ब्रह्मवैवर्तपुराण-गणपतिखण्ड-अध्याय 11
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥
ग्यारहवाँ अध्याय
गणेश को देखने के लिये शनैश्चर का आना और पार्वती के पूछने पर अपने द्वारा किसी वस्तु के न देखने का कारण बताना

श्रीनारायणजी कहते हैं — नारद! इस प्रकार उस बालक को आशीर्वाद देकर श्रीहरि उस सभा में देवताओं और मुनियों के साथ एक रत्ननिर्मित श्रेष्ठ सिंहासन पर विराजमान हुए । उनके दक्षिणभाग में शंकर, वामभाग में प्रजापति ब्रह्मा और आगे धर्मात्माओं में श्रेष्ठ तथा जगत् के साक्षी धर्म ने आसन ग्रहण किया । ब्रह्मन् ! फिर धर्म के समीप सूर्य, इन्द्र, चन्द्रमा, देवगण, मुनि-समुदाय और पर्वत-समूह सुखपूर्वक आसनों पर बैठे।

गणेशब्रह्मेशसुरेशशेषाः सुराश्च सर्वे मनवो मुनीन्द्राः । सरस्वतीश्रीगिरिजादिकाश्च नमन्ति देव्यः प्रणमामि तं विभुम् ॥

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

इसी बीच महायोगी सूर्यपुत्र शनैश्चर शंकरनन्दन गणेश को देखने के लिये वहाँ आये। उनका मुख अत्यन्त नम्र था, आँखें कुछ मुँदी हुई थीं और मन एकमात्र श्रीकृष्ण में लगा हुआ था; अतः वे बाहर-भीतर श्रीकृष्ण का स्मरण कर रहे थे । वे तपःफल को खाने वाले, तेजस्वी, धधकती हुई अग्नि की शिखा के समान प्रकाशमान, अत्यन्त सुन्दर, श्यामवर्ण, पीताम्बरधारी और श्रेष्ठ थे । उन्होंने वहाँ पहले विष्णु, ब्रह्मा, शिव, धर्म, सूर्य, देवगणों और मुनिवरोंको प्रणाम किया। फिर उनकी आज्ञा से वे उस बालक को देखने के लिये गये । भीतर जाकर शनैश्चर ने सिर झुकाकर पार्वतीदेवी को नमस्कार किया।

उस समय वे पुत्र को छाती से चिपटाये रत्नसिंहासन पर विराजमान हो आनन्दपूर्वक मुस्करा रही थीं। पाँच सखियाँ निरन्तर उन पर श्वेत चँवर डुलाती जाती थीं । वे सखी द्वारा दिये गये सुवासित ताम्बूल को चबा रही थीं । उनके शरीरपर अग्नि से तपाकर शुद्ध की हुई सुन्दर साड़ी शोभायमान थी । रत्नों के आभूषण उनकी शोभा बढ़ा रहे थे । सहसा सूर्यनन्दन शनैश्चर को सिर झुकाये देखकर दुर्गा ने उन्हें शीघ्र ही शुभाशीर्वाद दिया और फिर उनसे वार्तालाप करके उनका कुशल-मङ्गल पूछा।

पार्वती ने पुन: पूछा — ग्रहेश्वर ! इस समय तुम्हारा मुख नीचे की ओर क्यों झुका हुआ है तथा तुम मुझे अथवा इस बालक की ओर देख क्यों नहीं रहे हो ? साधो ! मैं इसका कारण सुनना चाहती हूँ।

शनैश्चर ने कहा — साध्वि ! सारे जीव स्वकर्मानुसार अपनी करनी का फल भोगते हैं; क्योंकि जो भी शुभ अथवा अशुभ कर्म होता है, उसका करोड़ों कल्पों में भी नाश नहीं होता। जीव कर्मानुसार ब्रह्मा, इन्द्र और सूर्य के भवन में जन्म लेता है। कर्म से ही वह मनुष्य के घर में और कर्म से ही पशु आदि योनियों में उत्पन्न होता है । कर्म से वह नरक में जाता है और कर्म से ही उसे वैकुण्ठ की प्राप्ति होती है। स्वकर्मानुसार वह चक्रवर्ती राजा हो जाता है और अपने ही कर्म से वही नौकर भी होता है। माता ! कर्म से ही वह सुन्दर होता है और अपने कर्म के फलस्वरूप वह सदा रोगग्रस्त बना रहता है । कर्मानुसार ही वह विषय-प्रेमी और अपने कर्म से ही विषयों से निर्लिप्त रहता है । कर्म से ही वह लोक में धनवान्, कर्म से ही दरिद्र, कर्म से ही उत्तम कुटुम्बवाला और कर्म से ही बन्धुओं के लिये कण्टकरूप हो जाता है। अपने कर्म से ही जीव को उत्तम पत्नी, उत्तम पुत्र और निरन्तर सुख की प्राप्ति होती है तथा स्वकर्म से ही वह पुत्रहीन, दुष्ट स्वभावा स्त्री का स्वामी अथवा स्त्रीहीन होता है ।

शंकरवल्लभे ! मैं एक परम गोपनीय इतिहास, यद्यपि वह लज्जाजनक तथा माता के समक्ष कहने योग्य नहीं है, कहता हूँ, सुनिये। मैं बचपन से ही श्रीकृष्ण का भक्त था । मेरा मन सदा एकमात्र श्रीकृष्ण के ध्यान में ही लगा रहता था । मैं विषयों से विरक्त होकर निरन्तर तपस्या में रत रहता था । पिताजी ने चित्ररथ की कन्या से मेरा विवाह कर दिया । वह सती-साध्वी नारी अत्यन्त तेजस्विनी तथा सतत तपस्या में रत रहनेवाली थी । एक दिन ऋतुस्नान करके वह मेरे पास आयी। उस समय मैं भगवच्चरणों का ध्यान कर रहा था । मुझे बाह्यज्ञान बिलकुल नहीं था। पत्नी ने अपना ऋतुकाल निष्फल जानकर मुझे शाप दे दिया कि ‘तुम अब जिसकी ओर दृष्टि करोगे, वही नष्ट हो जायगा’ । तदनन्तर जब मैं ध्यान से विरत हुआ, तब मैंने उस सती को संतुष्ट किया; परंतु अब तो वह शाप से मुक्त कराने में असमर्थ थी; अतः पश्चात्ताप करने लगी।

माता ! इसी कारण मैं किसी वस्तु को अपने नेत्रों से नहीं देखता और तभी से मैं जीव-हिंसा के भय से स्वाभाविक ही अपने मुख को नीचे किये रहता हूँ।

मुने! शनैश्चर की बात सुनकर पार्वती हँसने लगीं और नर्तकियों तथा किन्नरियों का सारा समुदाय ठहाका मारकर हँस पड़ा। (अध्याय ११ )

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त्ते महापुराणे तृतीये गणपतिखण्डे नारदनारायणसंवादे शनिपार्वतीसंवादे शनेरधोदृष्टौ कारणकथनं नामैकादशोऽध्यायः ॥ ११ ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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