पृथ्वीसूक्त

अथर्ववेद के बारहवें काण्ड के प्रथम सूक्त का नाम पृथ्वीसूक्त है। इसके द्रष्टा ऋषि अथर्वा हैं। इस सूक्त में कुल ६३ मन्त्र हैं। इन मन्त्रों में मातृभूमि के प्रति अपनी प्रगाढ़ भक्ति का परिचय ऋषि ने दिया है। हिन्दू शास्त्रों के अनुसार प्रत्येक जडतत्त्व चेतन से अधिष्ठित है। चेतन ही उसका नियन्ता और संचालक हैं। हमारी इस पृथ्वी का भी एक चिन्मय स्वरूप है। यही इस स्थूल पृथ्वी का अधिदेवता है। इसी को श्रीदेवी और भूदेवी भी कहते हैं। ऋषि ने इस सूक्त में पृथ्वी के आधिभौतिक और आधिदैविक दोनों रूपों का स्तवन किया है। पुराणों में पृथ्वी के अधिदेवता का रूप ‘गौ’ बताया गया है। इस सूक्त में भी ‘कामदुघा’, ‘पयस्वती’, ‘सुरभिः’ तथा ‘धेनुः’ आदि पदों द्वारा उक्त स्वरूप की यथार्थता सूचित की गयी है। यहाँ सम्पूर्ण भूमि ही माता के रूप में ऋषि को दृष्टिगोचर हुई हैं। अतः ऋषि ने माता की इस महामहिमा को हृदयङ्गम करके उससे उत्तम वर के लिये प्रार्थना की है। सायणाचार्य ने इस सूक्त के मन्त्रों का अनेक लौकिक लाभों के लिये भी विनियोग बताया है। यह सूक्त बहुत ही उपयोगी और महत्त्वपूर्ण है। केवल इसके पाठ से भी बहुत लाभ होता है ।

सत्यं बृहदृतमुग्रं दीक्षा तपो ब्रह्म यज्ञः पृथिवीं धारयन्ति ।
सा नो भूतस्य भव्यस्य पत्युरुं लोकं पृथिवी नः कृणोतु ॥ १ ॥
असंबाधं बध्यतो मानवानां यस्या उद्वतः प्रवतः समं बहु ।
नानावीर्या ओषधीर्या बिभर्ति पृथिवी नः प्रथतां राध्यतां नः ॥ २ ॥

तीनों कालों में रहने वाले सत्य, महान् ऋत, ब्रह्म (परमेश्वर) नियम, चान्द्रायणादि उग्र तप और अग्निष्टोमादि श्रौतस्मार्त यज्ञ – ये सभी पृथिवी को धारण करते हैं। वह उत्पन्न और उत्पन्न होने वाले प्राणियों की रक्षा करने वाली पृथिवी हमारे निवासस्थल को विस्तीर्ण करे ॥ १ ॥
सर्वबाधारहित मनुष्यों के समक्ष पृथिवी के उन्नत, निम्न और सम प्रदेश हैं। जो पृथिवी नाना प्रकार की शक्तियों और औषधियों को धारण करती है, वह हमारे लिये विस्तीर्ण हो तथा हमारे कार्यों को सिद्ध करे ॥ २ ॥

यस्यां समुद्र उत सिन्धुरापो यस्यामन्नं कृष्टयः संबभूवुः ।
यस्यामिदं जिन्वति प्राणदेजत् सा नो भूमिः पूर्वपेये दधातु ॥ ३ ॥
यस्याश्चतस्त्रः प्रदिशः पृथिव्या यस्यामन्नं कृष्टयः संबभूवुः ।
या बिभर्ति बहुधा प्राणदेजत् सा नो भूमिर्गोष्वप्यन्ने दधातु ॥ ४ ॥
यस्यां पूर्वे पूर्वजना विचक्रिरे यस्यां देवा असुरानभ्यवर्तयन् ।
गवामश्वानां वयसश्च विष्ठा भगं वर्चः पृथिवी नो दधातु ॥ ५ ॥
विश्वम्भरा वसुधानी प्रतिष्ठा हिरण्यवक्षा जगतो निवेशनी ।
वैश्वानरं बिभ्रती भूमिरग्निमिन्द्रऋषभा द्रविणे नो दधातु ॥ ६ ॥

जिस पृथिवी में समुद्र, नदियाँ, जल, अन्न और पाँच प्रकार के ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और अन्त्यज) मनुष्य उत्पन्न हुए हैं, जिस पृथिवी में यह स्थावर, जंगम जगत् प्राण धारण करता है और चेष्टित होता है, वह भूमि हमें श्रेष्ठ पेय (पीने के योग्य) क्षीरादि पदार्थ दे ॥ ३ ॥
जिस पृथिवी से पूर्वादि चारों दिशाएँ, व्रीहि-यवादि अन्न और पाँच प्रकार के (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और अन्त्यज) मनुष्य उत्पन्न हुए हैं। जो पृथिवी नाना प्रकार से चेष्टमान प्राणियों का धारण तथा पोषण करती है, वह भूमि हमें गौएँ और अन्न दे ॥ ४ ॥
जिस पृथिवी पर हमारे प्राचीन पूर्वजों ने पुरुषार्थ किया था। जिस पृथिवी पर इन्द्रादि देवगणों ने बलिप्रभृति असुरों को पराजित किया था। जो पृथिवी गौओं, घोड़ों और पक्षिगण की प्रतिष्ठा एवं आधाररूपा है, वह पृथिवी हमें छः प्रकार के ऐश्वर्य और तेज प्रदान करे ॥ ५ ॥
जो पृथिवी सम्पूर्ण विश्व को धारण करने वाली, हिरण्यादि धन को धारण करने वाली, सबको आश्रय देने वाली, सुवर्ण आदि की खानों को अपने वक्षःस्थल में रखने वाली, स्थावर-जंगम जगत् को यथोचित स्थान में रखने वाली तथा वैश्वानर अग्नि को धारण करने वाली है और जिसके वराह भगवान् पति हैं, वह पृथिवी हमें धन दे ॥ ६ ॥

यां रक्षन्त्यस्वप्ना विश्वदानीं देवा भूमिं पृथिवीमप्रमादम् ।
सा नो नो मधु प्रियं दुहामथो उक्षतु वर्चसा ॥ ७ ॥
यार्णवेऽधि सलिलमग्र आसीद् यां मायाभिरन्वचरन् मनीषिणः ।
यस्या हृदयं परमे व्योमन्त्सत्येनावृतममृतं पृथिव्याः ।
सा नो भूमिस्त्विषिं बलं राष्ट्रे दधातूत्तमे ॥ ८ ॥
यस्यामापः परिचराः समानीरहोरात्रे अप्रमादं क्षरन्ति ।
सा नो भूमिर्भूरिधारा पयो दुहामथो उक्षतु वर्चसा ॥ ९ ॥
यामश्विनावमिमातां विष्णुर्यस्यां विचक्रमे ।
इन्द्रो यां चक्र आत्मनेऽनमित्रां शचीपतिः ।
सा नो भूमिर्वि सृजतां माता पुत्राय मे पयः ॥ १० ॥

जो पृथिवी सम्पूर्ण संसार को आश्रय देने वाली विस्तीर्ण है और जिसकी देवगण सावधान होकर रक्षा करते हैं, वह पृथिवी हमें गौओं के द्वारा मधुर और प्रिय दुग्ध दे ॥ ७ ॥
जो पृथिवी सृष्टि के आदि में समुद्र में जल के ऊपर विराजमान थी, जिस पृथिवी का मनु-प्रभृति विद्वद्गणों ने अपने तप के प्रभाव से अनुशासन किया था, जिस पृथिवी का हृदय सत्य से आवृत होकर परब्रह्म से अधिष्ठित वह पृथिवी हमारे उत्तम राष्ट्र (भारतवर्ष ) – में तेज और बल स्थापित करे ॥ ८ ॥
जिस भूमि पर जल की आधारभूता नदियाँ सर्वत्र स्वभावतः रात-दिन बहा करती हैं, वह अनेक धाराओं से युक्त भूमि हमें पय (दुग्ध) दे और तेज से युक्त करे ॥ ९ ॥
जिस भूमि को अश्विनीकुमार ने बनाया है, जिसके ऊपर भगवान् विष्णु ने वामनावतार धारणकर पादविक्षेप किया है और जिस भूमि को शचीपति इन्द्र ने अपने हितार्थ शत्रुरहित किया है, वह माता की तरह माननीया भूमि हमारी सन्तति के लिये दुग्ध दे ॥ १० ॥

गिरयस्ते पर्वता हिमवन्तोऽरण्यं ते पृथिवि स्योनमस्तु ।
बभुं कृष्णां रोहिणीं विश्वरूपां ध्रुवां भूमिं पृथिवीमिन्द्रगुप्ताम् ।
अजीतोऽहतो अक्षतोऽध्यष्ठां पृथिवीमहम् ॥ ११ ॥
यत्ते मध्यं पृथिवि यच्च नभ्यं यास्त ऊर्जस्तन्वः संबभूवुः ।
तासु नो ह्यभि नः पवस्व माता भूमिः पुत्रो अहं पृथिव्याः ।
पर्जन्यः पिता स उ नः पिपर्तु ॥ १२ ॥
यस्यां वेदिं परिगृह्णन्ति भूम्यां यस्यां यज्ञं तन्वते विश्वकर्माणः ।
यस्यां मीयन्ते स्वरवः पृथिव्यामूर्ध्वाः शुक्रा आहुत्याः पुरस्तात् ।
सा नो भूमिर्वर्धयद् वर्धमाना ॥ १३ ॥

हे पृथिवि ! तुमसे सम्बन्धित क्षुद्र पर्वत, हिमयुक्त हिमालयादि महापर्वत और जंगल – ये सभी हमारे लिये सुखकारी हों । परमेश्वर से पालित विस्तीर्ण भूमि जो कि स्वभावतः कहीं पिंगलवर्ण वाली, कहीं श्यामवर्ण वाली और कहीं रक्तवर्ण वाली है, उस पृथिवी पर हम अजित, अक्षत होकर निवास करें ॥ ११ ॥
हे पृथिवि ! तुम्हारा जो मध्यस्थान तथा सुगुप्त नाभिस्थान एवं तुम्हारे शरीर-सम्बन्धी जो पोषक अन्नरसादि पदार्थ हैं, उनमें हमें धारण करो और हमें शुद्ध करो। भूमि हमारी माता हैं, हम पृथिवी के पुत्र हैं। मेघ हमारे पिता अर्थात् पालक हैं, वे हमारी रक्षा करें ॥ १२ ॥
‘यज्ञाद्भवति पर्जन्यः’ इत्यादि गीता के वचनानुसार विश्वकर्मा अर्थात् जगत् के निर्माणकर्ता ऋत्विक और यजमान जिस पृथिवी पर वेदी बनाते हैं एवं यज्ञ करते हैं। जिस पृथिवी पर आहुति – प्रक्षेप से पहले उन्नत और मनोहर यज्ञस्तम्भ गाड़े जाते हैं, वह पृथिवी धन-धान्यों से समृद्ध होकर हमें धन – पुत्रादि प्रदान द्वारा समृद्ध करे ॥ १३ ॥

यो नो द्वेषत् पृथिवि यः पृतन्याद् योऽभिदासान्मनसा यो वधेन ।
तं नो भूमे रन्धय पूर्वकृत्वरि ॥ १४ ॥
त्वज्जातास्त्वयि चरन्ति मर्त्यास्त्वं बिभर्षि द्विपदस्त्वं चतुष्पदः ।
तवेमे पृथिवि पञ्च मानवा येभ्यो ज्योतिरमृतं मर्त्याभ्य उद्यन्त्सूर्यो रश्मिभिरातनोति ॥ १५ ॥
ता नः प्रजाः संदुह्रतां समग्रा वाचो मधु पृथिवि धेहि मह्यम् ॥ १६ ॥
विश्वस्वं मातरमोषधीनां ध्रुवां भूमिं पृथिवीं धर्मणा धृताम् ।
शिवां स्योनामनु चरेम विश्वहा ॥ १७ ॥
महत् सधस्थं महती बभूविथ महान् वेग एजथुर्वेपथुष्टे ।
महांस्त्वेन्द्रो रक्षत्यप्रमादम् ।
सा नो भूमे प्र रोचय हिरण्यस्येव संदृशि मा नो द्विक्षत कश्चन ॥ १८ ॥

हे पृथिवि ! जो शत्रु हमसे द्वेष करें या जो हमारे साथ संग्राम करें अथवा जो हमें मारने की इच्छा करें तथा जो हमारा वध करने के लिये उद्यत हों, हे शत्रुसंहारिणि पृथिवि ! उन सभी शत्रुओं का तुम विनाश करो ॥ १४ ॥
हे पृथिवि ! तुमसे उत्पन्न हुए मनुष्य तुम्हारे ऊपर विचरते हैं। तुम मनुष्य और पशु को धारण करती हो। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और अन्त्यज – ये पाँच प्रकार के मनुष्य तुम्हारे ही हैं। इन्हीं मनुष्यों के लिये सूर्य उदित होकर अपनी किरणों द्वारा प्रकाश फैलाता है ॥ १५ ॥
हे पृथिवि ! सूर्य की वे किरणें हमें सन्तान एवं समस्त वेदादि शास्त्रजन्य ज्ञान दें । हे पृथिवि ! तुम मुझे मधुर अन्नरसादि दो ॥ १६ ॥
सर्वधनस्वरूपवाली, व्रीहियवादि अन्नों को उत्पन्न करने वाली, धर्म से धृत, दृढ़, विस्तीर्ण, कल्याणस्वरूप एवं सुखस्वरूप पृथिवी का हम सर्वदा पूजन करते हैं ॥ १७ ॥
हे पृथिवि ! तुम्हारा सहवासस्थान महान् है, तुम महती अर्थात् विस्तीर्ण हो, तुम्हारा वेग, गति एवं कम्पन महान् है । जगन्नियन्ता महान् परमेश्वर सावधान होकर तुम्हारी रक्षा करते हैं। हे पृथिवि ! वह तुम हमें हिरण्य के समान रोचिष्णु बनाओ। हमसे कोई भी शत्रु द्वेष न करे ॥ १८ ॥

अग्निर्भूम्यामोषधीष्वग्निमापो बिभ्रत्यग्निरश्मसु ।
अग्निरन्तः पुरुषेषु गोष्वश्वेष्वग्नयः ॥ १९ ॥
अग्निर्दिव आ तपत्यग्नेर्देवस्योर्व१न्तरिक्षम् ।
अग्निं मर्तास इन्धते हव्यवाहं घृतप्रियम् ॥ २० ॥
अग्निवासाः पृथिव्यसितज्ञस्त्विषीमन्तं संशितं मा कृणोतु ॥ २१ ॥
भूम्यां देवेभ्यो ददति यज्ञं हव्यमरंकृतम् ।
भूम्यां मनुष्या जीवन्ति स्वधयान्नेन मर्त्याः ।
सा नो भूमिः प्राणमायुर्दधातु जरदष्टिं मा पृथिवी कृणोतु ॥ २२ ॥
यस्ते गन्धः पृथिवि संबभूव यं बिभ्रत्योषधयो यमापः ।
यं गन्धर्वा अप्सरसश्च भेजिरे तेन मा सुरभिं कृणु मा नो द्विक्षत कश्चन ॥ २३ ॥

भूमि में व्रीहि-यवादि और औषधियों में अग्नि निवास करता है। जल अपने अन्दर अग्नि को धारण करता है। सूर्य की किरणों में अग्नि रहती है। पुरुषों के हृदय में गौओं में और घोड़ों के अन्दर अग्नि रहती है। अर्थात् यह सम्पूर्ण जगत् अग्निमय है ॥ १९ ॥
अग्निदेव सूर्यरूप से स्वर्ग में तप रहे हैं। अग्निदेव का आश्रय विस्तीर्ण आकाश है। मनुष्य, देवता एवं पितरों को हवि पहुँचाने वाले घृतप्रिय अग्नि को घृत, इन्धन (काष्ठ) हवि आदि के द्वारा हम दीप्त करते हैं ॥ २० ॥
अग्नि से चारों ओर घिरे हुए श्यामवर्ण के वृक्षादि जिस पृथिवी के जंघा के समान हैं, वह पृथिवी हमें तेजस्वी, प्रभावशाली अथवा तीव्र बुद्धि वाला करे ॥ २१ ॥
भूमि पर मनुष्यगण यज्ञसाधनभूत संस्कृत हवि को देवताओं को देते हैं। भूमि पर मरणधर्मा मनुष्य अन्न से जीवित हैं, वह पृथिवी हमें प्राण अर्थात् शतवर्षपर्यन्त आयु दे । पृथिवी हमें क्रमशः वृद्धावस्थापन्न करे ॥ २२ ॥
हे पृथिवि ! तुमसे जो गन्ध उत्पन्न हुआ है, उस गन्ध को औषधियाँ और जल धारण करते हैं। उस गन्ध का सेवन गन्धर्व और अप्सराएँ करती हैं। उस गन्ध से तुम हमें सुगन्धित करो। हमसे कोई भी द्वेष न करे ॥ २३ ॥

यस्ते गन्धः पुष्करमाविवेश यं संजभ्रुः सूर्याया विवाहे ।
अमर्त्याः पृथिवि गन्धमग्रे तेन मा सुरभिं कृणु मा नो द्विक्षत कश्चन ॥ २४ ॥
यस्ते गन्धः पुरुषेषु स्त्रीषु पुंसु भगो रुचिः ।
यो अश्वेषु वीरेषु यो मृगेषूत हस्तिषु ।
कन्यायां वर्चो यद् भूमे तेनास्माँ अपि सं सृज मा नो द्विक्षत कश्चन ॥ २५ ॥
शिला भूमिरश्मा पांसुः सा भूमिः संधृता धृता ।
तस्यै हिरण्यवक्षसे पृथिव्या अकरं नमः ॥ २६ ॥
यस्यां वृक्षा वानस्पत्या ध्रुवास्तिष्ठन्ति विश्वहा ।
पृथिवीं विश्वधायसं धृतामच्छावदामसि ॥ २७ ॥
उदीराणा उतासीनास्तिष्ठन्तः प्रक्रामन्तः ।
पद्भ्यां दक्षिणसव्याभ्यां मा व्यथिष्महि भूम्याम् ॥ २८ ॥

हे पृथिवि ! तुम्हारा जो गन्ध कमल के फूलों में प्रविष्ट है और जिस गन्ध को सूर्या के विवाह के समय पहले देवगण चुराकर ले गये थे, उस गन्ध से हमें सुगन्धित करो। हमसे कोई भी द्वेष न करे ॥ २४ ॥
हे भूमे ! तुम्हारा गन्ध (आमोद), ऐश्वर्य एवं कान्ति पुरुषों और स्त्रियों में हैं तथा गन्धादि पदार्थ घोड़ों, वीरों, मृगादि पशुओं एवं हाथियों में हैं। जो कान्ति कन्या में है, उस गन्धादि पदार्थों से हमें भी युक्त करो ॥ २५ ॥
नाना प्रकार के पत्थर, कंकड़ एवं धूलिरूप ही भूमि है। यह भूमि धर्म से अच्छी तरह रक्षित है। हिरण्यादि की खानों को धारण करने वाली पृथिवी को हम नमस्कार करते हैं ॥ २६ ॥
जिस पृथिवी पर आम आदि के वृक्ष और पीपल आदि वनस्पति सदा अचल होकर रहते हैं। जो पृथिवी सारे संसार को धारण करने वाली और धर्म से रक्षित है, उस पृथिवी की हम सब प्रकार से स्तुति (स्वागत) करते हैं ॥ २७ ॥
इस भूमि पर दायें और बायें पैर से चलते हुए या बैठे या खड़े हुए या दौड़ते हुए हम कभी पीड़ित न हों ॥ २८ ॥

विमृग्वरीं पृथिवीमा वदामि क्षमां भूमिं ब्रह्मणा वावृधानाम् ।
ऊर्जं पुष्टं बिभ्रतीमन्नभागं घृतं त्वाभि नि षीदेम भूमे ॥ २९ ॥
शुद्धा न आपस्तन्वे क्षरन्तु यो नः सेदुरप्रिये तं नि दध्मः ।
पवित्रेण पृथिवि मोत्पुनामि ॥ ३० ॥
यास्ते प्राचीः प्रदिशो या उदीचीर्यास्ते भूमे अधराद् याश्च पश्चात् ।
स्योनास्ता मह्यं चरते भवन्तु मा नि पप्तं भुवने शिश्रियाणः ॥ ३१ ॥
मा नः पश्चान्मा पुरस्तान्नुदिष्ठा मोत्तरादधरादुत ।
स्वस्ति भूमे नो भव मा विदन् परिपन्थिनो वरीयो यावया वधम् ॥ ३२ ॥
यावत् तेऽभि विपश्यामि भूमे सूर्येण मेदिना ।
तावन्मे चक्षुर्मा मेष्टोत्तरामुत्तरां समाम् ॥ ३३ ॥

विशेष रूप से सब पदार्थों का शोधन करने वाली, सहनशील, परमात्मा की कृपा से दिनानुदिन अतिशय बढ़ने वाली और शक्तिप्रद अन्न तथा घृतादि को धारण करने वाली उस पृथिवी की हम स्तुति करते हैं ॥ २९ ॥
हे पृथिवि ! नीरोग शुद्ध जल हमारे शरीर पुष्टि के लिये आकाश से गिरे। जो रोग हमारे अप्रिय करने के लिये हमें सीदित करता है, उस रोग को शत्रुओं के ऊपर हम स्थापित करते हैं। हम अपने शरीर को कुशमय पवित्र द्वारा जल से पवित्र करते हैं ॥ ३० ॥
हे भूमे ! तुम्हारी जो पूर्व, उत्तर, दक्षिण और पश्चिम दिशाएँ हैं, वे सब तुम्हारे ऊपर चलते हुए हमारे लिये सुखकारी हों। बारम्बार तुम्हारा आश्रय लेते हुए हम कभी न गिरें ॥ ३१ ॥
हे भूमे ! कोई भी शत्रु पीछे से या आगे से हमें मारने के लिये उद्यत न हो। ऊपर से या नीचे से कोई शत्रु हमें मारने के लिये न उठे। हे भूमे ! तुम हमारे लिये कल्याणकारिणी बनो। शत्रुगण हमारा पता न लगा सकें। शत्रुकर्तृक वध को हमसे दूर करो ॥ ३२ ॥
हे भूमे ! स्नेह करने वाले सबके मित्रभूत सूर्य के साथ जब तक हम तुम्हारा विराट् रूप देखते हैं तब तक हमारे नेत्र नष्ट न होने पावें, अर्थात् सूर्य द्वारा हमारे नेत्रों में सर्वदा तेजः प्रदान होता रहे। हम उत्तरोत्तर आगामी वर्षों में भी सब पदार्थों को देखें ॥ ३३ ॥

यच्छयानः पर्यावर्ते दक्षिणं सव्यमभि भूमे पार्श्वम् ।
उत्तानास्त्वा प्रतीचीं यत् पृष्टीभिरधिशेमहे ।
मा हिंसीस्तत्र नो भूमे भूमे सर्वस्य प्रतिशीवरि ॥ ३४ ॥
यत् ते भूमे विखनामि क्षिप्रं तदपि रोहतु ।
मा ते मर्म विमृग्वरि मा ते हृदयमर्पिपम् ॥ ३५ ॥
ग्रीष्मस्ते भूमे वर्षाणि शरद्धेमन्तः शिशिरो वसन्तः ।
ऋतवस्ते विहिता हायनीरहोरात्रे पृथिवि नो दुहाताम् ॥ ३६ ॥
याप सर्प विजमाना विमृग्वरी यस्यामासन्नग्नयो ये अप्स्व१न्तः ।
परा दस्यून् ददती देवपीयूनिन्द्रं वृणाना पृथिवी न वृत्रम् ।
शक्राय दधे वृषभाय वृष्णे ॥ ३७ ॥

हे भूमे ! शयन करते हुए हम जो दायीं या बायीं करवट लेते हैं और हम उत्तान होकर पीठों के द्वारा जो तुम्हारे ऊपर शयन करते हैं, सो हे सबकी आश्रयभूत पृथिवि ! उन शयनों में तुम हमारी हिंसा मत करना ॥ ३४ ॥
हे भूमे ! तुम्हारे जो कन्दमूलादि हम खोदते हैं, वे पुनः शीघ्र उत्पन्न हों । हे शोधयित्रि वसुधे ! हमने कन्दमूलादि खोदने के समय तुम्हारे मर्म की हिंसा नहीं की है। इसी प्रकार हमने तुम्हारे हृदय की भी हिंसा नहीं की है ॥ ३५ ॥
हे पृथिवि भूमे ! ग्रीष्म, वर्षा, शरत्, हेमन्त शिशिर और वसन्त- ये छः ऋतुएँ, वर्षसमूह, दिन और रात्रि ये सभी विधाता के द्वारा तुम्हारे लिये बनाये गये हैं । अतः ये सभी हमारे मनोरथ को पूर्ण करें ॥ ३६ ॥
जो समस्त पदार्थों का विशेष रूप से शोधन करने वाली पृथिवी शेषनाग के काँपने से स्वयं कम्पायमान हो जाती है। जल के अन्दर रहने वाला अग्नि (विद्युत्) जिस पृथिवी में है। देवविरोधी असुरों को दूर भगाती हुई वृत्रासुर को छोड़कर जो इन्द्र (वराहरूपधारी विष्णु) को स्वामी बनाती हुई वीर्यसेक्ता श्रेष्ठ इन्द्र के लिये जिसने स्वयं धेनुरूप धारण किया था ॥ ३७ ॥

यस्यां सदोहविर्धाने यूपो यस्यां निमीयते ।
ब्रह्माणो यस्यामर्चन्त्यृग्भिः साम्ना यजुर्विदः ।
युज्यन्ते यस्यामृत्विजः सोममिन्द्राय पातवे ॥ ३८ ॥
यस्यां पूर्वे भूतकृत ऋषयो गा उदानृचुः ।
सप्त सत्रेण वेधसो यज्ञेन तपसा सह ॥ ३९ ॥
सा नो भूमिरा दिशतु यद्धनं कामयामहे ।
भगो अनुप्रयुङ्क्तामिन्द्र एतु पुरोगवः ॥ ४० ॥
यस्यां गायन्ति नृत्यन्ति भूम्यां मर्त्या व्यैलबाः ।
युध्यन्ते यस्यामाक्रन्दो यस्यां वदति दुन्दुभिः ।
सा नो भूमिः प्र णुदतां सपत्नानसपत्नं मा पृथिवी कृणोतु ॥ ४१ ॥

जिस भूमि पर सदोमण्डप और हविर्धानसंज्ञक मण्डपद्वय बनाये जाते हैं तथा यूप खड़ा किया जाता है। जिस भूमि पर ब्राह्मण (ऋत्विक् गण) ऋग्वेदीय एवं सामवेदीय मन्त्रों द्वारा परमात्मा की पूजा करते हैं। जिस भूमि पर यजुर्वेदवेत्ता ऋत्विक् गण यजुर्वेदीय मन्त्रों द्वारा इन्द्र को सोमरस का पान कराने के लिये यज्ञ में प्रयुक्त होते हैं ॥ ३८ ॥
जिस भूमि पर पुरातन प्राणियों के उत्पन्न करने वाले कश्यपादि सप्तर्षिरूप प्रजापतिगण ने सत्र ( द्वादशाहादि), महायज्ञ एवं सोमादि मख द्वारा तपस्या के साथ वैदिक मन्त्रों का उच्चारण किया था ॥ ३९ ॥
वह भूमि माता जिस धन की हम इच्छा करते हैं, उसे हमें दे। हमारा भाग्य हमारा सहायक बने। परमेश्वर हमारे हित के लिये हमारे आगे चलें ॥ ४० ॥
जिस भूमि पर मनुष्यगण विजय से प्रसन्न होकर नाचते और गाते हैं, जिस भूमि पर योद्धा लोग परस्पर अस्त्र-शस्त्रों का प्रहार करते हैं, जिस भूमि पर पराजितजनों का रोना सुनायी देता है, जिस भूमि पर दुन्दुभि की हर्षसूचक ध्वनि सुनायी देती है, वह भूमि हमारे शत्रुओं को दूर करे। पृथिवीमाता हमें शत्रुरहित करें ॥ ४१ ॥

यस्यामन्नं व्रीहियवौ यस्या इमाः पञ्च कृष्टयः ।
भूम्यै पर्जन्यपत्न्यै नमोऽस्तु वर्षमेदसे ॥ ४२ ॥
यस्याः पुरो देवकृताः क्षेत्रे यस्या विकुर्वते ।
प्रजापतिः पृथिवीं विश्वगर्भामाशामाशां रण्यां नः कृणोतु ॥ ४३ ॥
निधिं बिभ्रती बहुधा गुहा वसु मणिं हिरण्यं पृथिवी ददातु मे ।
वसूनि नो वसुदा रासमाना देवी दधातु सुमनस्यमाना ॥ ४४ ॥
जनं बिभ्रती बहुधा विवाचसं नानाधर्माणं पृथिवी यथौकसम् ।
सहस्रं धारा द्रविणस्य मे दुहां ध्रुवेव धेनुरनपस्फुरन्ती ॥ ४५ ॥

जिस भूमि पर ब्रीहियवादि अन्न उत्पन्न हुए हैं। जिस भूमि पर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और अन्त्यज – ये पाँच प्रकार के मनुष्य उत्पन्न हुए हैं। जिस भूमि की वर्षा चर्बी है, ऐसी पर्जन्य से रक्षित मेदिनी को हमारा नमस्कार है ॥ ४२ ॥
जिस पृथिवी पर देवनिर्मित गाँव हैं, जिस पृथिवी के खेतों में नाना प्रकार की वस्तुएँ उत्पन्न होती हैं और जो पृथिवी समस्त संसार को धारण करने वाली है, उस पृथिवी की समस्त दिशाएँ प्रजापति हमारे लिये रमणीय बनायें ॥ ४३ ॥
गुहा में रत्नों की खान को धारण करती हुई पृथिवी हमें धन, पद्मरागादि मणि और सुवर्ण दे। धन को देने वाली हर्षध्वनि करती हुई वह पृथिवी प्रसन्न होकर हमें नाना प्रकार के धन दे ॥ ४४ ॥
यथास्थान निवासी, विविध भाषाओं के वक्ता, नाना प्रकार के धर्म एवं विविध सम्प्रदायों के पालक मनुष्यों को अनेक प्रकार से धारण करती हुई पृथिवी, जो कि अन्यत्र कहीं नहीं जाने वाली है, वह पृथिवी गौ की तरह स्थिर होकर नाना प्रकार के धन हमें दे ॥ ४५ ॥

यस्ते सर्पो वृश्चिकस्तृष्टदंश्मा हेमन्तजब्धो भृमलो गुहा शये ।
क्रिमिर्जिन्वत् पृथिवि यद्यदेजति प्रावृषि तन्नः
सर्पन्मोप सृपद् यच्छिवं तेन नो मृड ॥ ४६ ॥
ये ते पन्थानो बहवो जनायना रथस्य वर्त्मानसश्च यातवे ।
यैः संचरन्त्युभये भद्रपापास्तं पन्थानं जयेमानमित्रमतस्करं यच्छिवं तेन नो मृड ॥ ४७ ॥
मल्वं बिभ्रती गुरुभृद् भद्रपापस्य निधनं तितिक्षुः ।
वराहेण पृथिवी संविदाना सूकराय वि जिहीते मृगाय ॥ ४८ ॥
ये त आरण्याः पशवो मृगा वने हिताः सिंहा व्याघ्राः पुरुषादश्चरन्ति ।
उलं वृकं पृथिवि दुच्छुनामित ऋक्षीकां रक्षो अप बाधयास्मत् ॥ ४९ ॥

हे पृथिवि ! जो तीक्ष्ण दशनशील अर्थात् बहुत तेज से काटने वाले सर्प, बिच्छू आदि भ्रमणशील तामसी जन्तु हेमन्त ऋतु में जाड़े से पीड़ित होकर तुम्हारे गह्वर के मध्य में निवास करते हैं और जो बिच्छू, कृमि आदि वर्षा- ऋतु में जल से तृप्त होते हुए चलते हैं, वे चलते हुए हमारे पास न आने पायें । हमारे लिये जो उत्तम कल्याणकारी हैं, उनसे हमें सुखकारी बनाओ ॥ ४६ ॥
हे पृथिवि ! प्राणियों के आश्रयभूत तुम्हारे बहुत-से मार्ग हैं। रथ और गाड़ियों के जाने के लिये भी अनेक मार्ग हैं, जिन पूर्वोक्त मार्गों से पुण्यात्मा और पापात्मा दोनों प्रकार के मनुष्य जाते हैं, हम उस पुण्य मार्ग पर शत्रु और चोरों से रहित होकर विजय प्राप्त करें। जो तुम्हारा कल्याणकारी मार्ग है, उससे हमें सुखी बनाओ ॥ ४७ ॥
वजनदार (भारी) पदार्थों को एवं ऊँचे और नीचे अर्थात् छोटे-बड़े पदार्थों को धारण करती हुई, धर्मात्माओं और पापियों के मरण को सहन करने वाली पृथिवी वराहभगवान् से ज्ञात होने पर वराहावतार विष्णु के अनुकूल करने के लिये चेष्टा करती है ॥ ४८ ॥
पृथिवि! तुम्हारे ऊपर जो जंगली हरिण, सेर, व्याघ्र आदि जानवर एवं मनुष्यभक्षक राक्षसगण घूमते हैं और चीते, भेड़िये, दुष्ट कुत्ते, भालू एवं राक्षस आदि जो जन्तु हैं, उन्हें हमारे पास से अलग करो अर्थात् हमारे पास न आने दो ॥ ४९ ॥

ये गन्धर्वा अप्सरसो ये चारायाः किमीदिनः ।
पिशाचान्त्सर्वा रक्षांसि तानस्मद् भूमे भूमे यावय ॥ ५० ॥
यां द्विपादः पक्षिणः संपतन्ति हंसाः सुपर्णाः शकुना वयांसि ।
यस्यां वातो मातरिश्वेयते रजांसि कृण्वंश्च्यावयंश्च वृक्षान् ।
वातस्य प्रवामुपवामनु वात्यर्चिः ॥ ५१ ॥
यस्यां कृष्णमरुणं च संहिते अहोरात्रे विहिते भूम्यामधि ।
वर्षेण भूमिः पृथिवी वृतावृता सा नो दधातु भद्रया प्रिये धामनि धामनि ॥ ५२ ॥
द्यौश्च म इदं पृथिवी चान्तरिक्षं च मे व्यचः ।
अग्निः सूर्य आपो मेधां विश्वे देवाश्च सं ददुः ॥ ५३ ॥
अहमस्मि सहमान उत्तरो नाम भूम्याम् ।
अभीषाsस्मि विश्वाषाडाशामाशां विषासहिः ॥ ५४ ॥

हे भूमे ! जो गन्धर्व, अप्सराएँ और देवताओं के हवि – प्रतिबन्धक हैं और जो यज्ञादि शुभ कर्म को देखकर ‘यह क्या हो रहा है’ ऐसा कहने वाले राक्षस हैं, उनको एवं पिशाचों को हमसे दूर करो ॥ ५० ॥
जिस पृथिवी पर दो पैर वाले हंस, गरुड़, गृध्र आदि तथा अन्य क्षुद्र छोटे-छोटे पक्षीगण उड़ते हैं और जिस पृथिवी पर वायु धूल को इधर-उधर उड़ाता हुआ और वृक्षों को गिराता हुआ जोर से बहता है। पृथिवी के नजदीक वायु के बहने को अपनी ज्वालाओं द्वारा अनुकरण करता हुआ अग्नि प्रज्वलित होता है ॥ ५१ ॥
जिस पृथिवी के ऊपर रात्रि का कालारूप और दिन का लालरूप एक होकर अहोरात्ररूप से प्रातः काल देखे जाते हैं। वह पृथिवी दृष्टि से युक्त हमारे प्रत्येक प्रिय स्थानों में हमें कल्याण प्रदान करे ॥ ५२ ॥
द्युलोक, पृथिवी और अन्तरिक्ष- इन तीनों लोकों ने हमें यह विस्तीर्ण स्थान दिया है और अग्नि, सूर्य, जल और विश्वेदेव ने हमें बुद्धि भी दी है ॥ ५३ ॥
पृथिवी पर शत्रुओं को दबाता हुआ मैं सर्वश्रेष्ठ हूँ और शत्रुओं का अभिभव करता हुआ समस्त शत्रुओं के पराक्रम के सहनशील योग्य मैं होऊँ ॥ ५४ ॥

अदो यद् देवि प्रथमाना पुरस्ताद् देवैरुक्ता व्यसर्पो महित्वम् ।
आ त्वा सुभूतमविशत् तदानीमकल्पयथाः प्रदिशश्चतस्रः ॥ ५५ ॥
ये ग्रामा यदरण्यं याः सभा अधि भूम्याम् ।
ये संग्रामाः समितयस्तेषु चारु वदेम ते ॥ ५६ ॥
अश्व इव रजो दुधुवे वि तान् जनान् य
आक्षियन् पृथिवीं यादजायत ।
मन्द्राग्रेत्वरी भुवनस्य गोपा वनस्पतीनां गृभिरोषधीनाम् ॥ ५७ ॥
यद् वदामि मधुमत्तद् वदामि यदीक्षे तद् वनन्ति मा ।
त्विषीमानस्मि जूतिमानवान्यान् हन्मि दोधतः ॥ ५८ ॥

हे पृथिवि देवि! तुम पहले विस्तीर्ण हो जाओ’ इस प्रकार देवताओं से कही जाने पर पृथिवी विस्तीर्ण हो गयी। पश्चात् शोभन प्राणिसमूह ने तुम्हारे ऊपर निवास किया। तुमने पूर्वादि चारों दिशाओं का निर्माण किया है ॥ ५५ ॥
पृथिवी के ऊपर जो ग्राम, जंगल, सभाएँ, युद्ध और समितियाँ हैं; उन सबमें पृथिवी का अच्छी तरह से हम गुणगान करते हैं ॥ ५६ ॥
हे पृथिवि ! जिन लोगों ने तुम्हारे ऊपर निवास किया था और जो प्राणिसमूह तुम्हारे ऊपर उत्पन्न हुए थे, उन प्राणियों को तुम उसी प्रकार पृथक् करती हो, जिस प्रकार घोड़ा अपने शरीर के धूल को झाड़ता है। हे हर्षशीले अग्रगामिनि पृथिवि ! तुम समस्त प्राणियों की रक्षा करने वाली और औषधियों को धारण करनेवाली हो ॥ ५७ ॥
हे पृथिवि ! मैं जो कुछ मधुर बोलता हूँ, वह तुम्हारी कृपा से ही बोलता हूँ। मैं जो कुछ देखता हूँ, वह मुझे अच्छा लगता है। मैं तेजस्वी और वेगवान् हूँ। मैं जिन किन्हीं असहाय मित्रजनों की रक्षा करता हूँ और गरीबों को कँपाने वाले ( त्रास देने वाले) जिन शत्रुओं को मारता हूँ, वह तुम्हारी दया का ही फल है ॥ ५८ ॥

शन्तिवा सुरभिः स्योना कीलालोध्नी पयस्वती ।
भूमिरधि ब्रवीतु ब्रवीतु मे पृथिवी पयसा सह ॥ ५९ ॥
यामन्वैच्छद्धविषा विश्वकर्मान्तरर्णवे रजसि प्रविष्टाम् ।
भुजिष्यं १ पात्रं निहितं गुहा यदाविर्भोगे अभवन् मातृमद्भ्यः ॥ ६० ॥
त्वमस्यावपनी जनानामदितिः कामदुघा पप्रथाना ।
यत् त ऊनं तत् त आ पूरयाति प्रजापतिः प्रथमजा ऋतस्य ॥ ६१ ॥
उपस्थास्ते अनमीवा अयक्ष्मा अस्मभ्यं सन्तु पृथिवि प्रसूताः ।
दीर्घं न आयुः प्रतिबुध्यमाना वयं तुभ्यं बलिहृतः स्याम ॥ ६२ ॥
भूमे मातर्नि धेहि मा भद्रया सुप्रतिष्ठितम् ।
संविदाना दिवा कवे श्रियां मा धेहि भूत्याम् ॥ ६३ ॥

[ अथर्व० १२ । १]

शान्ता, कामधेनुरूपा समुद्ररूप चार थनों वाली पृथिवी गवादि पशुओं द्वारा दुग्ध देने वाली और अन्नादि द्वारा मुझसे अधिक बोले ॥ ५९ ॥
समुद्र के बीच में बालुका में छिपी हुई जिस भूमि को परमेश्वर ने हवि के द्वारा प्राप्त करना चाहा था । हे पृथिवि ! गुप्त स्थान में छिपा हुआ भोग योग्य तुम्हारा स्वरूप मातृमान् जनों के भोगार्थ प्रकट हुआ है ॥ ६० ॥
हे पृथिवि ! तुम मनुष्यों की जन्मदात्री, अदीना, सकल कामनाओं को पूर्ण करने वाली एवं अति विस्तीर्ण हो । विष्णु के ज्येष्ठ पुत्र प्रजापति ब्रह्मा तुम्हारे जो न्यून अंग हैं, उन्हें पूर्ण करते हैं ॥ ६१ ॥
हे पृथिवि ! तुम्हारी गोद के सदृश द्वीप- समुदाय क्षुद्ररोगरहित एवं क्षयादि प्रबल रोगों से रहित वस्तुएँ तुम्हारी कृपा से हमारे लिये हों। हमारी आयु सौ वर्ष तक अथवा उससे भी अधिक हो। हम सावधान होकर सर्वदा तुम्हें भेट पूजा देने वाले हों ॥ ६२ ॥
हे पृथिवि माता ! तुम मुझे कल्याणराशियों में रखो। हे दूरदर्शिनि पृथिवि ! तुम दिन में हमसे ऐकमत्य प्राप्तकर हमें अपने स्थान में सुप्रतिष्ठितकर लक्ष्मी के समीप एवं ऐश्वर्य – भोग में रखो ॥ ६३ ॥

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