॥ कूष्माण्डा ॥

यह देवि ब्रह्माण्ड को कूष्माण्ड की तरह आकृति में धारण करती है । ईषत् हँसने से अण्ड को अर्थात् ब्रह्माण्ड को पैदा करती है । इन्हें कुम्हड़े की बलिप्रिय है अतः इन्हें कूष्माण्डा नाम से संबोधित किया जाता है ।
अष्टभुजा स्वरूप में सातभुजाओं में अस्त्र धारण करती हैं तथा दाहिनी भुजा में जप माला है । सिंह वाहिनी दुर्गा है । यह देवी विन्ध्यवासिनी का ही स्वरूप है । तत्संबंधी नवदुर्गा इस प्रकार है । नीलकण्ठी, क्षेमङ्करी, हरसिद्धा, रुद्रांशदुर्गा, वनदुर्गा, अग्निदुर्गा, जयदुर्गा, विन्ध्यवासिनी, रूपमारी दुर्गा ॥

विन्ध्यवासिनी के अलावा अन्य अष्टदेवियाँ अष्टनायिका हुई जिनका पूजन अष्टदल में करें । तन्त्र ग्रन्थों में कूष्माण्डा के प्रश्न के शुभाशुभ ज्ञान हेतु स्वप्रसिद्धि हेतु किया जाता है ।
जैन ग्रन्थों में भी कूष्माण्डा के घट चालन के मंत्र व प्रयोग मिलते हैं । घटचालन हेतु शुद्ध भूमि पर अक्षतादि रखकर कलश स्थापित कर उसमें कूष्माण्डा का आवाह्न पूजन किया जाता है । पश्चात् मंत्र पढ़ते हुये दो व्यक्ति हाथ से कलश का स्पर्श करते है । मंत्र पढ़ते हुये प्रश्न कामना की शुभाशुभ सिद्धि हेतु कलश का वाम या दक्षिण की ओर घूमने की प्रार्थना की जाती है अतः कलश के भ्रमणानुसार अपना शुभाशुभ जाने ।

कुष्माण्डा देवी का प्रेत कुष्माण्डा नाम से प्रयोग शत्रु को पीड़ा देने हेतु किया जाता है । यह प्रेतासना देवी है ।

मंत्रोयथा –
(१) ॐ ह्रीं जगत्प्रसूत्यै नमः ।
(२) ॐ ह्रीं कूष्माण्डायै जगत्प्रसूत्यै नमः।
(३) ॐ ह्रीं नमो भगवति कूष्माण्डायै मम शुभाशुभं स्वप्ने सर्व प्रदर्शय प्रदर्शय।
(४) ॐ ह्रीं नमो भगवति प्रेतकूष्माण्डायै पर प्रयोग भक्षिणी मम शत्रून् भञ्जय-भञ्जय मर्दय-मर्दय मां रक्ष रक्ष सर्वकार्य साधय-साधय ह्रीं स्वाहा ।
(५) ॐ अग्रे कुष्माण्डिनी कनकप्रभे सिंहमस्तक समारूढे अवतर अवतर अमोघ वागेश्वरी सत्यवादिनी सत्यं कथय कथय ह्रीं ॐ स्वाहा ।
(६) ॐ नमो भगवति अप कूष्माण्डि महाविद्ये कनकप्रभे सिंहरथ गामिनी त्रैलोक्या शूलिनी ऐह्ये ऐह्ये मम चिंतितं कार्यं कुरू कुरू भगवती स्वाहा । ( पाठान्तर) भगवत्यं अप ।

॥ ध्यान व प्रार्थना ॥
सुरासंपूर्ण कलशं रुधिराप्सुतमेव च ।
दधाना हस्त पद्माभ्यां कूष्माण्डा शुभदास्तु मे ॥

॥ यंत्रार्चनम् ॥
यन्त्र रचना – बिन्दु, त्रिकोण, षट्कोण, अष्टदल एवं भूपुर सहित यंत्र बनाये ।


ॐ मं मण्डूकादि पीठ देवताभ्यो नमः से योग पीठ का पूजन कर मध्य में देवि का ध्यान पूर्वक आवह्न करे ।
प्रथमावरणम् – (त्रिकोणे) ॐ सं सत्त्वाय नमः। ॐ रं रजसेनमः। ॐ तं तमसे नमः।
द्वितीयावरणम् – (षट्कोणे) ॐ हृदय शक्तये नमः। ॐ शिरशक्त्ये नमः। ॐ शिखाशक्तये नमः। ॐ कवच शक्तये नमः। ॐ नेत्रशक्तये नमः। ॐ अस्त्र शक्तये नमः।

तृतीयावरणम् – (अष्टदलकेसरेषु) ॐ असितांग भैरवाय नमः । ॐ रुरु भैरवाय नमः । ॐ चण्ड भैरवाय नमः।ॐ क्रोध भैरवाय नमः । ॐ कपालि भैरवाय नमः। ॐ उन्मत्त भैरवाय नमः । ॐ भीषण भैरवाय नमः । ॐ संहार भैरवाय नमः।
चतुर्थावरणम् – (अष्टदलाने) ॐ नीलकण्ठ्यै नमः। ॐ क्षेमकर्यै नमः । ॐ हरसिद्ध्यै नमः। ॐ रुद्रांशदुर्गायै नमः । ॐ वनदुर्गायै नमः। ॐ अग्निदुर्गायै नमः। ॐ जयदुर्गायै नमः। ॐ रूपमारी दुर्गायै नमः।
पंचमावरणम् –(भूपुरे चतुर्दारे) पूर्वे – गं गणेशाय नमः । दक्षिणे – वं वदुकाय नमः। पश्चिमे – यां योगिन्यै नमः । उत्तरेक्षां – क्षेत्रपालाय नमः।
षष्ठमावरणम् – (भूपुरे)- इन्द्रादि लोकपालों व उनके वज्रादि आयुधों का पूजन करे । देवि की पूजा अर्चना कर नियमित क्रम से पुरश्चरण करे । देवि के कुष्माण्ड की बलि प्रिय है अत: इसे निवेदित करे ।

॥ आम्रकूष्माण्डा मन्त्राः ॥
प्राकृत ग्रन्थे
१. ॐ हूं ह्रौं भों ह्रैं ह्रौं मों ह्रैं ह्रौं स्वाहा ।
२. ॐ ह्रूं ह्रौं ह्रैं उं ह्रैं ह्रौं स्वाहा उं ह्रीं क्ष्मं ठः नमः । स्फ्रां आम्रकुष्माडिनी नमः
३. ॐ नमो भगवति आम्रकुष्माण्डी अंबा अम्बालिके (अंबोल) अंबिके स्वाहा ।
४. ॐ नमो भगवति आम्रकुष्माण्डी ॐ जयंतगिरिशिखर निवासिनी सर्वाङ्गसुन्दरी वामरूपधारिणी पूर्व द्वारं बंधामि अग्निद्वारं बंधामि दक्षिणद्वारं बंधामि नैऋत्यद्वारं बंधामि पश्चिमद्वारं बंधामि वायव्यद्वारं बंधामि उत्तरद्वार बंधामि ईशानद्वारं बंधामि उर्ध्वद्वारं बंधामि अधोद्वारं बंधामि शिर:द्वारं बंधामि कुक्षिद्वारं बंधामि सर्वप्रदेशे बंधामि आत्मरक्षे भूतरक्षे पिशाचरक्षे चोररक्षे सर्वरक्षे कामरक्षे स्वाहा वज्रप्राकार अग्निप्राकारः प्राकारं भूमि बंध आकाशबंध दिगंबंध चोरबंध आत्मरक्षा सर्वरक्षानाम विद्या ।
५. ॐ नमो भगवति आम्रकुष्माण्डी सर्वमुख रञ्जिनी सर्वमुख स्तम्भनी हुं फट् स्वाहा।

॥ ध्यानम् ॥
हरितमणि स्वर्णवेदी पर श्यामदेह वाली देवि विराजमान है । इस देवि के भट्टटारक (शिव) अरिष्टनेमि है । उनके पास में देवि की स्थापना करें ।
अष्टमहाप्राति हार्य समन्विता द्वादशगण परिवृताम् ।
अरिष्टनेमि भट्टारकस्य प्रतिमा मालिख्य तस्य पादमूले ॥
आम्रकुष्माण्डि अष्टभुजां शंख चक्र धनुः परशु तोमरः ।
खड्ग पासको द्रव्याष्टकैः देवीं चतुर्भुजां शङ्ख चक्र वरदः ॥
पाशन्य स्वरूपेण सिंहासनस्थिता शान्ति द्विभुजा स्थिता ।
पार्श्व देवकन्या वामहस्त स्थित विमुकादिश्रमताम् ॥

आम्रकुष्माण्डी की मूर्ति बनाकर आभूषणो से संजाये दोनो तरफ एक एक पुत्र खड़ा करें । शुक्लपक्ष में पूजन प्रारंभ करें । त्रयोदशी से पूर्णिमा तक अरहंत देव का पूजन करें, १००८ जप नित्य करें । पूर्णिमा को मन्त्र द्वारा ९००० चमेली के पुष्प चढ़ावें ।

॥ प्रेतकूष्माण्डा मन्त्र ॥
यह देवि प्रेत पर सवार है । भैरवी के समान है । शत्रुसंहार भी करती है तथा भरण पोषण भी करती है ।
मन्त्र :- स्हौः हसौः हसखफ्रें सहख्फ्रें हक्षम्लव्यूँ प्रेतकूष्माण्डायै स्वाहा ।

 

 

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