ब्रह्मचारीसूक्त

विद्याध्ययन तथा ज्ञानार्जन बिना ब्रह्मचर्य व्रत के सफल नहीं हो सकता। ब्रह्मचर्य और ज्ञान का अभेद सम्बन्ध है। अध्यात्म-साधना की दृष्टि से ब्रह्मचर्य की जितनी महिमा है, उतनी ही लोक-जीवन के लिये भी उसकी आवश्यकता है। जो ब्रह्मचर्यव्रत धारण करता है, वह ब्रह्मचारी कहलाता है।
अथर्ववेद के ११ वें काण्ड में एक सूक्त पठित है, जो ब्रह्मचर्य तथा ब्रह्मचारी की महिमा में ही पर्यवसित है। इस सूक्त में २६ मन्त्र हैं, जिनके द्रष्टा ऋषि ब्रह्मा हैं। इसमें ब्रह्मचारी की महिमा तथा स्तुति करते हुए कहा गया है कि ब्रह्मचर्य धारण करने वाले में सभी देवता प्रतिष्ठित रहते हैं और ब्रह्मचारी के दिव्य प्रभाव से ही पृथिवी तथा द्युलोक स्थित रहते हैं। सबका कारणरूप जो सत्यज्ञानादि लक्षणात्मक ब्रह्म है, उससे सर्वप्रथम ब्रह्मचारी का प्राकट्य हुआ, इसलिये प्रथम जनन होने से ब्रह्मचारी सर्वश्रेष्ठ है।

ब्रह्मचारीष्णश्चरति रोदसी उभे तस्मिन् देवाः संमनसो भवन्ति ।
सदाधार पृथिवीं दिवं च स आचार्यं१ तपसा पिपर्ति ॥ १ ॥
ब्रह्मचारिणं पितरो देवजना: पृथग् देवा अनुसंयन्ति सर्वे ।
गन्धर्वा एनमन्वायन् त्रयस्त्रिंशत् त्रिशता:
षट्सहस्राः सर्वान्त्स देवांस्तपसा पिपर्ति ॥ २ ॥

ब्रह्मचारी पृथिवी और द्युलोक- इन दोनों को पुनः पुनः अनुकूल बनाता हुआ चलता है, इसलिये उस ब्रह्मचारी के अंदर सब देव अनुकूल मन के साथ रहते हैं। वह ब्रह्मचारी पृथिवी और द्युलोक का धारणकर्ता है और वह अपने तप से अपने आचार्य को परिपूर्ण बनाता है ॥ १ ॥
देव, पितर, गन्धर्व और देवजन – ये सब ब्रह्मचारी का अनुसरण करते हैं। तीन, तीस, तीन सौ और छः हजार देव हैं। इन सब देवोंका वह ब्रह्मचारी अपने तपसे पालन करता है ॥ २ ॥

आचार्य उपनयमानो ब्रह्मचारिणं कृणुते गर्भमन्तः ।
तं रात्रीस्तिस्त्र उदरे बिभर्ति तं जातं द्रष्टुमभिसंयन्ति देवाः ॥ ३ ॥
इयं समित् पृथिवि द्यौर्द्वितीयोतान्तरिक्षं समिधा पृणाति ।
ब्रह्मचारी समिधा मेखलया श्रमेण लोकांस्तपसा पिपर्ति ॥ ४ ॥
पूर्वी जातो ब्रह्मणो ब्रह्मचारी घर्मं वसानस्तपसोदतिष्ठत् ।
तस्माज्जातं ब्राह्मणं ब्रह्म ज्येष्ठं देवाश्च सर्वे अमृतेन साकम् ॥ ५ ॥
ब्रह्मचार्येति समिधा समिद्धः कार्ष्णं वसानो दीक्षितो दीर्घश्मश्रुः ।
स सद्य एति पूर्वस्मादुत्तरं समुद्रं लोकान्त्संगृभ्य मुहुराचरिक्रत् ॥ ६ ॥

ब्रह्मचारी को अपने पास करने वाला आचार्य उसको अपने अन्दर करता है। उस ब्रह्मचारी को अपने उदर में तीन रात्रि तक रखता है, जब वह ब्रह्मचारी द्वितीय जन्म लेकर बाहर आता है, तब उसको देखने के लिये सब विद्वान् सब प्रकार से इकट्ठे होते हैं ॥ ३ ॥
यह पृथिवी पहिली समिधा है, और दूसरी समिधा द्युलोक है। इस समिधा से वह ब्रह्मचारी अन्तरिक्ष को पूर्णता करता है। समिधा, मेखला, श्रम करने का अभ्यास और तप इनके द्वारा वह ब्रह्मचारी सब लोकों को पूर्ण करता है ॥ ४ ॥
ज्ञान के पूर्व ब्रह्मचारी होता है। उष्णता धारण करता हुआ तप से ऊपर उठता है । उस ब्रह्मचारी से ब्रह्मसम्बन्धी श्रेष्ठ ज्ञान प्रसिद्ध होता है तथा सब देव अमृत के साथ होते हैं ॥ ५ ॥
तेज से प्रकाशित कृष्णचर्म धारण करता हुआ, व्रत के अनुकूल आचरण करने वाला और बड़ी-बड़ी दाढ़ी-मूँछ धारण करने वाला ब्रह्मचारी प्रगति करता है। वह लोगों को इकट्ठा करता हुआ अर्थात् लोकसंग्रह करता हुआ और बारंबार उनको उत्साह देता है और पूर्व से उत्तर समुद्र तक शीघ्र ही पहुँचता है ॥ ६ ॥

ब्रह्मचारी जनयन् ब्रह्मापो लोकं प्रजापतिं परमेष्ठिनं विराजम् ।
गर्भो भूत्वामृतस्य योनाविन्द्रो ह भूत्वासुरांस्ततर्ह ॥ ७ ॥
आचार्यस्ततक्ष नभसी उभे इमे उर्वी गम्भीरे पृथिवीं दिवं च ।
ते रक्षति तपसा ब्रह्मचारी तस्मिन् देवाः संमनसो भवन्ति ॥ ८ ॥
इमां भूमिं पृथिवीं ब्रह्मचारी भिक्षामा जभार प्रथमो दिवं च ।
ते कृत्वा समिधावुपास्ते तयोरार्पिता भुवनानि विश्वा ॥ ९ ॥
अर्वागन्यः परो अन्यो दिवस्पृष्ठाद् गुहा निधी निहितौ ब्राह्मणस्य ।
तौ रक्षति ब्रह्मचारी तत् केवलं कृणुते ब्रह्म विद्वान् ॥ १० ॥
अर्वागन्य इतो अन्यः पृथिव्या अग्नी समेतो नभसी अन्तरेमे ।
तयोः श्रयन्ते रश्मयोऽधि दृढास्ताना तिष्ठति तपसा ब्रह्मचारी ॥ ११ ॥

जो ज्ञानामृत के केन्द्रस्थान में गर्भरूप रहकर ब्रह्मचारी हुआ, वही ज्ञान, कर्म, जनता, प्रजापालक राजा और विशेष तेजस्वी परमेष्ठी परमात्मा को प्रकट करता हुआ, अब इन्द्र बनकर निश्चय से असुरों का नाश करता है ॥ ७ ॥
ये बड़े गम्भीर दोनों लोक पृथिवी और द्युलोक आचार्य ने बनाये हैं। ब्रह्मचारी अपने तप से उन दोनों का रक्षण करता है। इसलिये उस ब्रह्मचारी के अन्दर सब देव अनुकूल मन के साथ रहते हैं ॥ ८ ॥
पहले ब्रह्मचारी ने इस विस्तृत भूमि की तथा द्युलोक की भिक्षा प्राप्त की है। अब वह ब्रह्मचारी उनकी दो समिधाएँ करके उपासना करता है; क्योंकि उन दोनों के बीच में सब भुवन स्थापित हैं ॥ ९ ॥
एक पास है और दूसरा द्युलोक के पृष्ठभाग से परे है। ये दोनों कोश ज्ञानी की बुद्धि में रखे हैं। उन दोनों कोशों का संरक्षण ब्रह्मचारी अपने तप से करता है तथा वही विद्वान् ब्रह्मचारी ब्रह्मज्ञान विस्तृत करता है, ज्ञान फैलाता है ॥ १० ॥
इधर एक है और इस पृथिवी से दूर दूसरा है। ये दोनों अग्नि इन पृथिवी और द्युलोक के बीच में मिलते हैं। उनकी बलवान् किरणें फैलती हैं। ब्रह्मचारी तप से उन किरणों का अधिष्ठाता होता है ॥ ११ ॥

अभिक्रन्दन् स्तनयन्नरुणः शितिङ्गो बृहच्छेपोऽनु भूमौ जभार ।
ब्रह्मचारी सिञ्चति सानौ रेतः पृथिव्यां तेन जीवन्ति प्रदिशश्चतस्त्रः ॥ १२ ॥
अग्नौ सूर्ये चन्द्रमसि मातरिश्वन् ब्रह्मचार्य१प्सु समिधमा दधाति ।
तासामर्चीषि पृथगभ्रे चरन्ति तासामाज्यं पुरुषो वर्षमापः ॥ १३ ॥
आचार्यो मृत्युर्वरुणः सोम ओषधयः पयः ।
जीमूता आसन्त्सत्वानस्तैरिदं स्व१राभृतम् ॥ १४ ॥
अमा घृतं कृणुते केवलमाचार्यो भूत्वा वरुणो यद्यदैच्छत् प्रजापतौ ।
तद् ब्रह्मचारी प्रायच्छत् स्वान् मित्रो अध्यात्मनः ॥ १५ ॥
आचार्यो ब्रह्मचारी ब्रह्मचारी प्रजापतिः ।
प्रजापतिर्वि राजति विराडिन्द्रोऽभवद् वशी ॥ १६ ॥

गर्जना करने वाला भूरे और काले रंग से युक्त बड़ा प्रभावशाली ब्रह्म अर्थात् उदक को साथ ले जाने वाला मेघ भूमि का योग्य पोषण करता है । तथा पहाड़ और भूमि पर जल की वृष्टि करता है। उससे चारों दिशाएँ जीवित रहती हैं ॥ १२ ॥
अग्नि, सूर्य, चन्द्रमा, वायु, जल इनमें ब्रह्मचारी समिधा डालता है। उनके तेज पृथक् पृथक् मेघों में संचार करते हैं। उनसे वृष्टि जल, घी और पुरुष की उत्पत्ति होती है ॥ १३ ॥
आचार्य ही मृत्यु, वरुण, सोम, औषधि तथा पयरूप है। उसके जो सात्त्विक भाव हैं, वे मेघरूप हैं; क्योंकि उनके द्वारा ही वह स्वत्त्व रहा है ॥ १४ ॥
एकत्व, सहवास, केवल शुद्ध तेज करता है। आचार्य वरुण बनकर प्रजापालक के विषय में जो-जो चाहता है, उसको मित्र ब्रह्मचारी अपनी आत्मशक्ति से देता है ॥ १५ ॥
आचार्य ब्रह्मचारी होना चाहिये, प्रजापालक भी ब्रह्मचारी होना चाहिये। इस प्रकार का प्रजापति विशेष शोभता है। जो संयमी राजा होता है, वही इन्द्र कहलाता है ॥ १६ ॥

ब्रह्मचर्येण तपसा राजा राष्ट्रं वि रक्षति ।
आचार्यो ब्रह्मचर्येण ब्रह्मचारिणमिच्छते ॥ १७ ॥
ब्रह्मचर्येण कन्या युवानं विन्दते पतिम् ।
अनड्वान् ब्रह्मचर्येणाश्वो घासं जिगीर्षति ॥ १८ ॥
ब्रह्मचर्येण तपसा देवा मृत्युमपाघ्नत ।
इन्द्रो ह ब्रह्मचर्येण देवेभ्यः स्व१राभरत् ॥ १९ ॥
ओषधयो भूतभव्यमहोरात्रे वनस्पतिः ।
संवत्सरः सहर्तुभिस्ते जाता ब्रह्मचारिणः ॥ २० ॥
पार्थिवा दिव्याः पशव आरण्या ग्राम्याश्च ये ।
अपक्षाः पक्षिणश्च ये ते जाता ब्रह्मचारिणः ॥ २१ ॥

ब्रह्मचर्यरूप तप के साधन से राजा राष्ट्र का विशेष संरक्षण करता है। आचार्य भी ब्रह्मचर्य के साथ रहने वाले ब्रह्मचारी की ही इच्छा करता है ॥ १७ ॥
कन्या ब्रह्मचर्य पालन करने के पश्चात् तरुण पति को प्राप्त करती है। बैल और घोड़ा भी ब्रह्मचर्य पालन करने से ही घास खाता है ॥ १८ ॥
ब्रह्मचर्यरूप तप से सब देवों ने मृत्यु को दूर किया । इन्द्र ब्रह्मचर्य से ही देवों को तेज देता है ॥ १९ ॥
औषधियाँ, वनस्पतियाँ, ऋतुओं के साथ गमन करने वाला संवत्सर, अहोरात्र, भूत और भविष्य – ये सब ब्रह्मचारी हो गये हैं ॥ २० ॥
पृथिवी पर उत्पन्न होने वाले अरण्य और ग्राम में उत्पन्न होने वाले जो पक्षहीन पशु हैं तथा आकाश में संचार करने वाले जो पक्षी हैं, वे सब ब्रह्मचारी बने हैं ॥ २१ ॥

पृथक् सर्वे प्राजापत्याः प्राणानात्मसु बिभ्रति ।
तान्त्सर्वान् ब्रह्म रक्षति ब्रह्मचारिण्याभृतम् ॥ २२ ॥
देवानामेतत् परिषूतमनभ्यारूढं चरति रोचमानम् ।
तस्माज्जातं ब्राह्मणं ब्रह्म ज्येष्ठं देवाश्च सर्वे अमृतेन साकम् ॥ २३ ॥
ब्रह्मचारी ब्रह्म भ्राजद् बिभर्ति तस्मिन् देवा अधि विश्वे समोताः ।
प्राणापानौ जनयन्नाद् व्यानं वाचं मनो हृदयं ब्रह्म मेधाम् ॥ २४ ॥
चक्षुः श्रोत्रं यशो अस्मासु धेह्यन्नं रेतो लोहितमुदरम् ॥ २५ ॥
तानि कल्पद् ब्रह्मचारी सलिलस्य पृष्ठे तपोऽतिष्ठत् तप्यमानः समुद्रे ।
स स्नातो बभ्रुः पिङ्गलः पृथिव्यां बहु रोचते ॥ २६ ॥

[ अथर्ववेद ११।५]

प्रजापति परमात्मा से उत्पन्न हुए सब ही पदार्थ पृथक्-पृथक् अपने अन्दर प्राणों को धारण करते हैं। ब्रह्मचारी में रहा हुआ ज्ञान उन सबका रक्षण करता है ॥ २२ ॥
देवों का यह उत्साह देने वाला सबसे श्रेष्ठ तेज चलता है। उससे ब्रह्मसम्बन्धी श्रेष्ठ ज्ञान हुआ है और अमर मन के साथ सब देव प्रकट हो गये ॥ २३ ॥
चमकने वाला ज्ञान ब्रह्मचारी धारण करता है। इसलिये उसमें सब देव रहते हैं । वह प्राण, अपान, व्यान, वाचा, मन, हृदय, ज्ञान और मेधा प्रकट करता है। इसलिये हे ब्रह्मचारी ! हम सबमें चक्षु, श्रोत्र, यश, अन्न, वीर्य, रुधिर और पेट पुष्ट करो ।। २४-२५ ।।
ब्रह्मचारी उनके विषय में योजना करता है। जल के समीप तप करता है। इस ज्ञानसमुद्र में तप्त होने वाला यह ब्रह्मचारी जब स्नातक हो जाता है, तब अत्यन्त तेजस्वी होने के कारण वह इस पृथिवी पर बहुत चमकता है ॥ २६ ॥

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