाले परमपिता ने दिन और रात बनाया ॥ २ ॥
इसके बाद सबको धारण करने वाले परमात्मा ने सूर्य, चन्द्रमा, द्युलोक, पृथ्वीलोक, अन्तरिक्ष और सुखमय स्वर्ग तथा भूतल एवं आकाशका पहले के ही समान सृजन किया ॥ ३ ॥

Please follow and like us:
Pin Share

Discover more from Vadicjagat

Subscribe to get the latest posts sent to your email.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.