॥ गोपिका विरह गीत ॥

एहि मुरारे कुजविहारे एहि प्रणतजनबन्धो ।
हे माधव मधुमथन वरेण्य केशव करुणासिन्धो ।

(ध्रुवपदम्)
रासनिकुञ्जे गुञ्जति नियतं भ्रमरशतं किल कान्त ।
एहि निभृतपथपान्थ ।
त्वामिह याचे दर्शनदानं हे मधुसूदन शान्त ॥ १ ॥


शून्यं कुसुमासनमिह कुञ्जे शून्यः केलिकदम्बः ।
दीनः केकिकदम्बः ।
मृदुकलनादं किल सविषादं रोदिति यमुनास्वम्भः ॥ २ ॥
नवनीरजधरश्यामलसुन्दर चन्द्रकुसुमरुचिवेश ।
गोपीगणहृदयेश ।
गोवर्धनधर वृन्दावनचर वंशीधर परमेश ॥ ३ ॥
राधारञ्जन कंसनिषूदन प्रणतिस्तावकचरणे ।
निखिलनिराश्रयशरणे ।
एहि जनार्दन पीताम्बरधर कुञ्जे मन्थरपवने ॥ ४ ॥

हे मुरारे ! हे प्रणतजनों के बन्धु ! विहार-कुंज में आइये, आइये । हे माधव ! हे मधुमथन ! हे पूजनीय ! हे केशव ! हे करुणासिन्धो ! पधारिये । हे अद्वैतपथ के पथिक ! हे नाथ ! रासनिकुंज में सैकड़ों भ्रमर गूंज रहे हैं, पधारिये; हे शान्तिमय मधुसूदन ! आपके दर्शनदान की हम याचना करती हैं ॥ १ ॥
हे नाथ ! आपके इस क्रीडास्थल कुंज में बिछा हुआ यह कुसुमासन और यह लीला-कदम्ब, सब आपके बिना सूना मालूम हो रहा है; मयूर आदि पक्षीगण दीन हो रहे हैं, मृदु कलरव करता हुआ श्रीयमुनाजी का निर्मल जल भी आपके वियोग में शोक के साथ रोता-सा जान पड़ता है ॥ २ ॥
हे नवीन कमल धारण करनेवाले ! हे मेघ की-सी श्यामल सुन्दरतावाले ! हे मोरपंख और पुष्पों से सुशोभित वेषधारी गोपीजनों के हृदयेश ! हे गोवर्धनधारी ! वृन्दावन-विहारी ! मुरलीधर ! हे प्रभो ! पधारिये ॥ ३ ॥
हे राधिकाजी को प्रसन्न करनेवाले ! कंस को मारनेवाले ! सभी निराश्रयों को आश्रय देनेवाले आपके चरणों में हमारा प्रणाम है, हे जनार्दन ! पीताम्बरधारी ! हे प्रभो ! इस मन्द-मन्द वायुवाले कुंज में पधारिये ! पधारिये !! पधारिये !!! ॥ ४ ॥

 

 

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