देवर्षि नारद

मङ्ल-मूर्ति नारदजी श्रीभगवान् ‌के मन के अवतार हैं । कृपा-मय प्रभु जो कुछ करना चाहते हैं, सर्वज्ञ और सर्वदर्शी वीणा-पाणि नारदजी के द्वारा वैसी ही चेष्टा होती है ।
श्रीमद्भागवतमें कहा गया है –
तृतीयमृषिसर्गं च देवर्षित्वमुपेत्य स: ।
तन्त्रं सात्वतमाचष्ट नैष्कर्म्यं कर्मणां यत: ।।
(१ । ३ । ८)

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“ऋषियों की सृष्टि में उन्होंने देवर्षि नारद के रूप में तीसरा अवतार ग्रहण किया और सात्वत-तन्त्र का (जिसे ‘नारद-पञ्च-रात्र’ कहते हैं ) उपदेश किया; उसमें कर्मों के द्वारा किस प्रकार कर्म-बन्धन से मुक्ति मिलती है, इसका वर्णन है ।”

नारद जी के बारे में ब्रह्म-वैवर्त्त-पुराण में उनके पुनर्जन्म की कथा प्रचलित है।

जब ब्रह्माजी सृष्टि-रचना को उद्यत हुए तब समयानुसार उनके कण्ठ देश से नारद प्रकट हुए । विधाता ने अपने पुत्रों को सृष्टि करने की आज्ञा दी, तो नारदजी ने वैराग्य त्याग कर प्रजा उत्पत्ति के प्रति विरक्ति प्रकट की इससे क्रुद्ध होकर ब्रह्माजी ने नारद को ‘उपबर्हण’ नामक गंधर्व होने का शाप दिया प्रत्युत्तर में नारदजी ने भी ब्रह्माजी को अपूज्यता का शाप दे दिया ।

उक्त शाप के कारण नारदजी गंधर्वराज के पुत्र के रुप में ‘उपबर्हण’ (उप – अधिक, बर्हण – पूज्य) नामक पुत्र हुए । उपबर्हण का विवाह ‘चित्ररथ’ गन्धर्व की ‘मालावती’ से हुआ था।

एक बार जब ब्रह्मा की सेवा में अप्सराएं और गंधर्व गीत और नृत्य से जगत्सृष्टा की आराधना कर रहे थे, तब रम्भा को नृत्य करते देख उपबर्हण के मन में वासना जाग उठी और उनका वीर्य स्खलित हो गया । उपबर्हण का यह अशिष्ट आचरण देख कर ब्रह्मा कुपित हो गये और उन्होंने उसे ‘शूद्र योनि’ में जन्म लेने का शाप दे दिया। तब समायानुसार उपबर्हण गन्धर्व-शरीर त्याग कर दिया तथा सती कलावती ने पुष्कर तीर्थ में अग्निकुण्ड में अपने प्राणों का परित्याग कर दिया । वह साध्वी मनुवंशी राजा ‘सृंजय’ की पत्नी से उत्पन्न हुई ।

गोपराज ‘द्रुमिल‘ की पत्नी कलावती ने मुनिवर कश्यप के स्खलित शुक्र को धारण कर लिया, इससे उसको पुत्र की प्राप्ति हुई । द्रुमिल के शरीर त्यागोपरांत शोकविह्वला कलावती को अपनी माता कहकर एक ब्राह्मण उसे अपने घर ले गया । जहाँ कलावती ने अत्यन्त सुन्दर शिशु को कन्म दिया । उस बालक को पुर्वजन्म में वशिष्ठजी द्वारा दिये गये श्रीकृष्ण के द्वादशाक्षर मन्त्र – “ॐ नमो नमस्ते रासमण्डलेशाय स्वाहा ।।”
तथा स्तोत्र, ‘ब्रह्माण्ड-पावन’ कवच आदि का स्मरण रहता था । अतः वह निरन्तर श्रीकृष्ण के नाम, यश और गुण आदि का गान किया करता था ।

अनावृष्टि के अन्त में वह बालक उत्पन्न हुआ था । अतः जन्मकाल में जगत को ‘नार’ (जल) प्रदान किया। इसीसे उसका नाम “नारद” हुआ। पूर्वजन्म की बातों को स्मरण रखनेवाला वह महाज्ञानी बालक दूसरे बालकों को नार अर्थात् ज्ञान देता था इसलिये भी नारद नाम से विख्यात हुआ। वह मुनीन्द्र नारद से ही उत्पन्न हुआ था, इस कारण भी उसका नाम नारद रखा गया। धर्मपुत्र मुनिवर नरने पुत्रहीन ब्राह्मण काश्यप को पुत्र प्रदान किया था, अतः नर-प्रदत्त होने के कारण भी उसका नाम नारद हुआ।

उस गोपी का बालक ब्राह्ण घर में प्रतिदिन बढ़ने और हृष्ट-पुष्ट होने लगा । इसी बीच में कुछ महातेजस्वी ब्राह्मण, जो देखने में पाँच वर्ष के बालकों की भाँति जान पड़ते थे, उस ब्राह्मण के घर आये । भोजन के समय उन चारों मुनिवरों ने ब्राह्मण के दिये फल-मूल आदि का आहार ग्रहण किया । उनकी जूँठन उस शिशु ने खायी तथा उनमें से इकज ब्राह्मण ने उस बालक को बाईस अक्षर वाले श्रीकृष्ण मन्त्र का उपदेश किया ।

मन्त्रः- “ॐ श्रीं नमो भगवते रासमण्डलेशाय श्रीकृष्णाय स्वाहा ।।”

माता की सर्प-दंश से मृत्योपरान्त वह बालक उन ब्राह्मणों के साथ चल दिया जहाँ उसे तत्त्व-ज्ञान मिला । इसके उपरान्त उक्त चारों ब्राह्मणों के चले जाने के उपरान्त वह बालक गंगाजी के तट पर एक हजार दिव्य वर्षों तक बिना कुछ खाये-पीये ध्यान में बैठा रहा । ध्यान में श्रीकृष्ण की छवि देखकर ध्यान से विरत हो गया । ध्यान टूटने पर जब फिर वह उनका दर्शन न कर सका तब शोक से पीड़ित हो रोने लगा । तब उस बाक को सम्बोधित करके आकाशवाणी हुई, जिसके अनुसार इस शरीर के अन्त होने के पश्चात् प्राप्त होने वाले दिव्य शरीर को गोविन्द का दर्शन प्राप्त होगा। समय आने पर श्रीकृष्ण का स्मरण करते हुए तीर्थभूमि में अपने शरीर का त्याग किया । तदनन्तर कुछ कल्प व्यतीत होने पर ब्रह्माजी पुनः सृष्टि कार्य में संलग्न हुए, तब उनके ‘नरद’ नामक कण्ठदेश से ‘मरीचि’ आदि मुनियों के साथ वे शापमुक्त मुनि प्रकट हुए ।

परम तपस्वी और ब्राह्म-तेज से सम्पन्न नारदजी अत्यन्त सुन्दर हैं । उनका वर्ण गौर है । उनके मस्तक पर शिखा सुशोभित है । अत्यन्त कान्तिमान् नारदजी देवराज इन्द्र के दिये हुए दो उज्जल, महीन, दिव्य, शुभ और बहुमूल्य वस्त्र धारण करते हैं । वेद और उपनिषदों के ज्ञाता, देवताओं द्वारा पूजित, पूर्व-कल्पों की बातों के जानकार, महा-बुद्धिमान् और असंख्य सद्गुणों से सम्पन्न महा-तेजस्वी नारदजी भगवान् पद्म-योनि से प्राप्त वीणा की मनोहर झंकृति के साथ दयामय भगवान्‌ के मधुर, मनोहर एवं मङ्गलमय नाम और गुणों का गान करते हुए लोक-लोकान्तरों में विचरण किया करते हैं । मुक्ति की इच्छा रखने वाले साधु पुरुषोंके हित के लिये नारदजी सतत प्रयत्नशील रहते हैं । वे सचल कल्प-वृक्ष हैं । वे स्वयं अपने मुखारविन्द से कहते हैं –

प्रगायत: स्ववीर्याणि तीर्थपाद: प्रियश्रवा: ।
आहूत इव मे शीघ्रं दर्शनं याति चेतसि ।।

(श्रीमद्भागवत १।६।३४)

‘जब मैं उनकी लीलाओं का गान करने लगता हूँ तब वे प्रभु जिनके चरण-कमल समस्त तीर्थों के उङ्गम-स्थान हैं और जिनका यशोगान मुझे बहुत ही प्रिय लगता है, बुलाये हुए की भांति तुरन्त मेरे हृदय में आकर दर्शन दे देते हैं ।’

कृपाकी मूर्ति नारदजी वेदान्त, योग, ज्यौतिष, आयुर्वेद एवं संगीत आदि अनेक शास्त्रों के आचार्य हैं और भक्ति के तो वे मुख्याचार्य हैं । उनका पञ्चरात्र भागवत-मार्ग का प्रधान ग्रन्थ-रत्न है । प्राणिमात्र की कल्याण-कामना करने वाले नारदजी श्रीहरि के मार्ग पर अग्रसर होने की इच्छा रखने वाले प्राणियों को सहयोग देते रहते हैं । मुमुक्षुओं का मार्गदर्शन उनका प्रमुख कर्तव्य है । उन्होंने त्रैलोक्य में कितने प्राणियों को किस प्रकार परम प्रभुके पावन पद-पद्मों में पहुँचा दिया, इसकी गणना सम्भव नहीं ।

बालक प्रह्लाद की दृढ़ भक्ति से भगवान् नृसिंह अवतरित हुए । प्रह्लाद के इस भगवद्विश्वास एवं प्रगाढ़ निष्ठा में भगवान् नारद ही मुख्य हेतु थे । उन्होंने गर्भस्थ प्रह्लाद को लक्ष्य करके उनकी माता दैत्येश्वरी ‘कयाधू’ को भक्ति और ज्ञान का उपदेश दिया । प्रह्लादजी का वही ज्ञान उनके जीवन और जन्म को सफल करने में हेतु बना । इसी प्रकार पिता के तिरस्कार से क्षुब्ध ध्रुवकुमार के वन-गमन के समय नारदजीने उन्हें भगवान् वासुदेव का मन्त्र दिया तथा उन्हें उपासना की पद्धति भी विस्तारपूर्वक बतायी ।

जब दक्ष प्रजापति ने ‘प्रञ्चजन’ की पुत्री ‘असिक्री’ से ‘ हर्यश्व ‘ नामक दस सहस्र पुत्र उत्पन्न कर उन्हें सृष्टि – विस्तार का आदेश दिया और एतदर्थ वे पश्चिम दिशा में सिन्धु नदी और समुद्र के संगम पर स्थित पवित्र नारायण-सर पर तपश्चरण करने पहुँचे, तब नारदजी ने अपने अमृतमय उपदेश से उन सबको विरक्त बना दिया । दक्ष प्रजापति बड़े दुःखी हुए । उन्होंने फिर ‘ शबलाश्व ‘ नामक एक सहस्र पुत्र उत्पन्न किये । नारदजी ने कृपापूर्वक उन्हें भी श्रीभगवच्चरणारविन्दों की ओर उन्मुख कर दिया । फिर तो अत्यन्त कुद्ध होकर प्रजापति दक्ष ने अजातशत्रु नारदजी को शाप दे दिया – ‘ तुम लोक-लोकान्तरों में भटकते ही रहोगे । ‘ साधु-शिरोमणि नारदजी ने इसे प्रभु की मङ्गलमयी इच्छा समझ कर दक्ष का शाप स्वीकार कर लिया ।

जब वेदों का विभाग तथा पञ्चम वेद महाभारत की रचना कर लेने पर भी श्रीव्यासजी अपने को अपूर्णकाम अनुभव करते हुए खिन्न हो रहे थे, तब दयापरवश श्रीनारदजी उनके समीप पहुँच गये और व्यासजी के पूछने पर उन्होंने बताया – ‘ व्यासजी! आपने भगवान् ‌के निर्मल यश का गान प्राय: नहीं किया । मेरी ऐसी मान्यता है कि वह शास्त्र या ज्ञान सर्वथा अपूर्ण है, जिससे जगदाधार स्वामी संतुष्ट न हों । वह वाणी आदर के योग्य नहीं, जिसमें श्रीहरि की परम-पावनी कीर्ति वर्णित न हो । वह तो कौओं के लिये उच्छिष्ट फेंकने के स्थान के समान अपवित्र है । उसके द्वारा तो मूर्ख कामुक व्यक्तियों का ही मनोरञ्जन हो सकता है । मानस-सर के कमल-वन में विहार करने वाले राजहंसों के समान ब्रह्म-धाम में विहार करनेवाले भगवच्चरणारविन्दाश्रित परमहंस भक्तों का मन उसमें कैसे रम सकता है । ‘ विद्वान् पुरुषोंने निर्णय किया है कि मनुष्यकी तपस्या, वेदाध्ययन, यज्ञानुष्ठान एवं समस्त धर्म-कर्मों की सफलता इसी में है कि पुण्यकीर्ति श्रीप्रभु की कल्याणमयी लीलाओं का गान किया जाय । अतएव-

त्वमप्यदभ्रश्रुत विश्रुतं विभोः समाप्यते येन विदां बुभुत्सितम् ।
आख्याहि दु:खैर्मुहुरर्दितात्मनां संक्लेशनिर्वाणमुशन्ति नान्यथा ।।

(श्रीमद्भा॰ १ । ५ । ४०)

‘ व्यासजी! आपका ज्ञान पूर्ण है; आप भगवान्‌ की ही कीर्ति का – उनकी प्रेम-मयी लीला का वर्णन कीजिये । उसी से बड़े-बड़े ज्ञानियों की भी जिज्ञासा पूर्ण होती है । जो लोग दुःखों के द्वारा बार-बार रौंदे जा रहे हैं, उनके दुःख की शान्ति इसी से हो सकती है । इसके सिवा उनका और कोई उपाय नहीं है । ‘

जब दुर्योधन के छल और कुटिल नीति से सहृदय पाण्डवों ने अरण्यके लिये प्रस्थान किया, उस समय भरतवंशियों के विनाश-सूचक अनेक प्रकार के भयानक अपशकुन होने लगे । चिन्तित होकर इस सम्बन्ध में धृतराष्ट्र और विदुर परस्पर बातचीत कर ही रहे थे कि उसी समय महर्षियों से घिरे भगवान् नारद कौरवों के सामने आकर खड़े हो गये और सुस्पष्ट शब्दों में उन्होंने भविष्यवाणी करते हुए कहा-

इतश्चतुर्दशे वर्षे विनक्ष्यन्तीह कौरवा: ।
दुर्योधनापराधेन भीमार्जुनबलेन च ।।

(महा॰, सभा॰ ८० । ३४)

‘ आज से चौदहवें वर्ष में दुर्योधन के अपराध से भीम और अर्जुन के पराक्रम द्वारा कौरव-कुल का नाश हो जायगा । ‘

इतना कहकर महान् ब्रह्म-तेज-धारी नारदजी आकाश में जाकर सहसा अन्तर्धान हो गये ।

सर्वोच्च ज्ञानके परमपावन विग्रह श्रीशुकदेवजी को उपदेश देते हुए महामुनि नारदजी ने कहा था-

सर्वे क्षयान्ता निचया: पतनान्ताः समुच्छ्रया: ।
संयोगा विप्रयोगान्ता मरणान्तं हि जीवितत् ।।
अध्यात्मरतिरासीनो निरपेक्षो निरामिष: ।
आत्मनैव सहायेन यश्चरेत् स सुखी भवेत्।।

(महा॰ शान्ति॰ ३३०।२०,३०)

‘ संग्रह का अन्त है विनाश । ऊँचे चढ़ने का अन्त है नीचे गिरना । संयोग का अन्त है वियोग और जीवन का अन्त है मरण । ‘
‘ जो अध्यात्म-विद्या में अनुरक्त, कामनाशून्य तथा भोगासक्ति से दूर है, जो अकेला ही विचरण करता है, वही सुखी होता है ।’

जब अविनाशी नारायण और नर बदरिकाश्रम में घोर तप करते हुए अत्यन्त दुर्बल हो गये थे और उन परम तेजस्वी प्रभु का दर्शन अत्यन्त दुर्लभ था, उस समय नारदजी महामेरु पर्वत से गन्धमादन पर्वत पर उतर गये और जब भगवान् नर और नारायण के समीप पहुँचे, तब उन्होंने शास्त्रीय विधि से नारदजी की पूजा की । नारदजी ने उनसे अनेक भगवत्सम्बन्धी प्रश्नों का तृप्तिकर उत्तर प्राप्त किया और फिर उनकी अनुमति से श्वेतद्वीप में पहुँचकर श्रीभगवान्‌ के विश्वरूप का दर्शन-लाभ कर पुन: गन्धमादन पर्वत पर श्रीनर-नारायणके समीप चले आये । नारदजी ने भगवान् नर-नारायण को सारा वृत्तान्त सुनाया और उनके समीप दस सहस्र दिव्य वर्षों तक रहकर वे भजन एवं मन्त्रानुष्ठान करते रहे ।
स्कन्दपुराण में इन्द्रकृत श्रीनारदजीकी एक अत्यन्त सुन्दर स्तुति है । उसके सम्बन्ध में एक बार भगवान् श्रीकृष्णने नारदजीके गुणोंकी प्रशंसा करते हुए राजा उग्रसेन से कहा था कि ‘ मैं देवराज इन्द्र द्वारा किये गये स्तोत्र से दिव्य-दृष्टि-सम्पन्न श्रीनारदजी की सदा स्तुति किया करता हूँ । वह स्तोत्र श्रवण कीजिये –

“जो ब्रह्माजी की गोद से प्रकट हुए है, जिनके मन में अहङ्कार नहीं है, जिनका विश्वविख्यात चरित्र किसी से छिपा नहीं है, उन देवर्षि नारद को मैं नमस्कार करता हूँ । जिनमें अरति ( उद्वेग ), क्रोध, चपलता और भय का सर्वथा अभाव है, जो धीर होते हुए भी दीर्घसूत्री (किसी कार्य में अधिक विलम्ब करने वाले) नहीं हैं, उन नारदजी को मैं प्रणाम करता हूँ । जो कामना अथवा लोभवश झूठी बात मुँह से नहीं निकालते और समस्त प्राणी जिनकी उपासना करते हैं, उन नारदजी को मैं नमस्कार करता हूँ । जो अध्यात्म-गति के तत्त्वको जानने वाले, ज्ञान-शक्ति-सम्पन्न तथा जितेन्द्रिय हैं, जिनमें सरलता भरी है तथा जो यथार्थ बात कहने वाले हैं, उन नारदजी को मै प्रणाम करता हूँ । जो तेज, यश, बुद्धि, नय, विनय, जन्म तथा तपस्या सभी दृष्टियों से बड़े हुए हैं, उन नारदजी को मैं नमस्कार करता हूँ ।

जिनका स्वभाव सुखमय, वेष सुन्दर तथा भोजन उत्तम है; जो प्रकाशमान, पवित्र, शुभ-दृष्टि-सम्पन्न तथा सुन्दर वचन बोलने वाले हैं; उन नारदजी को मैं प्रणाम करता हूँ । जो उत्साह-पूर्वक सबका कल्याण करते हैं, जिनमें पाप का लेश भी नहीं है तथा जो परोपकार करने से कभी अघाते नहीं हैं, उन नारदजी को नमस्कार करता हूँ । जो सदा वेद, स्मृति और पुराणों में बताये हुए धर्म का आश्रय लेते हैं तथा प्रिय और अप्रिय से रहित हैं, उन नारदजी को प्रणाम करता हूँ । जो समस्त सङ्गों से अनासक्त हैं, तथापि सबमें आसक्त हुए-से दिखायी देते हैं, जिनके मन में किसी संशय के लिये स्थान नहीं है, जो बड़े अच्छे वक्ता हैं, उन नारदजी को मैं नमस्कार करता हूँ ।

जो किसी भी शास्त्र में दोष-दृष्टि नहीं करते, तपस्या का अनुष्ठान ही जिनका जीवन है, जिनका समय कभी भगवचिन्तन के बिना व्यर्थ नहीं जाता और जो अपने मन को सदा वश में रखते हैं, उन श्रीनारदजी को मै प्रणाम करता हूँ । जिन्होंने तप के लिये श्रम किया है, जिनकी बुद्धि पवित्र एवं वशमें है, जो समाधि से कभी तृप्त नहीं होते, अपने प्रयत्न में सदा सावधान रहने वाले उन नारदजी को मैं नमस्कार करता हूँ । जो अर्थ-लाभ होने से हर्ष नहीं मानते और लाभ न होने पर मन में क्लेश का अनुभव नहीं करते, जिनकी बुद्धि स्थिर तथा आत्मा अनासक्त है, उन नारदजी को नमस्कार करता हूँ । जो सर्व-गुण-सम्पन्न, दक्ष, पवित्र, कातरता-रहित, कालज्ञ और नीतिज्ञ है, उन देवर्षि नारदको मैं भजता हूँ ।

नारदजी के इस स्तोत्र का में नित्य जप करता हूँ । इससे वे मुनि-श्रेष्ठ मुझ पर अधिक प्रेम रखते हैं । दूसरा कोई भी यदि पवित्र होकर प्रतिदिन इस स्तुति का पाठ करे तो देवर्षि नारद बहुत शीघ्र उस पर अपना अतिशय कृपा-प्रसाद प्रकट करते हैं ।”

सर्व-सुहृद् श्रीनारदजी ही एकमात्र ऐसे हैं, जिनका सभी देवता और दैत्यगण समानरूप से सम्मान एवं विश्वास करते हैं, उन्हें अपना शुभैषी समझते हैं और निश्चय ही वे दयामय सबके यथार्थ हित-साधनके लिये सचिन्त और प्रयलशील रहते हैं । अब भी करुणामय प्रभुके सच्चे प्रेमी भक्तोंको उनके दर्शन हो जाते हैं ।

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