कलश एवं जयन्ती का माहात्म्य
माँ दुर्गा की पूजा का शुभारम्भ ‘कलश’-स्थापना से होता है। स्थापना हेतु ‘कलश’ स्वर्ण, चाँदी, पीतल, ताम्र अथवा मिट्टी का होना चाहिए। ‘कलश’ देखने में सुडौल और पवित्र होने चाहिए। मिट्टी के ऐसे ‘कलश’ प्रयोग में नहीं लाने चाहिए, जिनमें छिद्र होने की सम्भावना हो।विशेष अनुष्ठान करना हो, तो धातु के ‘कलश’ का ही स्थापन करना चाहिए।
‘कलश’ में गंगा-जल, तीर्थ-जल, नदी का जल, तालाब का जल, झील का जल अथवा जिस कूप का ‘याग’ हुआ हो, उसका जल प्रयोग में ला सकते हैं। ‘कलश’ के नीचे ‘सप्त-मृत्तिका’ (१॰ अश्व, २॰ गज, ३॰ गो-शाला, ४॰ वल्मीक-दीमक की बाँबी, ५॰ नदी-संगम, ६॰ तराई तथा ७॰ राज-द्वार की मिट्टी) रखनी चाहिए। कलश में सर्वौषधि (मुरा, जटामासी, वच, कूट, हल्दी, दारु-हल्दी, कचूर, चम्पा तथा नागर मोथा) रखनी चाहिए। साथ ही, पञ्च-रत्न, पञ्च-पल्लव (आम, पलाश, बरगद, पीपल तथ  पाकर), पूँगीफल (सुपारी) भी श्रद्धा-पूर्वक रखनी चाहिए। यदि कोई सामग्री उपलब्ध न हो, तो उसके स्थान पर ‘अक्षत’ चढ़ाने का विधान है। उदाहरण के लिये-यदि ‘सप्त-मृत्तिका’ नहीं मिल पाती, तो निम्न मन्त्र से अक्षत चढ़ाना चाहिए- “सप्त-मृत्तिका-स्थाने अक्षतं समर्पयामि”
‘कलश के नीचे शुद्ध मिट्टी में विशुद्ध ‘जौ’ को बोना चाहिए। ‘जौ’ को आदि-अन्न माना जाता है। ‘जौ’ के पौधे को ‘जयन्ती’ कहते हैं। ‘जयन्ती’ से अनुष्ठान की सफलता का निर्धारण होता है।
अनुष्ठान-काल में इसे नित्य पवित्र जल से सींचना चाहिए। अनुष्ठान-काल की समाप्ति पर इसे माँ के मुकुट पर और भुजा पर चढ़ाते हैं, फिर अपने मस्तक पर धारण करते हैं।
अनुष्ठान के बाद ‘कलश’ के जल तथा ‘जयन्ती’ का माहात्म्य विविध कार्यों हेतु इस प्रकार है-

१॰ कलश-जल का माहात्म्य
‍- ‘कलश’ के जल से मस्तक पर अभिषेक करने से सभी प्रकार की अभिलाषा पूरी होती है।
– ‘कलश’ के जल को पिलाने से असमय में ‘गर्भ-पात’ नहीं होता है तथा जिन्हें गर्भ-धारण नहीं होता, उन्हें लाभ होता है।
– ‘कलश’ के जल को वृक्षों, फसल, गो-शाला आदि में डालने से वृक्ष खूब फलरे-फूलते हैं, फसल की वृद्धि होती है और गाँए पर्याप्त मात्रा में दूध देती हैं।
– ‘कलश’ के जल को घर में छिड़कने से ‘प्रेत-बाधा‘ का निवारण होता है।
– ‘कलश’ के जल को रोगी के मस्तक पर छिड़कने से रोग का निवारण होता है।
– ‘कलश’ के जल से मन्द बुद्धि वाले छात्र या छात्रओं का अभिषेक करने से ऊनकी बुद्धि का विकास होता है।

२॰ जयन्ती का माहात्म्य
ऐसी जयन्ती, जिसे ‘शारदीय नवरात्र’ में ‘हस्त-नक्षत्र’ में बोया गया हो और ‘श्रवण नक्षत्र‘ में काटा गया हो, उसका माहात्म्य विभिन्न कार्यों में प्रत्यक्ष देखा जा सकता है। यथा-
विजयादशमी‘ के दिन माथे पर धारण करने से वर्ष भर सभी क्षेत्रों में विजय प्राप्त होती है।
‘जयन्ती’ को यन्त्र में मढ़ाकर गले अथवा भुजा पर धारण कर कोर्ट आदि में जाने से विजय-प्राप्ति होती है।
‘प्रेत-बाधा-ग्रसित’ व्यक्ति को ‘यन्त्र’ में मढ़ाकर धारण करवाने से प्रेत-बाधा शान्त होती है।
‘जयन्ती’ को कैश-बाक्स, मनी-बैग आदि में रखने से धन-प्राप्ति होती है।
धारण-विधि- ‘जयन्ती’ धारण करने के लिये सोने, चाँदी, ताम्बे अथवा अष्ट-धातु का ताबीज बनवाना चाहिए। जयन्ती को गंगा-जल से धोकर इसमें रखकर बन्द कर देना चाहिए। इसके बाद यन्त्र को स्पर्श करते हुए ‘प्राण-प्रतिष्ठा-मन्त्र’ तीन बार पढ़ना चाहिए। तथा-
“ॐ आं ह्रीं क्रों यं रं लं वं शं षं सं हौं हंसः यन्त्र-राजस्य प्राणा इह प्राणाः। ॐ आं ह्रीं क्रों यं रं लं वं शं षं सं हौं हंसः यन्त्र-राजस्य जीव इह स्थितः। ॐ आं ह्रीं क्रों यं रं लं वं शं षं सं हौं हंसः यन्त्र-राजस्य सर्वेन्द्रियाणि इह स्थितानि। ॐ आं ह्रीं क्रों यं रं लं वं शं षं सं हौं हंसः यन्त्र-राजस्य वाङ्-मनस्त्वक्-चक्षुः श्रोत्र-जिह्वा-घ्राण-पाद-पायूपस्थानि इहैवागत्य सुखं चिरं तिष्ठन्तु स्वाहा।”
फिर ‘यन्त्र का पञ्चोपचार-पूजन कर लाल रेशमी धागे में गूँथ कर निम्न मन्त्र को पढ़ते हुए गले अथवा भुजा पर धारण करे। नारी वाम-भुजा पइर और पुरुष दाहिनी भुजा पर धारण करे। धारण किए हुए यन्त्र को उतारना नहीं चाहिए। धारण-मन्त्र इस प्रकार है-
“जयन्ती मंगला काली, भद्र-काली कलालिनी।
दुर्गा क्षमा शिवा धात्री, स्वधा स्वाहा नमोऽस्तु ते।।”

३॰ सिद्धि-असिद्धि की तत्काल परीक्षा
‘सिद्धान्तशेखर’ के अनुसार स्थापना के तीसरे की दिन यवांकुर (जयन्ती) के दर्शन हो जाने चाहिए।
इन यवांकुरों की बढ़ोत्तरी व प्रफुल्लता पर कार्य सिद्धि की परीक्षा होती है। ‘अवृष्टिं कुरुते कृष्ण, धूम्राभं कलहं तथा’ अर्थात् काले अंकुर उगने पर उस वर्ष अनावृष्टि, निर्धनता, धूयें की आभा वाले होने पर परिवार में कलह। न उगने पर जननाश, मृत्यु व कार्यबाधा। नीले रंग से दुर्भिक्ष (अकाल) समझें। रक्त वर्ण के होने पर रोग, व्याधि व शत्रुभय समझें। हरा रंग पुष्टिवर्धक तथा लाभप्रद है तथा श्वेत दूर्वा अत्यन्त शुभफलकारी व शीघ्र लाभदायक मानी गई है। आधी हरी व पीली दूर्वा उत्पन्न होने पर पहले कार्य होगा, किन्तु बाद में हानि होगी।
अशुभ दूर्वा के उत्पन्न होने पर आठवें दिन ‘शांति होम’ द्वारा उनका हवन किया जाता है। श्वेत दूर्वा पर अन्य कई तांत्रिक प्रयोगों का उल्लेख तन्त्रशास्त्र में मिलता है।

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