पूजा में आरती का महत्त्व
‘आरती’ पूजन के अन्त में देवता की प्रसन्नता के हेतु की जाती है । ‘स्कन्द-पुराण’ में लिखा है –
“मन्त्र-हीनं क्रिया-हीनं, यत्-कृतं पूजनं हरेः ।
सर्व सम्पूर्णतामेति, कृते नीराजने शिवे ।।”

अर्थात् मन्त्र-हीन और क्रिया-हीन होने पर भी नीराजन (आरती) कर लेने से उसमें सम्पूर्ण पूर्णता आ जाती है ।
‘आरती’ करने से ही नहीं, ‘आरती’ देखने से भी महान् पुण्य प्राप्त होता है । ‘विष्णु-धर्मोत्तर’ में लिखा है –
“धूपं चारात्रिकं पश्यते, कराभ्यां च प्रवन्दते ।
कुल-कोटिं समुद्धृत्य, याति विष्णोः परं पदम् ।।”

अर्थात् जो धूप एवं आरती को देखता है और दोनों हाथों से आरती लेता है, वह अपनी करोड़ पीढ़ियों का उद्धार करता है और भगवान् विष्णु के परम पद को प्राप्त करता है ।
‘आरती’ को संस्कृत भाषा में ‘नीराजन’ अथवा ‘आरात्रिक’ कहते हैं ।
नीराजनः (निःशेषेण राजनं प्रकाशनम्) अर्थात् विशेष रुप से, निःशेष रुप से प्रकाशित करना । अनेक दीप-बत्तियाँ जलाकर देवता के चारों ओर घुमाने का अभिप्राय यही है कि पूरा-पूरा विग्रह एड़ी से चोटी तक प्रकाशित हो सके, चमक उठे, अंग-प्रत्यंग स्पष्ट रुप से उद्भाषित हो जाएँ, जिससे दर्शक या उपासक भली-भाँति देवता की रुप-छटा को निहार सके, हृदयंगम कर सके ।
आरात्रिकः अर्थ है अरिष्ट । विशेषतः माधुर्य-उपासना से सम्बन्धित है । साधारणतः पाँच बत्तियों से आरती की जाती है । इसे ‘पञ्च-दीप’ भी कहते हैं । एक, सात या उससे अधिक बत्तियों से भी ‘आरती’ की जाती है । ‘पद्म-पुराण’ के अनुसार ‘आरती’ कपूर, कुंकुम, अगर, चन्दन, रुई खी घी बत्तियों से करना श्रेयष्कर होता है ।
आरती के पाँच अंग हैं – (1) दीप-माला के द्वारा, (2) जल-युक्त शंख से, (3) धुले हुए वस्त्र से, (4) आम और पीपल आदि के पत्तों से और (5) साष्टांग दण्डवत् से ।
‘आरती’ उतारते समय सर्व-प्रथम भगवान् की प्रतिमा के चरणों में चार बार उतारे (घुमाए), दो बार नाभि-देश में, तब एक मुख-मण्डल पर और अन्त में सात बार समस्त अंगों पर घुमाए । यथा –
‘आदौ चतुः-पाद-तले च विष्णो, द्वौ नाभि-देशे मुख-बिम्ब एकम् ।
सर्वेषु चांगेषु च सप्त-वारानारात्रिकं भक्त-जनस्तु कुर्यात् ।।’

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