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श्री नाभादासजी
(गलता / रेवासा)

भक्तमाल के रचयिता परम भागवत श्री नाभादासजी का चरित्र आदि से अन्त तक सन्त-सेवा-मय है। उन्होंने जन्म से ही आँखें बन्द रखी और तब तक नहीं खोली, जब तक उनको संतों के दर्शन नहीं हुए। आजन्म संतों की सेवा की और संतों की सीध-प्रसादी का सेवन किया। उसी का चेतन संतों का ही गुणगान किया और संतों का चरित्र लिपिबद्ध कर “भक्तमाल” के रुप में भक्तों के लिए एक अमूल्य निधि छोड़ गये ।

om, ॐ

नाभाजी का जन्म वि॰सं॰ १६०० के आस-पास जयपुर राज्य के अन्तर्गत ‘धूला’ ग्राम में नगाडची राणा (ढोली) कुल में जिसे बनार वंश भी कहते हैं, में हुआ। (इनके प्रसिद्ध ग्रंथ ‘भक्तमाल’ की टीका प्रियादास जी ने संवत्‌ 1769 में, सौ वर्ष बाद, लिखी थी। इस आधार पर नाभादास का समय 17वीं शताब्दी के मध्य और उत्तरार्ध के बीच माना जाता है।)
वे जन्म के अन्धे थे । वे जब पाँच वर्ष के थे उस प्रदेश में अकाल का भीषण प्रकोप हुआ । नदी, नाले, कुवे बावडी सब सूख गये । खेत उजड़ गये । लोग दाने-दाने को मोहताज हो गये नाभाजी के माँ-बाप भूख के मारे दम तोड गये । मरने के पहले वे पाँच वर्ष के नाभाजी को वन में अकेला छोड़ गये । देवयोग से उसी समय परम-भागवत श्री कील्हदासजी और अग्रदासजी तीर्थ-यात्रा पर निकले हुए थे और उस वन के निकट एक वृक्ष की शीतल छाया मे विश्राम कर रहे थे । उनकी दृष्टि नाभाजी पर पडी ।
अग्रदासजी ने उसने पूछा – ”बेटा, तुम कौन हो?”
उसने उत्तर दिया – “मैं क्या बताऊँ, मैं कौन हूँ क्योकि शरीर पँचभूतो का संघात हे, आत्मा अलग है ।”
अग्रदास ने फिर पूछा – ‘‘तुम कहाँ से आये हो?”
उसने उत्तर दिया – “जीव का किसी निश्चित स्थान से निश्चित स्थान को आना- जाना नहीं होता वह कर्मानुसार इधर-उधर भटकता रहता है ।”
अग्रदासजी ने तीसरा प्रश्न पूछा – “तुम्हारा रक्षक कौन है?”
“जो सबका रक्षक है ।” उसने उत्तर दिया
दोनों संत दिव्य-ज्ञान सम्पन्न उस चमत्कारी बालक को देख बहुत ही प्रसन्न हुए । उसे अंधा देखकर कील्हदेव को दया आयी । उन्होने उसे गोदी में उठा लिया और अपने कमण्डलु से जल लेकर उसके मुख पर छींटा दिया । छींटा देते ही उसकी आँखें खुल गयी । आँखें खोलते ही उसने दोनों संतों के दर्शन किये । संतों ने उससे कहा – ‘‘बेटे तुमने अपने आत्मस्वरूप का परिचय तो दिया, पर देह का परिचय नहीं दिया । बताओ तुम कहाँ से आये हो, यहाँ जंगल में अकेले पड़े हो ?” तब बालक रामजी के शब्दो में उसने उत्तर दिया-
“कह मरूवास दुकाल परानां । जननी मोहि यहाँ लगि लाना ।।
अब तीज गई भूख डर चीनी । ढोली जाति हमारी डीना ।।”

तब सन्त उसे अपने साथ अपने स्थान आमेर (जंयपुर) के अन्तर्गत गलता गादी ले गये । श्री कील्हदास ने अग्रदासजी से मन्त्र दिलवाया और उसका नाम रखा “नारायणदास” ।
पाँच वर्ष के बालक नारायणदास जब काठी तिलक धारण किये हाथ में हरिनाम की माला लिये औख बन्द कर जप करने बैठते तो बरबस आश्रम के लोगों का मन अपनी ओर खींच लेते । वे कलिकाल में भक्ति का प्रचार करने के लिए आविर्भूत ध्रुव या प्रह्लाद जैसे लगते । गलता आश्रम में सन्तों का आवागमन तो लगा ही रहता । अग्रदासजी ने बालक नारायणदास को सन्तों की सेवा में लगा दिया । नारायणदास सन्त सेवा बड़े प्रेम से करते । सन्त उन्हें आशीर्वाद देते । सन्त अपना पादोदक किसी को आसानी से नहीं देते पर गुरु के आदेश से बालक नारायणदास ने सन्त पादोदक का महत्व जान लिया था । इसलिए वह प्रत्येक सन्त का पादोदक लेता । सन्त प्रसन्नतापूर्वक उसे पादोदक देते । सन्तो की सेवा करते-करते और उनकी सीध प्रसादी और चरणामृत का सेवन करते-करते वह स्वयं सन्त शिरोमणि हो गया । उसके हृदय मे प्रभा-भक्ति का दिव्य प्रकाश छा गया । इसमे आश्चर्य कुछ नहीं, क्योंकि सन्तों की सीध प्रसादी का महात्म्य ही ऐसा है ।
सन्तो की प्रसादी और गुरु-सेवा के प्रताप से नारायणदास जी ने अल्पकाल में ही वह स्थिति प्राप्त करली, जो स्वयं उनके गुरुदेव की थी । इसका प्रमाण एक दिन की विशेष घटना है । उस दिन अग्रदासजी मानसी सेवा में लीन थे । नारायणदासजी उनके पास बैठे उन्हें धीरे-धीरे पंखा झूला रहे थे । यकायक उनका ध्यान मानसी सेवा से हटकर अपने एक शिष्य कीं तरफ खिंच गया । उन्होंने देखा कि शिष्य मालसे लदा हुआ जहाज लेकर समुद्र-यात्रा कर रहा है । अचानक समुद्र आन्दोलित हो उठा है । जहाज डूबने वाला है । शिष्य उनका स्मरण कर कातरभाव से संकट से उबारने के लिए उनसे प्रार्थना कर रहा है । नारायणदासजी ने सब कुछ जान लिया । वे गुरुदेव के ध्यान में उत्पन्न हुए विक्षेप को सहन न कर सके । उन्होने उसी समय राघवेन्द्र का स्मरण कर अपने पंखे की हवा से समुद्र में फंसे जहाज को आगे ठेलते हुए कहा- ”गुरुदेव ! जहाज तो बहुत दूर निकल गया । आप युगल सरकार की सेवा में पधारें ।” यह सुन अग्रदासजी ने आश्चर्यचकित हो आँख खोलते हुए कहा- “कौन?” नारायणदासजी ने कहा – “वही आपका दास, जिसे सीध-प्रसादी देकर आपने पाला है ।”
ऐसे ही एक बार अग्रदास जी ठाकुर की मानसी सेवा कर रहे थे, नाभाजी पीछे खडे पंखा झुला रहे थे । अग्रदासजी ने ठाकुर को स्नान करा मुकुट धारण कराया उसके बाद माला पहनाने लगे तो माला छोटी पड़ गयी । नाभाजी ने कहा- ”गुरुदेव ! गाँठ खोलकर पहना दीजिये । फिर गाँठ बाँध दीजिए ।”
शिष्य की सूक्ष्म दृष्टि की थाह पाकर अग्रदासजी के आनन्द की सीमा न रही । उन्होंने उसकी पीठ ठोकी और कहा- ‘‘वत्स! तुमने मेरे नाभ (अन्तर) की बात जानली । इसलिए आज से तुम्हारा नाम “नाभा” हुआ । तुम्हारे ऊपर सन्तों की कृपा-दृष्टि हुई । अब तुम सन्तों का गुणगान करो, उनकी भवतारिणी जीवनियाँ लिखकर जीवों का उद्धार करो ।” नाभाजी ने हाथ जोड़कर कहा- ”गुरुदेव ! आप आज्ञा करें तो मैं भगवान राम-कृष्ण के चीरत्र का गान कर सकता हूँ पर सन्तों के चरित्र मैं नहीं लिख सकता, क्योंकि वे बडे रहस्यमय हैं, उनका आदि-अन्त पाना बड़ा कठिन है ।” गुरुदेव ने कहा- ”चिन्ता न करो । वही भगवान् तुम्हारे हृदय में बैठकर तुम्हें अपने और अपने भक्तों के सब रहस्य खोलकर बतायेंगे, जिन्होंने समुद्र मे जहाज दिखा दिया ।”
अग्रदासजी का आशीर्वाद “भक्तमाला” के रूप में फलीभूत हुआ । कहना कठिन है कि इसके माध्यम से नाभाजी ने कितने जीवों के डूबते हुए जहाज को बचा लिया । कुछ दिन बाद नाभाजी गलता से चले गये अपने गुरु श्री अग्रदासजी के पास उनकी सेवा मे बहुत दिन रहे । किसी समय उन्होंने वृन्दावन और अयोध्या की भी यात्रा की । जयपुर नरेश मानसिंहजी उनसे बहुत प्रभावित थे एक बार वे उन्हे अपने साथ जयपुर ले गये । उनके स्वागत में पंड़ितो की एक सभा बुलाई । पंड़ितों ने अपनी-अपनी शंकायें उनके सामने रखी । उन्होंने सहज भाव से उत्तर देकर उनका सबका समाधान किया । कुछ पंडितों ने ईर्ष्यावश जानबूझकर उनसे कठिन प्रश्न किये । उनका भी उन्होंने संतोषजनक उत्तर दे दिया । पांडित्य मे उन्हे नीचा न दिखा सके तो उनसे उनकी जाति के बारे मे प्रश्न किया । जाति तो उनकी नीची थी ही उन्होंने निःसंकोच अपनी जाति बता दी । पर भक्तों मे अनन्य श्रद्धा रखने वाले राजा मानसिंह जी को जानते हुए भी उनसे यह प्रश्न कर उनके ऊपर कटाक्ष किया है, उन्हें जताना चाहा है कि वे उनके सम्मान के उतना योग्य नहीं जितना उन्होंने समझा है । उन्होने परोक्ष रूप से उन्हे डाँटते हुए भक्तों की जाति के सम्बन्ध मे कुछ श्लोक पढे ।
अर्थात् मैं ऐसा मानता हूँ कि इन बारह गुणों से युक्त ब्राह्मण भी यदि भगवान् कमलनाथ के चरणों से विमुख हो, तो उससे वह चाण्डाल श्रेष्ठ है, जिसने अपने मन, वचन, कर्म, धन और प्राण भगवान के चरणों मे अर्पित कर रखे हैं, क्योकि वह चाण्डाल तो अपने कुल तक को पवित्र कर देता है, जबकि बड़प्पन का अभिमान रखने वाला वह ब्राह्मण अपने को भी पवित्र नहीं कर पाता ।
यदि भगवान को प्राप्त करने की चाह है, तो भक्तों का गुणगान करो । जो ऐसा नहीं करते उनके सब धर्म-कर्म भुने हुए बीज की तरह निष्फल होते हैं और उन्हें जन्म-जन्म में पछताना पडता है ।
“भक्त दाम संग्रह करै, कथन श्रवन अनुमोद ।
सो प्रभु कै प्यारो पुत्र ज्यों, बैठे हरि की गोद ।।”

जो भक्तमाल का अर्थात् भक्तों के चरित्र का संग्रह कथन, श्रवण, अनुमोदन करते हें, वे प्रभु प्यारे पुत्र की भांति उनकी गोद में जा बैठते हैं ।
“काहू के बल जोग जग कुल करनी की आस ।
भक्त नाम माला अमर, उर बसो नारायणदास ।।”

किसी को योग का बल है, किसी को कुल का, किसी को अपने कर्मो का, मेरा तो एकमात्र बल भक्तों के नाम-गुणादि की माला ही है । मेरी यही अभिलाषा है कि हे गुरुदेव श्री अग्रदासजी की कृपा से अपने हृदय में यह माला सदा धारण करूं, अर्थात् चिरकाल तक भक्तों के चरित्र का श्रवण कीर्तन किया करूँ ।
नाभादासजी की भक्तमाल के अतिरिक्त कुछ और भी रचनाएँ पायी जाती हैं उनकी रचनाओं से स्पष्ट है कि सखी भाव से जानकीजी की उपासना करते थे –
“नाभा श्रीगुरुदास, सहचर अग्रकृपाल को ।
विहरत सकल विलास, जगत विदित सिय सहचरी ।।”

नाभाजी अनुमानतः वि सं. 1685 के आस-पास पधारे । उनकी समाधि गलता में है ।

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