जपमाला के संस्कार
कबीर जी ने कहा है –
माला फेरत जुग भया, मिटा ना मन का फेर ।
कर का मन का छाड़ि के, मन का मनका फेर ।।
माला के सम्बन्ध में शास्त्रों में बहुत विचार किया गया है । यहाँ संक्षेप में उसका कुछ थोड़ा-सा अनुमान मात्र दिया जाता है –
माला प्रायः तीन प्रकार की होती है – कर-माला, वर्ण-माला तथा मणि-माला ।

कर-मालाः-
अँगुलियों पर जो जप किया जाता है, वह करमाला का जप है । यह दो प्रकार से होता है –
एक तो अँगुलियों से ही गिनना और दूसरा अँगुलियों के पर्वों पर गिनना । शास्त्रतः दूसरा प्रकार ही स्वीकृत है । इसका नियम यह है कि अनामिका के मध्यभाग से नीचे की ओर चले, फिर कनिष्ठा के मूल से अग्रभाग तक और फिर अनामिका तथा मध्यमा के अग्रभाग पर होकर तर्जनी के मूल तक जाए । इस क्रम में अनामिका के दो, कनिष्ठा के तीन, पुनः अनामिका का एक, मध्यमा का एक और तर्जनी के तीन पर्व – कुल दस संख्या होती है । मध्यमा के दो पर्व सुमेरु के रुप में छूट जाते हैं । साधारणतः करमाला का यही क्रम है, किन्तु अनुष्ठान भेद से इसमें अन्तर भी पड़ता है । जैसे शक्ति के अनुष्ठान में अनामिका के दो पर्व, कनिष्ठा के तीन, पुनः अनामिका का अग्रभाग एक, मध्यमा के तीन और तर्जनी का एक मूल पर्व-इस प्रकार दस संख्या पूरी होती है । श्रीविद्या में इससे भिन्न नियम है । मध्यमा का मूल एक, अनामिका का मूल एक, कनिष्ठा के तीन, अनामिका और मध्यमा के अग्रभाग एक-एक और तर्जनी के तीन – इस प्रकार दस संख्या पूरी होती है ।
कर-माला से जप करते समय अँगुलियाँ अलग-अलग नहीं होनी चाहिए । थोड़ी-सी हथेली मुड़ी रहनी चाहिए । मेरु का उल्लंघन और पर्वों की सन्धि (गाँठ) – का स्पर्श निषिद्ध है । हाथ को हृदय के सामने लाकर, अँगुलियों को कुछ टेढ़ी करके वस्त्र से उसे ढककर दाहिने हाथ से ही जप करना चाहिये । जप अधिक संख्या में करना हो, तो इन दशकों को स्मरण नहीं रखा जा सकता । इसलिये उनको स्मरण करने के लिये एक प्रकार की गोली बनानी चाहिये । लाक्षा, रक्त-चन्दन, सिन्दूर और गौ के सूखे कण्डे को चूर्ण करके सबके मिश्रण से चह गोली तैयार करनी चाहिये । अक्षत, अँगुली, अन्न, पुष्प, चन्दन अथवा मिट्टी से उन दशकों का स्मरण निषिद्ध है । माला की गिनती भी इनके द्वारा नहीं करनी चाहिये ।

वर्ण-मालाः-
अक्षरों के द्वारा संख्या करना । यह प्रायः अन्तर्जप में काम आती है, परन्तु बहिर्जप में भी इसका निषेध नहीं है । वर्ण-माला के द्वारा जप करने का प्रकार यह है कि पहले वर्णमाला का एक अक्षर बिन्दु लगाकर उच्चारण कीजिये और फिर मन्त्र का – इस क्रम में अ-वर्ग के सोलह ( अ आ इ ई उ ऊ ऋ ॠ लृ ॡ ए ऐ ओ औ अं अः ) क-वर्ग से प-वर्ग तक के पच्चीस (क ख ग घ ङ च छ ज झ ञ ट ठ ड ढ ण त थ द ध न प फ ब भ म ) और य-वर्ग के ह-कार तक आठ ( य र ल व श ष स ह ) और ळ-कार एक ( ळ ) । इस प्रकार पचास की गिनती होती है । “क्ष” को सुमेरु माते हैं, इसका उल्लंघन नहीं करते हुए पुनः ळ-कार से विपरित गिनते हुए सौ तक की गिनती होती है । संस्कृत में ‘त्र’ और ‘ज्ञ’ स्वतन्त्र अक्षर नहीं, संयुक्ताक्षर माने जाते हैं । इसलिये उनकी गणना नहीं होती । वर्ग भी सात नहीं, आठ माने जाते हैं । आठवाँ श-कार से प्रारम्भ होता है । इनके द्वारा ‘अं कं चं टं तं पं यं शं’ यह गणना करके आठ बार और जपना चाहिये – ऐसा करने से जप संख्या १०८ हो जाती है ।
ये अक्षर तो माला के मणि है । इनका सूत्र है कुण्डलिनी शक्ति । वह मूलाधार से आज्ञा-चक्र-पर्यन्त सूत्र-रुप से विद्यमान है । उसीमें ये सब स्वर-वर्ण मणि-रुप से गुथे हुए हैं । इन्हीं के द्वारा आरोह और अवरोह क्रम से जप करना चाहिये । इस प्रकार जो जप होता है, वह सद्यः सिद्धि-प्रद होता है ।

वर्ण-माला में जप की विधि के उदाहरण –
नवाक्षर गणपति-विद्या का जप
अर्द्ध-नारीश्वर-चिन्तामणि-मन्त्र-साधना

मणि-मालाः-
जिन्हें अधिक संख्या में जप करना हो, उन्हें तो मणि-माला रखना अनिवार्य है । मणि (मनिया) पिरोये होने के कारण इसे मणि-माला कहते हैं । यह माला रुद्राक्ष, तुलसी, शंख, पद्म-बीज, जीव-पुत्रक, मोती, स्फटिक, मणि, रत्न, सुवर्ण, मूँगा, चाँदी, चन्दन और कुश-मूल आदि से बनायी जा सकती है । इनमें वैष्णवों के लिये तुलसी और स्मार्त, शैव, शाक्त आदि के लिये रुद्राक्ष सर्वोत्तम माना गया है । माला बनाने में इतना ध्यान रखना चाहिये कि एक चीज की माला में दूसरी चीज न लगायी जाये । विभिन्न कामनाओं तथा आराध्य के अनुसार मालाओं में भेद होता है, उनका विचार कर लेना चाहिये । माला के मणि (दाने) छोटे-बड़े न हों । १०८ दानों की माला सब प्रकार के जपों में काम आती है । ब्राह्मण-कन्याओं के द्वारा निर्मित सूत से माला बनायी जाये तो सर्वोत्तम है । शान्ति-कर्म में श्वेत, वशीकरण में रक्त, अभिचार में कृष्ण और मोक्ष तथा ऐश्वर्य के लिये रेशमी-सूत की माला विशेष उपयुक्त है । ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों के लिये क्रमशः श्वेत, रक्त, पीत और कृष्ण वर्ण के सूत्र श्रेष्ठ हैं । रक्त-वर्ण का प्रयोग सब वर्णों खे लोग सब प्रकार के अनुष्ठान में कर सकते हैं । सूत को तिगुना करके फिरसे तिगुना का देना चाहिये । प्रत्येक मणि गूँथते समय प्रणव के साथ एक-एक अक्षर का उच्चारण करते जाना चाहिये यथा – “ॐ अं” कहकर प्रथम मणि तो “ॐ आं” कहकर दूसरी मणि । बीच में जो गाँठ देते हैं, वह दे सकते हैं तथा नहीं भी । माला गूँथने का मन्त्र अपना इष्ट-मन्त्र भी है । अन्त में ब्रह्म-ग्रन्थि देकर सुमेरु गूँथे और पुनः ग्रन्थि लगावे । स्वर्ण आदि के सूत्र से भी माला पिरोयी जा सकती है । रुद्राक्ष के दानों में मुख और पुच्छ का भेद भी होता है । मुख कुछ ऊँचा होता है और पुच्छ नीचा । पोहने के समय यह धऽयान रखना चाहिये कि दानों का मुख परस्पर में मिलता जाय अथवा पुच्छ । गाँठ देनी हो, तो तीन फेरे की अथवा ढाई फेरे की लगानी चाहिये । ब्रह्म-ग्रन्थि भी लगा सकते हैं । इस प्रकार माला का निर्माण करके उसका संस्कार करना चाहिये ।
पीपल के नौ पत्ते लाकर एक को बीच में और आठ को अगल-बगल इस ढंग से रके कि वह अष्ट-दल कमल-सा मालूम हो । बीचवाले पत्ते पर माला रखे और ‘ॐ अं आं इं ईं उं ऊं ऋं ॠं लृं ॡं एं ऐं ओं औं अं अः कं खं गं घं ङं चं छं जं झं ञं टं ठं डं ढं णं तं थं दं धं नं पं फं बं भं मं यं रं लं वं शं षं सं हं ळं क्षं’ का उच्चारण करके पञ्च-गव्य के द्वारा उसका प्रक्षालन करे और फिर ‘सद्योजात’ मन्त्र पढ़कर पवित्र-जल से उसको धो दें । सद्योजात-मन्त्र – ‘ॐ सद्योजातं प्रपद्यामि सद्योजाताय वै नमो नमः । भवे भवे नातिभवे भवस्व मां भवोद्भवाय नमः ।’
इसके पश्चात् वामदेव-मन्त्र से चन्दन, अगर, गन्ध आदि के द्वारा घर्षण करे । वामदेव-मन्त्र – “ॐ वामदेवाय नमो ज्येष्ठाय नमः श्रेष्ठाय नमो रुद्राय नमः, कालाय नमः, कल-विकरणाय नमो बलाय नमो बल-प्रमथनाय नमः सर्व-भूत-दमनाय नमो मनोन्मनाय नमः ।”
तत्पश्चात् ‘अघोर-मन्त्र’ से धूप-दान करे – ‘ॐ अघोरेभ्योऽथ-घोरेभ्यो घोर-घोरतरेभ्यः । सर्वेभ्यः सर्वशर्वेभ्यो नमस्तेऽअस्तु रुद्ररुपेभ्यः ।’
तदनन्तर ‘तत्-पुरुष-मन्त्र’ से लेपन करे – “ॐ तत्पुरुषाय विद्महे महा-देवाय धीमहि । तन्नो रुद्रः प्रचोदयात् ।”
इसके पश्चात् एक-एक दाने पर एक-एक बार या सौ-सौ बार ‘ईशान-मन्त्र’ का जप करना चाहिये – ‘ॐ ईशानः सर्वविद्यानामीश्वरः सर्वभूतानां ब्रह्माधिपतिर्ब्रह्मणोऽधिपतिर्ब्रह्मा शिवो मे अस्तु सदा शिवोम् ।’
फिर माला में अपने इष्ट-देवता की प्राण-प्रतिष्ठा करें । तदनन्तर इष्ट-मन्त्र से सविधि पूजा करके प्रार्थना करनी चाहिये –
‘माले माले महा-माले सर्वतत्त्वस्वरुपिणि ।
चतुर्वर्गस्त्वयि न्यस्तस्तस्मान्मे सिद्धिदा भव ।।’

यदि माला में शक्ति की प्रतिष्ठा की हो तो इस प्रार्थना के पहले ‘ह्रीं’ जोड़ लेना चाहिये और रक्तवर्ण के पुष्प से पूजा करनी चाहिये । वैष्णवों के लिये माला-पूजा का मन्त्र है – ‘ॐ ऐं श्रीं अक्षमालायै नमः ।’
अ-कारादि-क्ष-कारान्त प्रत्येक वर्ण से पृथक्-पृथक् पुटित करके अपने इष्ट-मन्त्र का १०८ बार जप करना चाहिये । इसके पश्चात् १०८ आहुति हवन करे अथवा २१६ बार इष्ट-मन्त्र का जप कर ले । उस माला पर दूसरे मन्त्र का जप न करे । प्रार्थना करें –
‘ॐ त्वं माले सर्वदेवानां सर्व-सिद्धि-प्रदा मता ।
तेन सत्येन मे सिद्धिं देहि मातर्नमोऽस्तु ते ।।’
माला को गुप्त रखना चाहिये । अंगुष्ठ और मध्यमा के द्वारा जप करना चाहिये और तर्जनी से माला का कभी स्पर्श नहीं करना चाहिये ।

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