March 18, 2025 | aspundir | Leave a comment गोसूक्त अथर्ववेद के चौथे काण्डके २१वें सूक्तको ‘गोसूक्त’ कहते हैं। इस सूक्त के ऋषि ब्रह्मा तथा देवता गौ हैं। इस सूक्तमें गौओंकी अभ्यर्थना की गयी है। गायें हमारी भौतिक और आध्यात्मिक उन्नतिका प्रधान साधन हैं। इनसे हमारी भौतिक पक्षसे कहीं अधिक आस्तिकता जुड़ी हुई है। वेदोंमें गायका महत्त्व अतुलनीय है। यह ‘गोसूक्त” अत्यन्त सुन्दर काव्य है। इतना उत्तम वर्णन बहुत कम स्थानोंपर मिलता है। मनुष्यको धन, बल, अन्न और यश गौसे ही प्राप्त है। गौएँ घरकी शोभा, परिवारके लिये आरोग्यप्रद और पराक्रमस्वरूप हैं, यही इस सूक्तसे परिलक्षित होता है। पुं० [सं० ष० त०] अथर्ववेद का वह अंश जिसमें ब्रह्माण्ड की रचना का गौ के रूप में वर्णन किया गया है। गोदान के समय इसका पाठ किया जाता है। गोसूक्त माता रूद्राणां दुहिता वसूनां स्वसादित्यानाममृतस्य नाभिः । प्र नु वोचं चिकितुषे जनाय मा गामनागामदितिं वधिष्ट ॥ ( ऋक् ८ । १०१ । १५ ) गाय रुद्रों की माता, वसुओं की पुत्री, अदिति पुत्रों की बहिन और घृत रूप अमृत का खजाना है; प्रत्येक विचारशील पुरुष को मैंने यही समझाकर कहा है कि निरपराध एवं अवध्य गौ का वध न करो । आ गावो अग्मन्नुत भद्रमक्रन्त्सीदन्तु गोष्ठे रणयन्त्वस्मे । प्रजावतीः पुरूरूपा इह स्युरिन्द्राय पूर्वीरूषसो दुहानाः ॥ १ ॥ गौएँ आ गयी हैं और उन्होंने कल्याण किया है। वे गोशाला में बैठें और हमें सुख दें । यहाँ उत्तम बच्चों से युक्त बहुत रूपवाली हो जायँ और परमेश्वर के यजन के लिये उषःकाल के पूर्व दूध देनेवाली हों ॥ १ ॥ इन्द्रो यज्वने गृणते च शिक्षत उपेद् ददाति न स्वं मुषायति । भूयोभूयो रयिमिदस्य वर्धयन्नभिन्ने खिल्ये नि दधाति देवयुम् ॥ २ ॥ ईश्वर यज्ञकर्ता और सदुपदेशकर्ता को सत्य ज्ञान देता है । वह निश्चयपूर्वक धनादि देता है और अपने को नहीं छिपाता । इसके धन को अधिकाधिक बढ़ाता है और देवत्व प्राप्त करने की इच्छा करनेवाले को अपने से भिन्न नहीं ऐसे स्थिर स्थान में धारण करता है ॥ २ ॥ न ता नशन्ति न दभाति तस्करो नासामामित्रो व्यथिरा दधर्षति । देवांश्च याभिर्यजते ददाति च ज्योगित्ताभिः सचते गोपतिः सह ॥ ३ ॥ वह यज्ञ की गौएँ नष्ट नहीं होतीं, चौर उनको दबाता नहीं, इनको व्यथा करनेवाला शत्रु इन पर अपना अधिकार नहीं चलाता, जिनसे देवों का यज्ञ किया जाता है और दान दिया जाता है । गोपालक उनके साथ चिरकालतक रहता है ॥ ३ ॥ न ता अर्वा रेणुककाटोऽश्नुते न संस्कृतत्रमुप यन्ति ता अभि । उरूगायमभयं तस्य ता अनु गावो मर्तस्य वि चरन्ति यज्वनः ॥ ४ ॥ पाँवों से धूलि उड़ानेवाला घोड़ा इन गौओं की योग्यता प्राप्त नहीं कर सकता । वे गौएँ पाकादि संस्कार करनेवाले के पास भी नहीं जातीं । वे गौएँ उस यज्ञकर्ता मनुष्य की बड़ी प्रशंसनीय निर्भयता में विचरती हैं ॥ ४ ॥ गावो भगो गाव इन्द्रो म इच्छाद्गावः सोमस्य प्रथमस्य भक्षः । इमा या गावः स जनास इन्द्र इच्छामि हृदा मनसा चिदिन्द्रम् ॥ ५ ॥ गौएँ धन हैं, गौएँ प्रभु हैं, गौएँ पहले सोमरस का अन्न हैं, यह मैं जानता हूँ । ये जो गौएँ हैं, हे लोगो! वही इन्द्र है । हृदय से और मन से निश्चयपूर्वक मैं इन्द्र को प्राप्त करने की इच्छा करता हूँ ॥ ५ ॥ यूयं गावो मेदयथा कृशं चिदश्रीरं चित्कृणुथा सुप्रतीकम् । भद्रं गृहं कृणुथ भद्रवाचो बृहद्वो वय उच्यते सभासु ॥ ६ ॥ हे गौओं! तुम दुर्बल को भी पुष्ट करती हो, निस्तेज को भी सुन्दर बनाती हो । उत्तम शब्दवाली गौओ! घर को कल्याण रूप बनाती हो, इसलिये सभाओं में तुम्हारा बड़ा यश गाया जाता है ॥ ६ ॥ प्रजावतीः सूयवसे रूशन्तीः शुद्धा अपः सुप्रपाणे पिबन्तीः । मा व स्तेन ईशत माघशंसः परि वो रूद्रस्य हेतिर्वृणक्तु ॥ ७ ॥ उत्तम बच्चोंवाली, उत्तम घास के लिये भ्रमण करनेवाली, उत्तम जल स्थान में शुद्ध जल पीनेवाली गौओ! चोर और पापी तुमपर अधिकार न करें । तुम्हारी रक्षा रुद्र के शस्त्र से चारों ओर से हो ॥ ७ ॥ Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. Type your email… Subscribe