॥ गर्भगत कृष्णस्तुतिः ॥

॥ श्रीमद्भागवतान्तर्गतं देवकृता गर्भगत कृष्णस्तुतिः ॥

ब्रह्मा भवश्च तत्रैत्य मुनिभिर्नारदादिभिः ।
देवैः सानुचरैः साकं गीर्भिर्वृषणमैडयन् ॥

सत्यव्रतं सत्यपरं त्रिसत्यं सत्यस्य योनिं निहितं च सत्ये ।
सत्यस्य सत्यमृतसत्यनेत्रं सत्यात्मकं त्वां शरणं प्रपन्नाः ॥


एकायनोऽसौ द्विफलस्त्रिमूलश्चतूरसः पञ्चविधः षडात्मा ।
सप्तत्वगष्टविटपो नवाक्षो दशच्छदी द्विखगो ह्यादिवृक्षः ॥
त्वमेक एवास्य सतः प्रसूतिस्त्वं सन्निधानं त्वमनुग्रहश्च ।
त्वन्मायया संवृतचेतसस्त्वां पश्यन्ति नाना न विपश्चितो ये ॥
बिभर्षि रूपाण्यवबोध आत्मा क्षेमाय लोकस्य चराचरस्य ।
सत्त्वोपपन्नानि सुखावहानि सतामभद्रा णि मुहुः खलानाम् ॥
त्वय्यम्बुजाक्षाखिलसत्त्वधाम्नि समाधिनावेशितचेतसैके ।
त्वत्पादपोतेन महत्कृतेन कुर्वन्ति गोवत्सपदं भवाब्धिम् ॥
स्वयं समुत्तीर्य सुदुस्तरं द्युमन् भवार्णवं भीममदभ्रसौहृदाः ।
भवत्पदाम्भोरुहनावमत्र ते निधाय याताः सदनुग्रहो भवान् ॥
येऽन्येऽरविन्दाक्ष विमुक्तमानिनस् त्वय्यस्तभावादविशुद्धबुद्धयः ।
आरुह्य कृच्छ्रेण परं पदं ततः पतन्त्यधोऽनादृतयुष्मदङ्घ्रयः ॥
तथा न ते माधव तावकाः क्वचिद्भ्रश्यन्ति मार्गात्त्वयि बद्धसौहृदाः ।
त्वयाभिगुप्ता विचरन्ति निर्भया विनायकानीकपमूर्धसु प्रभो ॥
सत्त्वं विशुद्धं श्रयते भवान्स्थितौ शरीरिणां श्रेयौपायनं वपुः ।
वेदक्रियायोगतपःसमाधिभिस् तवार्हणं येन जनः समीहते ॥
सत्त्वं न चेद्धातरिदं निजं भवेद् विज्ञानमज्ञानभिदापमार्जनम् ।
गुणप्रकाशैरनुमीयते भवान् प्रकाशते यस्य च येन वा गुणः ॥
न नामरूपे गुणजन्मकर्मभिर्निरूपितव्ये तव तस्य साक्षिणः ।
मनोवचोभ्यामनुमेयवर्त्मनो देव क्रियायां प्रतियन्त्यथापि हि ॥
शृण्वन्गृणन्संस्मरयंश्च चिन्तयन् नामानि रूपाणि च मङ्गलानि ते ।
क्रियासु यस्त्वच्चरणारविन्दयोर् आविष्टचेता न भवाय कल्पते ॥
दिष्ट्या हरेऽस्या भवतः पदो भुवो भारोऽपनीतस्तव जन्मनेशितुः ।
दिष्ट्याङ्कितां त्वत्पदकैः सुशोभनैर् द्रक्ष्याम गां द्यां च तवानुकम्पिताम् ॥
न तेऽभवस्येश भवस्य कारणं विना विनोदं बत तर्कयामहे ।
भवो निरोधः स्थितिरप्यविद्यया कृता यतस्त्वय्यभयाश्रयात्मनि ॥
मत्स्याश्वकच्छपनृसिंहवराहहंस राजन्यविप्रविबुधेषु कृतावतारः ।
त्वं पासि नस्त्रिभुवनं च यथाधुनेश भारं भुवो हर यदूत्तम वन्दनं ते ॥
(श्रीमद्भागवतपुराण, दशमस्कन्ध , अध्याय २, श्लोक २५-४०)

भगवान् शङ्कर और ब्रह्माजी कंस के कैदखाने में आये । उनके साथ अपने अनुचरों के सहित समस्त देवता और नारदादि ऋषि भी थे । वे लोग सुमधुर वचनों से सबकी अभिलाषा पूर्ण करनेवाले श्रीहरि की इस प्रकार स्तुति करने लगे —॥ २५ ॥

‘प्रभो ! आप सत्यसङ्कल्प हैं । सत्य ही आपकी प्राप्ति का श्रेष्ठ साधन है । सृष्टि के पूर्व, प्रलय के पश्चात् और संसार की स्थिति के समय — इन असत्य अवस्थाओं में भी आप सत्य हैं । पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश — इन पाँच दृश्यमान सत्यों के आप ही कारण हैं । और उनमें अन्तर्यामीरूप से विराजमान भी हैं । आप इस दृश्यमान जगत् के परमार्थस्वरूप हैं । आप ही मधुर वाणी और समदर्शन के प्रवर्तक हैं । भगवन् ! आप तो बस, सत्यस्वरूप ही हैं । हम सब आपकी शरण में आये हैं ॥ २६ ॥ यह संसार क्या है, एक सनातन वृक्ष । इस वृक्ष का आश्रय है — एक प्रकृति । इसके दो फल हैं — सुख और दुःख, तीन जड़े हैं — सत्व, रज और तम; चार रस हैं — धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष । इसके जानने के पाँच प्रकार हैं — श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, रसना और नासिका । इसके छः स्वभाव हैं — पैदा होना, रहना, बढ़ना, बदलना, घटना और नष्ट हो जाना । इस वृक्ष की छाल हैं सात धातुएँ — रस, रुधिर, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा और शुक्र । आठ शाखाएँ हैं — पाँच महाभूत, मन, बुद्धि और अहङ्कार । इसमें मुख आदि नवों द्वार खोड़र हैं । प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान, नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त और धनञ्जय — ये दस प्राण ही इसके दस पत्ते हैं । इस संसाररूप वृक्ष पर दो पक्षी हैं — जीव और ईश्वर ॥ २७ ॥

इस संसाररूप वृक्ष की उत्पत्ति के आधार एकमात्र आप ही हैं । आपमें ही इसका प्रलय होता हैं और आपके ही अनुग्रह से इसकी रक्षा भी होती है । जिनका चित्त आपकी माया से आवृत हो रहा है, इस सत्य को समझने की शक्ति खों बैठा हैं — वे ही उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय करनेवाले ब्रह्मादि देवताओं को अनेक देखते हैं । तत्त्वज्ञानी पुरुष तो सबके रूप में केवल आपका ही दर्शन करते हैं ॥ २८ ॥ आप ज्ञानस्वरूप आत्मा हैं । चराचर जगत् के कल्याण के लिये ही अनेकों रूप धारण करते हैं । आपके वे रूप विशुद्ध अप्राकृत सत्त्वमय होते हैं और संत पुरुषों को बहुत सुख देते हैं । साथ ही दुष्टों को उनकी दुष्टता का दण्ड भी देते हैं । उनके लिये अमङ्गलमय भी होते हैं ॥ २९ ॥ कमल के समान कोमल अनुग्रह भरे नेत्रोंवाले प्रभो ! कुछ बिरले लोग ही आपके समस्त पदार्थों और प्राणियों के आश्रयस्वरूप रूप में पूर्ण एकाग्रता से अपना चित्त लगा पाते हैं और आपके चरणकमलरूपी जहाज का आश्रय लेकर इस संसार-सागर को बछड़े के खुर के गढ़्ढे के समान अनायास ही पार कर जाते हैं । क्यों न हो, अब तक के संतों ने इसी जहाज से संसार-सागर को पार जो किया है ॥ ३० ॥

परम प्रकाशस्वरूप परमात्मन् ! आपके भक्तजन सारे जगत् के निष्कपट प्रेमी, सच्चे हितैषी होते हैं । वे स्वयं तो इस भयङ्कर और कष्ट से पार करने योग्य संसार-सागर को पार कर ही जाते हैं, किन्तु औरों के कल्याण के लिये भी वे यहाँ आपके चरण-कमलों की नौका स्थापित कर जाते हैं । वास्तव में सत्पुरुषों पर आपकी महान् कृपा हैं । उनके लिये आप अनुग्रहस्वरूप ही हैं ॥ ३१ ॥ कमलनयन ! जो लोग आपके चरणकमलों की शरण नहीं लेते तथा आपके प्रति भक्तिभाव से रहित होने के कारण जिनकी बुद्धि भी शुद्ध नहीं है, वे अपने को झूठ-मूठ मुक्त मानते हैं । वास्तव में तो वे बद्ध ही हैं । वे यदि बड़ी तपस्या और साधना का कष्ट उठाकर किसी प्रकार ऊँचे-से-ऊँचे पद पर भी पहुँच जायें, तो भी वहाँ से नीचे गिर जाते हैं ॥ ३२ ॥ परन्तु भगवन् ! जो आपके अपने निज जन हैं, जिन्होंने आपके चरणों में अपनी सच्ची प्रीति जोड़ रखी है, वे कभी उन ज्ञानाभिमानियों की भाँति अपने साधन-मार्ग से गिरते नहीं । प्रभो ! वे बड़े-बड़े विघ्न डालनेवालों की सेना के सरदारों के सिर पर पैर रखकर निर्भय विचरते हैं, कोई भी विघ्न उनके मार्ग में रुकावट नहीं डाल सकते; क्योंकि उनके रक्षक आप जो हैं ॥ ३३ ॥

आप संसार की स्थिति के लिये समस्त देहधारियों को परम कल्याण प्रदान करनेवाला विशुद्ध सत्त्वमय, सच्चिदानन्दमय परम दिव्य मङ्गल-विग्रह प्रकट करते हैं । उस रूप के प्रकट होने से ही आपके भक्त वेद, कर्मकाण्ड, अष्टाङ्योग, तपस्या और समाधि के द्वारा आपकी आराधना करते हैं । बिना किसी आश्रय के वे किसकी आराधना करेंगे ? ॥ ३४ ॥ प्रभो ! आप सबके विधाता हैं । यदि आपका यह विशुद्ध सत्त्वमय निज स्वरूप न हो, तो अज्ञान और उसके द्वारा होनेवाले भेदभाव को नष्ट करनेवाला अपरोक्ष ज्ञान ही किसी को न हो । जगत् में दीखनेवाले तीनों गुण आपके हैं और आपके द्वारा ही प्रकाशित होते हैं, यह सत्य है । परन्तु इन गुणों की प्रकाशक वृत्तियों से आपके स्वरूप का केवल अनुमान ही होता हैं, वास्तविक स्वरूप का साक्षात्कार नहीं होता । (आपके स्वरूप का साक्षात्कार तो आपके इस विशुद्ध सत्त्वमय स्वरूप की सेवा करने पर आपकी कृपा से ही होता है) ॥ ३५ ॥ भगवन् ! मन और वेद-वाणी के द्वारा केवल आपके स्वरूप का अनुमानमात्र होता है, क्योंकि आप उनके द्वारा दृश्य नहीं; उनके साक्षी हैं । इसलिये आपके गुण, जन्म और कर्म आदि के द्वारा आपके नाम और रूप का निरूपण नहीं किया जा सकता । फिर भी प्रभो ! आपके भक्तजन उपासना आदि क्रियायोगों के द्वारा आपका साक्षात्कार तो करते ही हैं ॥ ३६ ॥

जो पुरुष आपके मङ्गलमय नामों और रूपों का श्रवण, कीर्तन, स्मरण और ध्यान करता है और आपके चरणकमलों की सेवामें ही अपना चित लगाये रहता है — उसे फिर जन्म-मृत्युरूप संसार के चक्र में नहीं आना पड़ता ॥ ३७ ॥ सम्पूर्ण दुःखों के हरनेवाले भगवन् ! आप सर्वेश्वर हैं । यह पृथ्वी तो आपका चरणकमल ही हैं । आपके अवतार से इसका भार दूर हो गया । धन्य है ! प्रभो ! हमारे लिये यह बड़े सौभाग्य की बात हैं कि हमलोग आपके सुन्दर-सुन्दर चिह्नों से युक्त चरणकमलों के द्वारा विभूषित पृथ्वी को देखेंगे और स्वर्गलोक को भी आपकी कृपा से कृतार्थ देखेंगे ॥ ३८ ॥ प्रभो ! आप अजन्मा हैं। यदि आपके जन्म के कारण सम्बन्ध में हम कोई तर्क ना करें, तो यहीं कह सकते हैं कि यह आपकी एक लीला-विनोद है । ऐसा कहने का कारण यह है कि आप तो द्वैत के लेश से रहित सर्वाधिष्ठानस्वरूप है और इस जगत् की उत्पत्ति, स्थिति तथा प्रलय अज्ञान के द्वारा आपमें आरोपित हैं ॥ ३९ ॥ प्रभो ! आपने जैसे अनेकों बार मत्स्य, हयग्रीव, कच्छप, नृसिंह, वराह, हंस, राम, परशुराम और वामन अवतार धारण करके हमलोगों की और तीनों लोकों की रक्षा की है वैसे ही आप इस बार भी पृथ्वी का भार हरण कीजिये । यदुनन्दन ! हम आपके चरणों में वन्दना करते हैं ॥ ४० ॥


॥ गर्ग संहितान्तर्गतं देवकृता गर्भगत कृष्णस्तुतिः ॥

अथ ब्रह्मादयो देवा मुनीन्द्रैरस्मदादिभिः ।
शौरिगेहोपरि प्राप्ताः स्तवं चक्रुः प्रणम्य तम् ॥
॥ देवा ऊचुः ॥
यज्जागरादिषु भवेषु परं ह्यहेतुर्हेतुः स्विदस्य विचरन्ति गुणाश्रयेण ।
नैतद्विशन्ति महदिन्द्रियदेवसंघास्तस्मै नमोऽग्निमिव विस्तृतविस्फुलिंगाः ॥
नैवेशितुं प्रभुरयं बलिनां बलीयान् माया न शब्द उत नो विषयी करोति ।
तद्ब्रह्म पूर्णममृतं परमं प्रशान्तं शुद्धं परात्परतरं शरणं गताः स्मः ॥
अंशांशकांशककलाद्यवतारवृन्दैरावेशपूर्णसहितैश्च परस्य यस्य ।
सर्गादयः किल भवन्ति तमेव कृष्णं पूर्णात्परं तु परिपूर्णतमं नताः स्मः ॥
मन्वन्तरेषु च युगेषु गतागतेषु कल्पेषु चांशकलया स्ववपुर्बिभर्षि ।
अद्यैव धाम परिपूर्णतमं तनोषि धर्मं विधाय भुवि मंगलमातनोषि ॥
यद्दुर्लभं विशदयोगिभिरप्यगम्यं गम्यं द्रवद्भिरमलाशयभक्तियोगैः ।
आनंदकंद चरतस्तव मन्दयानं पादारविन्दमकरन्दरजो दधामः ॥
पूर्वं तथात्र कमनीयवपुष्मयं त्वां कंदर्पकोटिशतमोहनमद्भुतं च ।
गोलोकधामधिषणद्युतिमादधानं राधापतिं धरमधुर्यधनं दधानम् ॥
(गर्ग संहिता । अ॰ ११ । ८-१३)

जब भगवान गर्भ में आविष्ट हुए, तब ब्रह्मादि देवता तथा अस्मदादि (नारद प्रभृति) मुनीश्वर वसुदेव के गृह के ऊपर आकाश में स्थित हो, भगवान को प्रणाम करके उनकी स्तुति करने लगे।
देवता बोले –  जाग्रत, स्वप्न आदि अवस्थाओं में प्रतीत होने वाले विश्व के जो एकमात्र हेतु होते हुए भी अहेतु हैं, जिनके गुणों का आश्रय लेकर ही ये प्राणि समुदाय सब ओर विचरते हैं तथा जैसे अग्नि से निकलकर सब ओर फैले हुए विस्फुलिंग (चिनगारियाँ) पुन: उसमें प्रवेश नहीं करते, उसी प्रकार महत्तत्त्व, इन्द्रिय वर्ग तथा उनके अधिष्ठता देव समुदाय जिनसे प्रकट हो पुन: उनमें प्रवेश नहीं पाते, उन परमात्मा आप भगवान श्रीकृष्ण को हमारा सादर नमस्कार है।
बलवानों में भी सबसे अधिक बलिष्ठ यह काल भी जिन पर शासन करने में समर्थ नहीं है, माया भी जिन पर कोई प्रभाव नहीं डाल सकती तथा नित्य शब्द (वेद) जिनको अपना विषय नहीं बना पाता, उन परम अमृत, प्रशांत, शुद्ध, परात्पर पूर्ण ब्रह्मस्वरूप आप भगवान की हम शरण में आये हैं। जिन परमेश्वर के अंशावतार, अंशांशावतार, कलावतार, आवेशावतार तथा पूर्णावतार सहित विभिन्न अवतारों द्वारा इस विश्व के सृष्टि पालन आदि कार्य सम्पादित होते हैं, उन्हीं पूर्ण से भी परे परिपूर्णतम भगवान श्रीकृष्ण को हम प्रणाम करते हैं। प्रभो ! अतीत, वर्तमान और अनागत (भविष्य) मन्वन्तरों, युगों तथा कल्पों में आप अपने अंश और कला द्वारा अवतार-विग्रह धारण करते हैं। किंतु आज ही वह सौभाग्यपूर्ण अवसर आया है, जबकि आप अपने परिपूर्णतम धाम (तेज:पुंज) का यहाँ विस्तार कर रहे है !

अब इस परिपूर्णतम अवतार द्वारा भूतल पर धर्म की स्थापना करके आप लोक में मंगल (कल्याण) का प्रसार करेंगे। आनन्दकन्द ! देवकीनन्दन ! आपकी जो चरणरज विशुद्ध अंत:करण वाले योगियों के लिये भी दुर्लभ और अगम्य है, वही उन बड़भागी भक्तों के लिये परम सुलभ है, जो अपने निर्मल हृदय में भक्तियोग धारण करके, सदा प्रीतिसर में निमग्न हो, द्रवित-चित्त रहते हैं। शिशुरूप में मन्द-मन्द विचरने वाले आपके चरणारविन्दों के मकरन्द एवं पराग को हम सानुराग सिर पर धारण करें, यही हमारी आंतरिक अभिलाषा है। आप पहले सी ही परम कमनीय कलेवरधारी हैं और यहाँ इस अवतार में भी उसी कमनीय रूप से आप सुशोभित होंगे। आपका रूप कोटिशत कामदेवों को भी मोहित करने वाला और परम अद्भुत है। आप गोलोकधाम में धारित दिव्य दीप्ति राशि को यहाँ भी धारण करेंगे। सर्वोत्कृष्ट धर्मधन के धारियता आप श्रीराधाबल्लभ को हम प्रणाम करते हैं।

 

॥ श्रीब्रह्मवैवर्तपुराणान्तर्गतं देवकृता गर्भगत कृष्णस्तुतिः ॥

देवा ऊचुः
जगद्योनिरयोनिस्त्वमनन्तोऽव्यय एव च ।
ज्योतिःस्वरूपो ह्यनघः सगुणो निर्गुणो महान् ॥
भक्तानुरोधात् साकारो निराकारो निरंकुशः ।
स्वेच्छामयश्च सर्वेशः सर्वः सर्वगुणाश्रयः ॥
सुखदो दुःखदो दुर्गो दुर्जनान्तक एव च ।
निर्व्यूहो निखिलाधारो निःशङ्को निरुपद्रवः ॥
निरुपाधिश्च निर्लिप्तो निरीहो निधनान्तकः ।
आत्मारामः पूर्णकामो निर्दोषो नित्य एव च ॥
सुभगो दुर्भगो वाग्मी दुराराध्यो दुरत्ययः ।
वेदहेतुश्च वेदाश्च वेदाङ्गो वेदविद् विभुः ॥
इत्येवमुक्त्वा देवाश्च प्रणेमुश्च मुहुर्मुहुः ।
हर्षाश्रुलोचनाः सर्वे ववृषुः कुसुमानि च॥
द्विचत्वारिंशन्नामानि प्रातरुत्थाय यः पठेत् ।
दृढां भक्तिं हरेर्दास्यं लभते वाञ्छितं फलम् ॥
(ब्रह्मवैवर्तपुराण । श्रीकृष्णजन्मखण्ड ७ । ५५-६१)

देवता बोले– भगवन! आप समस्त संसार की उत्पत्ति के स्थान हैं, किंतु आपकी उत्पत्ति का स्थान कोई नहीं है। आप अनन्त, अविनाशी, निष्पाप, सगुण, निर्गुण तथा महान ज्योतिःस्वरूप हैं। आप निराकार होते हुए भी भक्तों के अनुरोध से साकार बन जाते हैं। आप पर किसी का अंकुश या नियन्त्रण नहीं है। आप सर्वथा स्वच्छन्द, सर्वेश्वर, सर्वरूप तथा समस्त गुणों के आश्रय हैं। आप संतों को सुख देने वाले, दुष्टों को दुःख प्रदान करने वाले, दुर्गमस्वरूप एवं दुर्जनों के नाशक हैं। आप तक तर्क की पहुँच नहीं होती है। आप सबके आधार हैं। शंका और उपद्रव से शून्य हैं। उपाधिशून्य, निर्लिप्त और निरीह हैं। मृत्यु की भी मृत्यु हैं। अपनी आत्मा में रमण करने वाले पूर्णकाम, निर्दोष और नित्य हैं। आप सौभाग्यशाली और दुर्भाग्यरहित हैं तथा प्रवचनकुशल हैं। आपको रिझाना या लाँघना कठिन ही नहीं, असम्भव है। आपके निःश्वास से वेदों का प्राकट्य हुआ है; इसलिये आप उनके प्रादुर्भाव में हेतु हैं। सम्पूर्ण वेद आपके स्वरूप हैं। छन्द आदि वेदांग भी आपसे भिन्न नहीं हैं। आप वेदवेत्ता और सर्वव्यापी हैं। ऐसा कहकर देवताओं ने बारंबार उनको प्रणाम किया। उन सबके नेत्रों में हर्ष के आँसू छलक रहे थे। उन सबने फूलों की वर्षा की। जो पुरुष प्रातःकाल उठकर (मूल श्लोक में कहे गये) बयालीस नामों का पाठ करता है, वह श्रीहरि की दृढ़भक्ति, दास्यभाव और मनोवांछित फल पाता है।

 

 

 

 

 

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