June 21, 2019 | Leave a comment ॥ कामकलाकाल्याः रावणकृतं भुजङ्गप्रयातस्तोत्रम् ॥ ॥ महाकाल उवाच ॥ अथ वक्ष्ये महेशानि देव्याः स्तोत्रमनुत्तमम् । यस्य स्मरणमात्रेण विघ्ना यान्ति पराङ्मुखाः ॥ १ ॥ विजेतुं प्रतस्थे यदा कालकस्यासुरान् रावणो मुञ्जमालिप्रवरहान् । तदा कामकालीं स तुष्टाव वाग्भिर्जिगीषुमृधे बाहुवीर्येण सर्वान् ॥ २ ॥ महाकाल ने कहा — हे महेशानि ! अब मैं देवी के सर्वोत्तम स्तोत्र को तुम्हें बतलाऊँगा जिसके स्मरणमात्र से ही विघ्न वापस हो जाते हैं । रावण ने जब मुञ्जमाली आदि कालकेय असुरों को जीतने के लिये प्रस्थान किया तब युद्ध में भुजाओं के बल से सबको जीत लेने की इच्छा वाले शब्दों से उसने कामकलाकाली की स्तुति की ॥ १-२ ॥ महावर्तभीमासृगब्ध्युत्थवीची-परिक्षालिता श्रान्तकंथश्मशाने । चितिप्रज्वलद्वह्निकीलाजटाले-शिवाकारशावासने सन्निषण्णाम् ॥ ३ ॥ महाआवर्त से भयङ्कर रक्तसमुद्र से उठने वाली लहरों से परिक्षालित, श्रान्तकन्थ नामक श्मशान में, चिता की जलती हुई अग्नि की शिखा के समान जटा वाले शिवाकार शव के आसन पर बैठी हुई (कामकलाकाली का सदा स्मरण करता हूँ) ॥ ३ ॥ महाभैरवीयोगिनीडाकिनीभिः करालाभिरापादलम्बत्कचाभिः । भ्रमन्तीभिरापीय मद्यामिषास्रान्यजस्रं समं सञ्चरन्तीं हसन्तीम् ॥ ४ ॥ भयङ्कर, पैर तक लटकते हुए बालों वाली, मद्य, मांस, रक्त का पान कर निरन्तर नृत्य करने वाली महा भैरवियों, योगिनियों एवं डाकिनियों के साथ सञ्चरण करने वाली हँसती हुई (कामकलाकाली का सदा स्मरण करता हूँ) ॥ ४ ॥ महाकल्पकालान्तकादम्बिनीत्विट्-परिस्पर्द्धिदेहद्युतिं घोरनादाम् । स्फुरद्वादशादित्यकालाग्निरुद्र ज्वलद्विद्युदोघप्रभादुर्निरीक्ष्याम् ॥ ५ ॥ महाप्रलय के समय कालान्तक मेघमाला की कान्ति की प्रतिस्पर्धी देहद्युति वाली, घोर नाद वाली तथा चमकते हुए द्वादश आदित्य तथा कालाग्निरुद्र की जलती हुई विद्युत्प्रभा के समान दुर्निरीक्ष्य (कामकलाकाली का सदा स्मरण करता हूँ) ॥ ५ ॥ लसन्नीलपाषाणनिर्माणवेदि-प्रभश्रोणिविम्बां चलत्पीवरोरुम् । समुत्तुङ्गपीनायतोरोजकुम्भां कटिग्रन्थितद्वीपिकृत्युत्तरीयाम् ॥ ६ ॥ चमकते हुए नीलमणि पत्थर से निर्मित वेदी के सदृश नितम्बबिम्ब वाली, चञ्चलपीवर जघन वाली, ऊँचे, चौड़े विशाल स्तनों वाली तथा कटिप्रदेश में गैंडा का चमड़ा बाँधी हुई (कामकलाकाली का सदा स्मरण करता हूँ) ॥ ६ ॥ स्रवद्रक्तवल्गन्नृमुण्डावनद्धा-सृगावद्धनक्षत्रमालैकहाराम् । मृतब्रह्मकुल्योपक्लृप्ताङ्गभूषां महाट्टाट्टहासैर्जगत्त्रासयन्तीम् ॥ ७ ॥ गिरते हुए रक्त वाले नरमुण्ड से बँधे रक्तोपलिप्त मोतियों का हार पहनी हुई, मरे हुए ब्राह्मण की हड्डी से बने आभूषण को धारण करने वाली एवं महा अट्टहास से संसार को भयभीत करती हुई (कामकलाकाली का सदा स्मरण करता हूँ) ॥ ७ ॥ निपीताननान्तामितोद्वृत्तरक्तोच्छलद्धारया स्नापितोरोजयुग्माम् । महादीर्घदंष्ट्रायुगन्यञ्चदञ्चल्ललल्लेलिहानोग्रजिह्वाग्रभागाम् ॥ ८ ॥ मुख तक पीये गये और उसके बाद उगले गये रक्त की धारा से ऊपलिप्त दोनों स्तनों वाली, अत्यन्त दीर्घ दो दाँतों के बीच लपलपाती हुई उग्र जिह्वाग्रभाग वाली (कामकलाकाली का सदा स्मरण करता हूँ) ॥ ८ ॥ चलत्पादपद्मद्वयालम्बिमुक्त प्रकम्पालिसुस्निग्धसंभुग्नकेशाम् । पदन्याससम्भारभीताहिराजा ननोद्गच्छदात्मस्तुतिव्यस्तकर्णाम् ॥ ९ ॥ चलते हुए दोनों चरण कमलों तक लटकने वाले, खुले हुए, भ्रमर के समान चमकीले-चिकने-चुंघराले बालों वाली, पैरों के रखने के भार से भीत शेष नाग के मुख से निकलने वाली आत्मस्तुति को सुनने में व्यस्त कानों वाली (कामकलाकाली का सदा स्मरण करता हूँ) ॥ ९ ॥ महाभीषणां घोरविशार्द्धवक्त्रैस्तथासप्तविंशान्वितैर्लोचनैश्च । पुरोदक्षवामे द्विनेत्रोज्ज्वलाभ्यां तथान्यानने त्रित्रिनेत्राभिरामाम् ॥ १० ॥ महाभयकारिणी, घोर दशमुखों तथा सत्ताईस लोचनों से अन्वित इनमें से सामने दायें, बायें दो नेत्रों से उज्ज्वल तथा अन्य (सात) मुखों में तीन-तीन नेत्रों (इस प्रकार २१+६ = २७ नेत्रों) से सुन्दर (कामकलाकाली का सदा स्मरण करता हूँ) ॥ १० ॥ लसद्द्वीपिहर्य्यक्षफेरुप्लवंगक्रमेलर्क्षतार्क्षद्विपग्राहवाहैः । मुखैरीदृशाकारितैर्भ्राजमानां महापिङ्गलोद्यज्जटाजूटभाराम् ॥ ११ ॥ गैंडा, सिंह, साँप, सियार, बन्दर, ऊँट, भालू, गरुड, हाथी और मगर के मुखों जैसे मुखों से शोभायमान, महा पिङ्गल उठी हुई जटाजूट वाली (कामकलाकाली का सदा स्मरण करता हूँ) ॥ ११ ॥ भुजैः सप्तविंशाङ्कितैर्वामभागे युतां दक्षिणे चापि तावद्भिरेव । क्रमाद्रत्नमालां कपालं च शुष्कं ततश्चर्मपाशं सुदीर्घ दधानाम् ॥ १२ ॥ ततः शक्तिखट्वाङ्गमुण्डं भुशुण्डीं धनुश्चक्रघण्टाशिशुप्रेतशलान् । ततो नारकङ्कालबभ्रूरगोन्माद वंशीं तथा मुद्गरं वह्निकुण्डम् ॥ १३ ॥ अधो डम्मरुं पारिघं भिन्दिपालं तथा मौशलं पट्टिशं प्राशमेवम् । शतघ्नीं शिवापोतकं चाथ दक्षे महारत्नमालां तथा कर्त्तृखड्गौ ॥ १४ ॥ चलत्तर्जनीमङ्कुशं दण्डमुग्रंलसद्रत्नकुम्भं त्रिशूलं तथैव । शरान् पाशुपत्यांस्तथा पञ्च कुन्तं पुनः पारिजातं छुरीं तोमरं च ॥ १५ ॥ प्रसूनस्रजं डिण्डिमं गृध्रराजं ततः कोरकं मांसखण्डं श्रुवं च । फलं बीजपूराह्वयं चैव सूचीं तथा पशुमेवं गदां यष्टिमुग्राम् ॥ १६ ॥ ततो वज्रमुष्टिं कुणप्पं सुघोरं तथा लालनं धारयन्तीं भुजैस्तैः । जवापुष्परोचिष्फणीन्द्रोपक्लृप्त- क्वणन्नूपुरद्वन्द्वसक्ताङ्घ्रिपद्माम् ॥ १७ ॥ वामभाग में सत्ताईस भुजाओं और दक्षिण भाग में भी उतनी ही भुजाओं में क्रमश: रत्नमाला, शुष्क कपाल, दीर्घ चर्म (=ढाल), पाश, शक्ति, खट्वाङ्ग, मुण्ड, भुशुण्डी, धनुष, चक्र, घण्टा, शिशु, प्रेत, पर्वत, नरकङ्काल, बभ्रु, साँप, उन्मादवंशी, मुद्गर, अग्निकुण्ड, डमरू, परिघ, भिन्दिपाल, मुशल, पट्टिश, प्राश, शतघ्नी (तोप), सियार का बच्चा तथा दायीं ओर महारत्नमाला, कैंची, खड्ग, चञ्चल तर्जनी, अङ्कश, उग्रदण्ड, सुन्दर रत्नकुम्भ, त्रिशूल, पाँच पाशुपत, बाण, भाला, पारिजात, छुरी, तोमर, फूल-माला, डिण्डिम, गृध्रराज, कोरक, मांसखण्ड, श्रुवा, जम्भीरी नीबू, सूई, पशु, गदा, उग्रयष्टि, वज्रमुष्टि, घोर शव तथा लालन उन्हीं भुजाओं धारण की हुई एवं जवापुष्प की कान्ति वाले सर्प से उपक्लुप्त (रचे गये) दो नूपुरों से युक्त पादपद्म वाली (कामकलाकाली का सदा स्मरण करता हूँ) ॥ १२-१७ ॥ महापीतकुम्भीनसावद्धनद्ध स्फुरत्सर्वहस्तोज्ज्वलत्कङ्कणां च । महापाटलद्योतिदर्वीकरेन्द्रा- वसक्ताङ्गदव्यूहसंशोभमानाम् ॥ १८ ॥ अत्यन्त पीत कुम्भीनस से आबद्ध कङ्कण को समस्त हाथों में पहनी हुई, महापाटल के समान चमकने वाले दर्वीकरेन्द्र (नागराज) के द्वारा रचे गये अङ्गदों से शोभमान (कामकलाकाली का सदा स्मरण करता हूँ) ॥ १८ ॥ महाधूसरत्त्विड्भुजङ्गेन्द्रक्लृप्त- स्फुरच्चारुकाटेयसूत्राभिरामाम् । चलत्पाण्डुराहीन्द्रयज्ञोपवीतत्विडुद्भासिवक्षःस्थलोद्यत्कपाटाम् ॥ १९ ॥ महाधूसर कान्तिवाले विशाल नाग से बने हुए चमकीले कटिसूत्र से सुन्दर, चञ्चल पाण्डुर सपेन्द्र के यज्ञोपवीत की कान्ति से उद्भासित वक्षःस्थल रूप कपाट वाली (कामकलाकाली का सदा स्मरण करता हूँ) ॥ १९ ॥ पिषङ्गोरगेन्द्रावनद्धावशोभा- महामोहबीजाङ्गसंशोभिदेहाम् । महाचित्रिताशीविषेन्द्रोपक्लृप्त- स्फुरच्चारुताटङ्कविद्योतिकर्णाम् ॥ २० ॥ पिषङ्ग वर्ण के उरगेन्द्र से अवनद्ध अवशोभा वाले महामोहबीजाङ्ग (योनि?) से संशोभित देह वाली, महाचित्रित सर्पराज से रचित चमकते हुए ताटक (कर्णाभरण) से विद्योतित कान वाली (कामकलाकाली का सदा स्मरण करता हूँ) ॥ २० ॥ वलक्षाहिराजावनद्धोर्ध्वभासि- स्फुरत्पिङ्गलोद्यज्जटाजूटभाराम् । महाशोणभोगीन्द्रनिस्यूतमूण्डोल्लसत्किङ्कणीजालसंशोभिमध्याम् ॥ २१ ॥ वलक्ष (-श्वेत) अहिराज से अवनद्ध ऊर्ध्वभासी स्फुरित होती हुई पिङ्गल एवं उठी हुई जटाजूट के भार वाली, महारक्तवर्ण के भोगीन्द्र से सिले गये मुण्ड से उल्लसित किङ्किणी जाल से शोभित मध्य (कटिप्रदेश) वाली (कामकलाकाली का सदा स्मरण करता हूँ) ॥ २१ ॥ सदा संस्मरामीदृशों कामकालीं जयेयं सुराणां हिरण्योद्भवानाम् । स्मरेयुर्हि येऽन्येऽपि ते वै जयेयुर्विपक्षान्मृधे नात्र सन्देहलेशः ॥ २२ ॥ इस प्रकार की कामकलाकाली का सदा संस्मरण करता हूँ ताकि हिरण्याक्ष एवं हिरणकशिपु से उत्पन्न राक्षसों पर विजय प्राप्त कर सकें । अन्य जो भी लोग इसका स्मरण करेंगे वे युद्ध में शत्रुओं को जीत लेंगे । इसमें रञ्चमात्र भी सन्देह नहीं है ॥ २२ ॥ पठिष्यन्ति ये मत्कृतं स्तोत्रराजं मुदा पूजयित्वा सदा कामकालीम् । न शोको न पापं न वा दुःखदैन्यं न मृत्युर्न रोगो न भीतिर्न चापत् ॥ २३ ॥ कामकाली की पूजा कर जो लोग सदा प्रेम से मेरे द्वारा रचित इस स्तोत्रराज का पाठ करेंगे उनको न शोक, न पाप, न दु:ख, न दैन्य, न मृत्यु, न रोग, न भय, और न आपत्ति होगी ॥ २३ ॥ धनं दीर्घमायुः सुखं बुद्धिरोजो यशः शर्मभोगाः स्त्रियः सूनवश्च । श्रियो मङ्गलं बुद्धिरुत्साह आज्ञा लयः शर्म (सर्व) विद्या भवेन्मुक्तिरन्ते ॥ २४ ॥ नको धन, दीर्घायु, सुख, बुद्धि, ओज, यश, शर्म, भोग, स्त्री, पुत्र, लक्ष्मी, मङ्गल, बुद्धि, उत्साह, आज्ञा, लय, सर्वविद्या और अन्त में मुक्ति मिलती है ॥ २४ ॥ ॥ इति श्री महावामकेश्वर तन्त्रे कालकेयहिरण्यपुर विजये रावणकृतं कामकलाकाली भुजङ्ग प्रयात स्तोत्रराजं सम्पूर्णम् ॥ महाकाल संहिता कामकलाकाली खण्ड दशमः पटलः Related