October 14, 2015 | aspundir | Leave a comment प्रकृतेर्ब्रह्माण्ड-मोहन-कवचम् ।। नारद उवाच ।। भगवन् सर्वधर्मज्ञ सर्वज्ञानविशारद । ब्रह्माण्डमोहनं नाम प्रकृतेः कवचं वद ।।१ ।। नारायण उवाच ।। श्रृणु वक्ष्यामि हे वत्स कवचं च सुदुर्लभम् । श्रीकृष्णेनैव कथितं कृपया ब्रह्मणे पुरा ।।२ ब्रह्मणा कथितं सर्वे धर्माय जाह्नवी-तटे । धर्मेण दत्तं मह्यं च कृपया पुष्करे प्रभुः ।।३ त्रिपुरारिश्च यद् धृत्वा जघान त्रिपुरं पुरा । मुमोच ब्रह्मा यद् धृत्वा मधुकैटभयोर्भयम् ।। संजहार रक्तबीजं यद् धृत्वा भद्रकालिका ।।४ यद् धृत्वा तु महेन्द्रश्च सम्प्राप कमलालयाम् । यद् धृत्वा च महाकालश्चिरजीवी च धार्मिकः ।।५ यद् धृत्वा च महाज्ञानी नन्दी सानन्दपूर्वकम् । यद् धृत्वा च महायोद्धा रामः शत्रुभयंकरः ।।६ यद् धृत्वा शिवतुल्यश्च दुर्वासा ज्ञानिनां वरः । ॐ दुर्गेति चतुर्थ्यन्तं स्वाहोन्तो मे शिरोऽवतु ।।७ मन्त्रः षडक्षरोऽयं च भक्तानां कल्पपादपः । विचारो नास्ति वेदेषु ग्रहणे च मनोर्मुने ।।८ मन्त्रग्रहणमात्रेण विष्णुतुल्यो भवेन्नरः । मम वक्त्रं सदा पातु ॐ दुर्गायै नमोऽन्ततः ।।९ ॐ दुर्गे रक्ष इति च कण्ठं पातु सदा मम । ॐ ह्रीं श्रीमिति मन्त्रोऽयं स्कन्धं पातु निरन्तरम् ।।१० ॐ ह्रीं श्रीं क्लीमिति पृष्ठं च पातु मे सर्वतः सदा। ह्रीं मे वक्षःस्थलं पातु हस्तं श्रीमिति संततम् ।।११ ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं पातु सर्वांगं स्वप्ने जागरणे तथा । प्राच्यां मां पातु प्रकृतिः पातु वह्नौ च चण्डिका ।।१२ दक्षिणे भद्रकाली च नैर्ऋते च महेश्वरी । वारुण्यां पातु वाराही वायव्यां सर्वमंगला ।।१३ उत्तरे वैष्णवी पातु तथैशान्यां शिवप्रिया । जले स्थले चान्तरिक्षे पातु मां जगदम्बिका ।।१४ ।। फल-श्रुति ।। इति ते कथितं वत्स कवचं च सुदुर्लभम् । यस्मै कस्मै न दातव्यं प्रवक्तव्यं न कस्यचित् ।।१५ गुरुमभ्यर्च्यं विधिवद् वस्त्रालंकारचन्दनैः । कवचं धारयेद् यस्तु सोऽपि विष्णुर्न संशयः ।।१६ भ्रमणे सर्वतीर्थानां पृथ्वीव्याश्च प्रदक्षिणे । यत् फलं लभते लोकस्तदेतद्धारणे मुने ।।१७ पञ्चलक्षजपेनैव सिद्धमेतद् भवेद् ध्रुवम् । लोकं च सिद्धकवचं नास्त्रं विद्यति संकटे ।।१८ न तस्य मृत्युर्भवति जले वह्नौ विशेद् ध्रुवम् । जीवन्मुक्तो भवेत् सोऽपि सर्वसिद्धेशऽवरः स्वयम् ।।१९ यदि स्यात् सिद्धकवचो विष्णुतुल्यो भवेद् ध्रुवम् । ।।इति श्रीब्रह्मवैवर्ते प्रकृतेर्ब्रह्माण्ड-मोहन-कवचं सम्पूर्णम् ।। (प्रकृतिखण्ड । ६७ । १-१९॰५) भावार्थः- नारदजी ने कहा- समस्त धर्मों के ज्ञाता तथा सम्पूर्ण ज्ञान में विशारद भगवन् ! ब्रह्माण्ड-मोहन नामक प्रकृति-कवच का वर्णन कीजिये । भगवान् नारायण बोले- वत्स ! सुनो । मैं उस परम दुर्लभ कवच का वर्णन करता हूँ । पूर्वकाल में साक्षात् श्रीकृष्ण ने ही ब्रह्माजी को इस कवच का उपदेश दिया था। फिर ब्रह्माजी ने गंगाजी के तट पर ‘धर्म’ के प्रति इस सम्पूर्ण कवच का वर्णन किया था । फिर धर्म ने पुष्करतीर्थ में मुझे कृपा-पूर्वक इसका उपदेश दिया, यह वही कवच है, जिसे पूर्वकाल में धारण करके त्रिपुरारि शुव ने त्रिपुरासुर का वध किया था और ब्रह्माजी ने जिसे धारण करके मधु और कैटभ से प्राप्त होनेवाले भय का त्याग किया था। जिसे धारण करके भद्रकाली ने रक्तबीज का संहार किया, देवराज इन्द्र ने खोयी हुई राज्य-लक्ष्मी प्राप्त की, महाकाल चिरजीवी और धार्मिक हुए, नन्दी महाज्ञानी होकर सानन्द जीवन बिताने लगा, परशुरामजी शत्रुओं को भय देनेवाले महान् योद्धा बन गये तथा जिसे धारण करके ज्ञानि-शिरोमणि दुर्वासा भगवान् शिव के तुल्य हो गये । “ॐ दुर्गायै स्वाहा” यह मन्त्र मेरे मस्तक की रक्षा करे । इस मन्त्र में छः अक्षर हैं । यह भक्तों के लिये कल्प-वृक्ष के समान है । मुने ! इस मन्त्र को ग्रहण करने के विषय में वेदों में किसी बात का विचार नहीं किया गया है । मन्त्र ग्रहण करने मात्र से मनुष्य विष्णु के समान हो जाता है । “ॐ दुर्गायै नमः” यह मन्त्र सदा मेरे मुख की रक्षा करे । “ॐ दुर्गे रक्ष” यह मन्त्र सदा मेरे कण्ठ का संरक्षण करे । “ॐ ह्रीं श्रीं” यह मन्त्र निरन्तर मेरे कंधे की रक्षा करे । “ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं” यह मन्त्र सदा सब ओर से मेरे पृष्ठ-भाग का पालन करे । “ह्रीं” मेरे वक्षःस्थल की और “श्रीं” सदा मेरे हाथ की रक्षा करे । “ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं” यह मन्त्र सोते और जागते समय सदा मेरे सर्वांग का संरक्षण करे । पूर्व दिशा में प्रकृति मेरी रक्षा करे । अग्नि-कोण में चण्डिका दक्षिण दिशा में भद्रकाली, नैऋत्य-कोण में महेश्वरी, पश्चिम दिशा में वाराही और वायव्य-कोण में सर्व-मंगला मेरा संरक्षण करे । उत्तर दिशा में वैष्णवी, ईशान-कोण में शिवप्रिया तथा जल, थल और आकाश में जगदम्बिका मेरा पालन करे । वत्स ! यह परम दुर्लभ कवच मैंने तुमसे कहा है । इसका उपदेश हर एक को नहीं देना चाहिये और न किसी के सामने इसका प्रवचन ही करना चाहिये । जो वस्त्र, आभूषण और चन्दन से गुरु की विधिवत् पूजा करके इस कवच को धारण करता है, वह भी विष्णु ही है, इसमें संशय नहीं है । मुने ! सम्पूर्ण तीर्थों की यात्रा और पृथ्वी की परिक्रमा करने पर मनुष्य को जो फल मिलता है, वही इस कवच को धारण करने पर मिल जाता है । पाँच लाख जप करने से निश्चय ही यह कवच सिद्ध हो जाता है । जिसने कवच को सिद्ध कर लिया है, उस मनुष्य को रण-संकट में अस्त्र नहीं बेधता है। अवश्य ही जल या अग्नि में प्रवेश कर सकता है । वहाँ उसकी मृत्यु नहीं होती है । जिसको यह कवच सिद्ध हो गया है, वह निश्चय ही भगवान् विष्णु के समान हो जाता है। Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. Type your email… Subscribe