नव-पत्रिका-पूजन

बिल्वनिमन्त्रण –
आश्विन शुक्ल षष्ठी को प्रातः-कृत्यादि करके देवी का पूजन करे और यदि ज्येष्ठा हो तो उनकी पूजा के लिये बिल्व-वृक्ष को निमन्त्रित करें।

बिल्व-सप्तमी –
durgaइसमें सूर्योदय-संयुक्त परा तिथि ली जाती है। आश्विन शुक्ल सप्तमी के दिन (मूल नक्षत्र हो या न हो तब भी) बिल्व (बेल) के वृक्ष के पास जाए। वहाँ आचमन कर संकल्प-पूर्वक पञ्चोपचारों से बिल्व-वृक्ष की पूजा कर हाथ-जोड़ कर निम्न प्रार्थना कर –

ॐ बिल्व-वृक्ष महा-भाग ! सदा त्वं शंकर-प्रियः।
गृहित्वा तव शाखां च, दुर्गा-फुजां करोम्यहम् ।।
ॐ शाखोच्छेदोद्भवं दुःख, न च कार्य त्वया प्रभो !
देवैर्गृहीत्वा ते शाखां, पूज्या दुर्गेति विश्रुतिः ।।

अर्थात् हे महा-भाग बिल्व-वृक्ष ! आप सदा से शंकर के प्रिय हैं। आपकी शाखा को लेकर में दुर्गा की पूजा करता हूँ । हे प्रभो ! शाखा के तोड़ने से होने वाले कष्ट का दुःख आप न करें, क्योंकि देवता भी आपकी शाखा लेकर दुर्गा की पूजा करते है, ऐसी ख्याति है।
उक्त प्रार्थना कर खड्ग से एक ऐसी शाखा को, जिसमें दो फल लगे हों, निम्न मन्त्र से काटे –

“ॐ छिन्दि छिन्दि फट् फट् स्वाहा ।”

इस शाखा में नव-पत्रिकाओं ( केला, अरबी, हल्दी, जयन्ती या जैती, बिल्व, अनार, अशोक, मानक या मानकच्चू तथा धान की पत्तियाँ) को बाँधे। सप्तमी के पहले ही अर्थात् षष्ठी के दिन सायं-काल एक छोटे केले के पौधे में अन्य आठ पौधों की शाखाओं को लपेटकर बिल्व-वृक्ष के पास रख देना चाहिए।

‘नव-पत्रिका’ – युक्त बिल्व-शाखा को, सम्भव हो, तो ले जाकर गंगाजी में विधि-पूर्वक स्नान कराए अथवा पूजा-गृह के आँगन में ही स्नान करा कर उसका पूजन करे और साड़ी तथा सिन्दूर आदि से सुशोभित कर गणेशजी की मूर्ति के दाहिनी ओर स्थापित करे।

पूजा-गृह में ‘नव-पत्रिका’ को ले जाने के पूर्व निम्न-मन्त्रों को पढ़े –

ॐ पुत्रायुर्धन-वृद्धयर्थं, नेष्यामिचण्डिकाऽऽलयम् ।
बिल्व-शाखां समाश्रित्य, लक्ष्मी-राज्यं प्रयच्छ मे ।।
ॐ आगच्छ चण्डिके देवि ! सर्व-कल्याण-हेतवे ।
पूजां गृहाण सु-मुखि ! नमस्ते शंकर-प्रिये ! ।।

अब उसे स्नान कराने के पूर्व ‘ॐ नव-पत्रिका-वासिन्यै दुर्गायै नमः’ मन्त्र से उसकी पूजा करे। फिर निम्न मन्त्रों से उसे स्नान कराए –

ॐ कदली-तरु-संस्थाऽसि, विष्णोर्वृक्षः-स्थलाशऽरये !
नमस्ते नव-पत्रि ! त्वं, नमस्ते चण्ड-नायिके ! ।।
ॐ कच्चि ! त्वं स्थावरस्थाऽसि, सदा सिद्धि-प्रदायिनी ।
दुर्गा-रुपेण सर्वत्र, स्नानेन विजयं कुरु ।।
ॐ हरिद्रे ! हर-रुपाऽसि, शंकरस्य सदा प्रिये !
रुद्र-रुपेण देवि ! त्वं, सर्व-शान्तिं प्रयच्छ मे ।।
ॐ जयन्ति ! जय-रुपाऽसि। जगतां जय-कारिणि !
स्नापयामीह देवि ! त्वं, जयं देहि गृहे मम ।।
ॐ श्रीफल ! श्री-निकेतोऽसि, सदा विजय-वर्धन !
देहि मे हित-कामांश्च, प्रसन्नो भव सर्वदा ।।
ॐ दाडिम्यघ-विनाशाय, क्षुन्नाशाय सदा भुवि ।
निर्मिता फल-कामाय, प्रसीद त्वं हर-प्रिये ! ।।
ॐ स्थिरा भव सदा दुर्गे ! अशोके शोक-हारिणि !
मया त्वं पूजिता दुर्गे ! मामशोक सदा कुरु ।।
ॐ मानो ! मान्येषु वृक्षेषु, माननीयः सुरासुरैः ।
स्त्रापयामि महा-देवि ! मानं देहि नमोऽस्तु ते ।।
ॐ लक्ष्मीः ! त्वं धान्य-रुपाऽसि, प्राणिनां प्राण-दायिनि !
स्थिरात्यन्तं हि नो भूत्वा, गृहे काम-प्रदा भव ।।

इसके बाद निम्न मन्त्रों से पञ्चोपचारों से प्रत्येक वृक्ष की अलग-अलग पूजा कर प्रणाम-मन्त्रों से प्रत्येक को नमस्कार करे –

१॰ ॐ रम्भाऽधिष्ठात्रि ब्रह्माणि ! इहागच्छ इहागच्छ, इह तिष्ठ इह तिष्ठ, इह सन्निधेहि इह सन्निधेहि, इह सन्निरुद्धस्व इह सन्निरुद्धस्व, इह सम्मुखी-कृता भव । ॐ रम्भाऽधिष्ठात्र्यै ब्रह्माण्यै नमः गन्धं समर्पयामि इत्यादि ।

ॐ दुर्गे देवि ! समागच्छ, सान्निध्यमिह कल्पय ।
रम्भा-रुपेण सर्वत्र, शान्तिं कुरु नमोऽस्तु ते ।।

२॰ ॐ कच्व्यधिष्ठात्रि कालिके ! इहागच्छ इहागच्छ, इह तिष्ठ इह तिष्ठ, इह सन्निधेहि इह सन्निधेहि, इह सन्निरुद्धस्व इह सन्निरुद्धस्व, इह सम्मुखी-कृता भव । ॐ कच्व्यधिष्ठात्र्यै कालिकायै नमः गन्धं समर्पयामि इत्यादि ।

ॐ महिषासुर-युद्धेषु, कच्वी-भूताऽसि सुव्रते !
मम चानुग्रहार्थाय, आगताऽसि हरि-प्रिये ! ।।

३॰ ॐ हरिद्राऽधिष्ठात्रि दुर्गे ! इहागच्छ इहागच्छ, इह तिष्ठ इह तिष्ठ, इह सन्निधेहि इह सन्निधेहि, इह सन्निरुद्धस्व इह सन्निरुद्धस्व, इह सम्मुखी-कृता भव । ॐ हरिद्राऽधिष्ठात्र्यै दुर्गायै नमः गन्धं समर्पयामि इत्यादि ।

ॐ हरिद्रे वरदे देवि ! उमा-रुपाऽसि सुव्रते !
मम विघ्न-विनाशाय, पूजां गृह्ण प्रसीद मे ।।

४॰ ॐ जयन्त्यधिष्ठात्रि कार्तिकि ! इहागच्छ इहागच्छ, इह तिष्ठ इह तिष्ठ, इह सन्निधेहि इह सन्निधेहि, इह सन्निरुद्धस्व इह सन्निरुद्धस्व, इह सम्मुखी-कृता भव । ॐ जयन्त्यधिष्ठात्र्यै कार्तिक्यै नमः गन्धं समर्पयामि इत्यादि ।

ॐ निशुम्भ-शुम्भ-मथने ! इन्द्रैर्देव-गणै सह ।
जयन्ति ! पूजिताऽसि, त्वमस्माकं वरदा भव ।।

५॰ ॐ बिल्वाधिष्ठात्रि शिवे ! इहागच्छ इहागच्छ, इह तिष्ठ इह तिष्ठ, इह सन्निधेहि इह सन्निधेहि, इह सन्निरुद्धस्व इह सन्निरुद्धस्व, इह सम्मुखी-कृता भव । ॐ बिल्वाधिष्ठात्र्यै शिवायै नमः गन्धं समर्पयामि इत्यादि ।

ॐ महादेव-प्रिय-करो ! वासुदेव-प्रियः सदा ।
उमा-प्रीति-करो वृक्षो, बिल्व-वृक्ष ! नमोऽस्तु ते ।।

६॰ ॐ दाडिम्यधिष्ठात्रि रक्त-दन्तिके ! इहागच्छ इहागच्छ, इह तिष्ठ इह तिष्ठ, इह सन्निधेहि इह सन्निधेहि, इह सन्निरुद्धस्व इह सन्निरुद्धस्व, इह सम्मुखी-कृता भव । ॐ दाडिम्यधिष्ठात्र्यै रक्त-दन्तकायै नमः गन्धं समर्पयामि इत्यादि ।

ॐ दाडिमि ! त्वं पुरा युद्धे, रक्त-बीजस्य सम्मुखे ।
उमा-कार्य कृतं यस्मादस्माकं वरदा भव ।।

७॰ ॐ अशोकाधिष्ठात्रि शोक-रहिते ! इहागच्छ इहागच्छ, इह तिष्ठ इह तिष्ठ, इह सन्निधेहि इह सन्निधेहि, इह सन्निरुद्धस्व इह सन्निरुद्धस्व, इह सम्मुखी-कृता भव । ॐ अशोकाधिष्ठात्र्यै शोक-रहितायै नमः गन्धं समर्पयामि इत्यादि ।

ॐ हरप्रीति-करो वृक्षो ! ह्यशोकः-शोक-नाशनः ।
दुर्गा-प्रीति-करः वृक्षो, यस्मादस्माकं वरदा भव ।।

८॰ ॐ मानाधिष्ठात्रि चामुण्डे ! इहागच्छ इहागच्छ, इह तिष्ठ इह तिष्ठ, इह सन्निधेहि इह सन्निधेहि, इह सन्निरुद्धस्व इह सन्निरुद्धस्व, इह सम्मुखी-कृता भव । ॐ मानाधिष्ठात्र्यै चामुण्डायै नमः गन्धं समर्पयामि इत्यादि ।

ॐ यस्य पत्रे वसेद् देवी, मान-वृक्षः शची-प्रियः ।
मम चानुग्रहार्थाय, पूजां गृह्ण प्रसीद मे ।।

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