ब्रह्मवैवर्तपुराण-गणपतिखण्ड-अध्याय 13
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥
तेरहवाँ अध्याय
विष्णु आदि देवताओं द्वारा गणेश की अग्रपूजा, पार्वतीकृत विशेषोपचार सहित गणेशपूजन, विष्णुकृत गणेशस्तवन और ‘संसारमोहन’ नामक कवच का वर्णन

श्रीनारायणजी कहते हैं — नारद! तदनन्तर विष्णु ने शुभ समय आने पर देवों तथा मुनियों के साथ सर्वश्रेष्ठ उपहारों से उस बालक का पूजन किया और उससे यों कहा — ‘सुरश्रेष्ठ! मैंने सबसे पहले तुम्हारी पूजा की है; अतः वत्स ! तुम सर्वपूज्य तथा योगीन्द्र होओ।’

यों कहकर श्रीहरि ने उसके गले में वनमाला डाल दी और उसे मुक्तिदायक ब्रह्मज्ञान तथा सम्पूर्ण सिद्धियाँ प्रदान करके अपने समान बना दिया। फिर षोडशोपचार की सुन्दर वस्तुएँ दीं और मुनियों तथा देवों के साथ उसका इस प्रकार नामकरण किया — विघ्नेश, गणेश, हेरम्ब, गजानन, लम्बोदर, एकदन्त, शूर्पकर्ण और विनायक उसके ये आठ नाम रखे गये । पुनः सनातन श्रीहरि ने उन मुनियों को बुलवाकर उसे आशीर्वाद दिलाया । तदनन्तर सभी देव-देवियों ने तथा मुनियों आदि ने अनेक प्रकार के उपहार गणेश को दिये और फिर क्रमशः उन्होंने भक्तिपूर्वक उसकी पूजा की।

गणेशब्रह्मेशसुरेशशेषाः सुराश्च सर्वे मनवो मुनीन्द्राः । सरस्वतीश्रीगिरिजादिकाश्च नमन्ति देव्यः प्रणमामि तं विभुम् ॥

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

नारद! तदनन्तर जगज्जननी पार्वती ने, जिनका मुखकमल हर्ष के कारण विकसित हो रहा था, अपने पुत्र को रत्ननिर्मित सिंहासन पर बैठाया। फिर उन्होंने आनन्दपूर्वक समस्त तीर्थों के जल से भरे हुए सौ कलशों से मुनियों द्वारा वेद- मन्त्रोच्चारणपूर्वक उसे स्नान कराया और अग्नि में तपाकर शुद्ध किये हुए दो वस्त्र दिये । फिर पाद्य के लिये गोदावरी का जल, अर्घ्य के निमित्त गङ्गाजल और आचमन के हेतु दूर्वा, अक्षत, पुष्प और चन्दन से युक्त पुष्कर का जल लाकर दिया। रत्न-पात्र में रखे हुए शक्कर युक्त द्रव का मधुपर्क प्रदान किया । पुनः स्वर्गलोक के वैद्य अश्विनीकुमार द्वारा निर्मित स्नानोपयोगी विष्णुतैल, बहुमूल्य रत्नों के बने हुए सुन्दर आभूषण, पारिजात के पुष्पों की सौ मालाएँ, मालती, चम्पक आदि अनेक प्रकार के पुष्प, तुलसी के अतिरिक्त पूजोपयोगी तरह-तरह के पत्र, चन्दन, अगुरु, कस्तूरी, कुंकुम, ढेर-के-ढेर रत्नप्रदीप और धूप सादर समर्पित किये।

तत्पश्चात् उसे प्रिय लगने वाले नैवेद्यों — तिल के लड्डू, और गेहूँ के चूर्ण, पूड़ी, अत्यन्त स्वादिष्ट तथा मनोहर पक्वान्न, शर्करामिश्रित स्वादिष्ट स्वस्तिक के आकार का बना हुआ त्रिकोण पकवान विशेष, गुड़युक्त खील, चिउड़ा और अगहनी के चावल के आटे के बने हुए पदार्थ के नाना प्रकार के व्यञ्जनों के साथ पहाड़ लगा दिया। नारद! फिर उस पूजन में सुन्दरी पार्वती ने हर्ष में भरकर एक लाख घड़े, दूध, एक लाख घड़े दही, तीन लाख घड़े मधु और पाँच लाख घड़े घी सादर अर्पित किया । नारद! फिर अनार और बेल के असंख्य फल, भाँति-भाँति के खजूर, कैथ, जामुन, आम, कटहल, केला और नारियल के असंख्य फल दिये। इनके सिवा और भी जो ऋतु के अनुसार विभिन्न देशों में उत्पन्न हुए स्वादिष्ट एवं मधुर पके हुए फल थे, उन्हें भी महामाया ने समर्पित किया । पुनः आचमन और पान करने के लिये अत्यन्त निर्मल कर्पूर आदि से सुवासित स्वच्छ गङ्गाजल दिया । नारद! इसके बाद उसी प्रकार सुवासित उत्तम रमणीय पान के बीड़े और बायन से परिपूर्ण सैकड़ों स्वर्णपात्र दिये ।

तदनन्तर मेनका, हिमालय, हिमालयके पुत्र और प्रिय अमात्यों ने गिरिजा के पुत्र का पूजन किया । वहाँ उपस्थित ब्रह्मा, विष्णु और शिव आदि सभी देवता-

‘ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं गणेश्वराय ब्रह्मरूपाय चारवे ।
सर्वसिद्धिप्रदेशाय विघ्नेशाय नमो नमः ॥’

— इसी मन्त्र से भक्तिपूर्वक वस्तुएँ समर्पित करके परमानन्द में मग्न थे। इस मन्त्र में बत्तीस अक्षर हैं । यह सम्पूर्ण कामनाओं का दाता, धर्म, अर्थ, काम, मोक्षका फल देने वाला और सर्वसिद्धिप्रद है । इसके पाँच लाख जप से ही जापक को मन्त्रसिद्धि प्राप्त हो जाती है । भारतवर्ष में जिसे मन्त्रसिद्धि हो जाती है, वह विष्णु-तुल्य हो जाता है । उसके नाम-स्मरण से सारे विघ्न भाग जाते हैं। निश्चय ही वह महान् वक्ता, महासिद्ध, सम्पूर्ण सिद्धियों से सम्पन्न, श्रेष्ठ कवियों में भी श्रेष्ठ गुणवान्, विद्वानों के गुरु का गुरु तथा जगत् के लिये साक्षात् वाक्पति हो जाता है।

उस उत्सव के अवसर पर आनन्दमग्न हुए देवताओं ने इस मन्त्र से शिशु की पूजा करके अनेक प्रकार के बाजे बजवाये, उत्सव कराया, ब्राह्मणों को भोजन से तृप्त किया; फिर उन ब्राह्मणों को तथा विशेषतया वन्दियों को दान दिया।

॥ नारायण उवाच ॥
अथ विष्णुः सभामध्ये तं सम्पूज्य गणेश्वरम् ।
तुष्टाव परया भक्त्या सर्वविघ्नविनाशकम् ॥ ४० ॥
ईश त्वां स्तोतुमिच्छामि ब्रह्मज्योतिः सनातनम् ।
नैव वर्णयितुं शक्तोऽस्त्यनुरूपमनीहकम् ॥ ४१ ॥
प्रवरं सर्वदेवानां सिद्धानां योगिनां गुरुम् ।
सर्वस्वरूपं सर्वेशं ज्ञानराशिस्वरूपिणम् ॥ ४२ ॥
अव्यक्तमक्षरं नित्यं सत्यमात्मस्वरूपिणम् ।
वायुतुल्यं च निर्लिप्तं चाक्षतं सर्वसाक्षिणम् ॥ ४३ ॥
संसारार्णवपारे च मायापोते सुदुर्लभे ।
कर्णधारस्वरूपं च भक्तानुग्रहकारकम् ॥ ४४ ॥
वरं वरेण्यं वरदं वरदानामपीश्वरम् ।
सिद्धं सिद्धिस्वरूपं च सिद्धिदं सिद्धिसाधनम ॥ ४९ ॥
ध्यानातिरिक्तं ध्येयं च ध्यानासाध्यं च धार्मिकम् ।
धर्मस्वरूपं धर्मज्ञं धर्माधर्मफलप्रदम् ॥ ४६ ॥
बीजं संसारवृक्षाणामंकुरं च तदाश्रयम् ।
स्त्रीपुंनपुंसकानां च रूपमेतदतीन्द्रियम् ॥ ४७ ॥
सर्वाद्यमग्रपूज्यं च सर्वपूज्यं गुणार्णवम् ।
स्वेच्छया सगुणं ब्रह्म निर्गुणं स्वेच्छया पुनः ॥ ४८ ॥
स्वयं प्रकृतिरूपं च प्राकृतं प्रकृतेः परम् ।
त्वां स्तोतुमक्षमोऽनन्तः सहस्रवदनैरपि ॥ ४९ ॥
न क्षमः पञ्चवक्त्रश्च न क्षमश्चतुराननः ।
सरस्वती न शक्ता च न शक्तोऽहं तव स्तुतौ ॥
न शक्ताश्च चतुर्वेदाः के वा ते वेदवादिनः ॥ ५० ॥
इत्येवं स्तवनं कृत्वा मुनीशसुरसंसदि ।
सुरेशश्च सुरैः सार्द्धं विरराम रमापतिः ॥ ५१ ॥
इदं विष्णुकृतं स्तोत्रं गणेशस्य च यः पठेत् ।
सायं प्रातश्च मध्याह्ने भक्तियुक्तः समाहितः ॥ ५२ ॥
तद्विघ्ननाशं कुरुते विघ्नेशः सततं मुने ।
वर्द्धते सर्वकल्याणं कल्याणजनकः सदा ॥ ५३ ॥
यात्राकाले पठित्वा यो याति तद्भक्तिपूर्वकम् ।
तस्य सर्वाभीष्टसिद्धिर्भवत्येव न संशयः ॥ ५४ ॥
तेन दृष्टं च दुस्स्वप्नं सुस्वप्नमुपजायते ।
कदाऽपि न भवेत्तस्य ग्रहपीडा च दारुणा ॥ ५५ ॥
भवेद्विनाशः शत्रूणां बन्धूनां चापि वर्द्धनम् ।
शश्वद्विघ्नविनाशश्च शश्वत्सम्यग्विवर्द्धनम् ॥ ५६ ॥
स्थिरा भवेद्गृहे लक्ष्मीः पुत्रपौत्रविवर्द्धनम् ।
सर्वैश्वर्य्यमिह प्राप्य ह्यन्ते विष्णुपदं लभेत् ॥ ५७ ॥
फलं चापि च तीर्थानां यज्ञानां यद्भवेद्ध्रुवम् ।
महतां सर्वदानानां तद्गणेशप्रसादत ॥ ५८ ॥

श्रीनारायणजी कहते हैं — नारद! तदनन्तर उस सभा के बीच विष्णु परमभक्तिपूर्वक सम्पूर्ण विघ्नों के विनाशक उन गणेश्वर की भली-भाँति पूजा करके उनकी स्तुति करने लगे ।

श्रीविष्णु ने कहा — ईश ! मैं सनातन ब्रह्मज्योतिः स्वरूप आपका स्तवन करना चाहता हूँ, परंतु आपके अनुरूप निरूपण करने में मैं सर्वथा असमर्थ हूँ; क्योंकि आप इच्छारहित, सम्पूर्ण देवों में श्रेष्ठ, सिद्धों और योगियों के गुरु, सर्वस्वरूप, सर्वेश्वर, ज्ञानराशिस्वरूप, अव्यक्त, अविनाशी, नित्य, सत्य, आत्मस्वरूप, वायु के समान अत्यन्त निर्लेप, क्षतरहित, सबके साक्षी, संसार-सागर से पार होने के लिये परम दुर्लभ मायारूपी नौका के कर्णधारस्वरूप, भक्तों पर अनुग्रह करने वाले, श्रेष्ठ, वरणीय, वरदाता, वरदानियों के भी ईश्वर, सिद्ध, सिद्धिस्वरूप, सिद्धिदाता, सिद्धि के साधन, ध्यान से अतिरिक्त ध्येय, ध्यान द्वारा असाध्य, धार्मिक, धर्मस्वरूप, धर्म के ज्ञाता, धर्म और अधर्म का फल प्रदान करने वाले, संसार-वृक्ष बीज, अंकुर और उसके आश्रय, स्त्री-पुरुष और नपुंसक के स्वरूप में विराजमान तथा इनकी इन्द्रियों से परे, सबके आदि, अग्रपूज्य, सर्वपूज्य, गुण के सागर, स्वेच्छा से सगुण ब्रह्म तथा स्वेच्छा से ही निर्गुण ब्रह्म का रूप धारण करने वाले, स्वयं प्रकृतिरूप और प्रकृति से परे प्राकृतरूप हैं। शेष अपने सहस्रों मुखों से भी आपकी स्तुति करने में असमर्थ हैं। आपके स्तवन में न पञ्चमुख महेश्वर समर्थ हैं न चतुर्मुख ब्रह्मा ही; न सरस्वती की शक्ति है और न मैं ही कर सकता हूँ। न चारों वेदों की ही शक्ति है, फिर उन वेदवादियों की क्या गणना ?

इस प्रकार देवसभा में देवताओं के साथ सुरेश्वर गणेश की स्तुति करके सुराधीश रमापति मौन हो गये।

मुने! जो मनुष्य एकाग्रचित्त हो भक्तिभाव से प्रातः, मध्याह्न और सायंकाल इस विष्णुकृत गणेशस्तोत्र का सतत पाठ करता है, विघ्नेश्वर उसके समस्त विघ्नों का विनाश कर देते हैं, सदा उसके सब कल्याणों की वृद्धि होती है और वह स्वयं कल्याणजनक हो जाता है। जो यात्राकाल में भक्तिपूर्वक इसका पाठ करके यात्रा करता है, निस्संदेह उसकी सभी अभीप्सित कामनाएँ सिद्ध हो जाती हैं। उसके द्वारा देखा गया दुःस्वप्न सुस्वप्न में परिणत हो जाता है। उसे कभी दारुण ग्रहपीड़ा नहीं भोगनी पड़ती। उसके शत्रुओं का विनाश और बन्धुओं का विशेष उत्कर्ष होता है । निरन्तर विघ्नों का क्षय और सदा सम्पत्ति की वृद्धि होती रहती है। उसके घर में पुत्र-पौत्र को बढ़ानेवाली लक्ष्मी स्थिररूप से वास करती हैं। वह इस लोक में सम्पूर्ण ऐश्वर्यों का भागी होकर अन्त में विष्णु-पद को प्राप्त हो जाता है। तीर्थों, यज्ञों और सम्पूर्ण महादानों से जो फल मिलता है, वह उसे श्रीगणेश की कृपा से प्राप्त हो जाता है — यह ध्रुव सत्य है ।

नारदजी ने कहा — प्रभो ! गणेश के स्तोत्र तथा उनके मनोहर पूजन को तो मैंने सुन लिया, अब मुझे जन्म-मृत्यु चक्र से छुड़ाने वाले कवच के सुनने की इच्छा है।

श्रीनारायण ने कहा — नारद! उस देवसभा के मध्य जब गणेश की पूजा समाप्त हुई, तब शनैश्चर ने सबके तारक जगद्गुरु विष्णु से कहा ।

शनैश्चर बोले — वेदवेत्ताओं में श्रेष्ठ भगवन् ! सम्पूर्ण दुःखों के विनाश और दुःख की पूर्णतया शान्ति के लिये विघ्नहन्ता गणेश के कवच का वर्णन कीजिये । प्रभो ! हमारा मायाशक्ति के साथ विवाद हो गया है; अतः उस विघ्न के प्रशमन के लिये मैं उस कवच को धारण करूँगा ।

तदनन्तर भगवान् विष्णु ने कवच की गोपनीयता और महिमा बतलाते हुए कहा — सूर्यनन्दन ! दस लाख जप करने से कवच सिद्ध हो जाता है। जो मनुष्य कवच सिद्ध कर लेता है, वह मृत्यु को जीतने में समर्थ हो जाता है । सिद्ध-कवच वाला मनुष्य उसके ग्रहणमात्र से भूतल पर वाग्मी, चिरजीवी, सर्वत्र विजयी और पूज्य हो जाता है। इस मालामन्त्र को तथा इस पुण्य-कवच को धारण करने वाले मनुष्यों के सारे पाप निश्चय ही नष्ट हो जाते हैं। भूत, प्रेत, पिशाच, कूष्माण्ड, ब्रह्मराक्षस, डाकिनी, योगिनी, बेताल आदि, बालग्रह, ग्रह तथा क्षेत्रपाल आदि कवच के शब्दमात्र के श्रवण से भयभीत होकर भाग खड़े होते हैं। जैसे गरुड़ के निकट सर्प नहीं जाते, उसी तरह कवचधारी पुरुषों के संनिकट आधि (मानसिक रोग), व्याधि ( शारीरिक रोग) और भयदायक शोक नहीं फटकते । इसे अपने सरल स्वभाव वाले गुरुभक्त शिष्य को ही बतलाना चाहिये ।

॥ संसार मोहन गणेश कवचम् ॥
विनियोगः- ॐ अस्य श्री गणेश कवच मंत्रस्य, प्रजापतिः ऋषिः, वृहती छन्दः , श्रीगजमुख विनायको देवता, गं बीजं, गीं शक्तिः, गः कीलकम्, धर्मकामार्थमोक्षेषु, श्री गणपति प्रीत्यर्थे जपे विनियोगः ।
संसारमोहकस्यास्य कवचस्य प्रजापतिः ।
ऋषिश्छन्दश्च बृहती देवो लम्बोदरः स्वयम् ॥ ८१ ॥
धर्मार्थकाममोक्षेषु विनियोगः प्रकीर्त्तितः ।
सर्वेषां कवचानां च सारभूतमिदं मुने ॥ ८२ ॥
ॐ गं हुं श्रीगणेशाय स्वाहा मे पातु मस्तकम् ।
द्वात्रिंशदक्षरो मन्त्रो ललाटं मे सदाऽवतु ॥ ८३ ॥
ॐ ह्रीं क्लीं श्रीं गमिति वै सततं पातु लोचनम् ।
तालुके पातु विघ्नेशः सततं धरणीतले ॥ ८४ ॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीमिति परं सन्ततं पातु नासिकाम् ।
ॐ गौं गं शूर्पकर्णाय स्वाहा पात्वधरं मम ॥ ८५ ॥
दन्तांश्च तालुकां जिह्वां पातु मे षोडशाक्षरः ।
ॐ लं श्रीं लम्बोदरायेति स्वाहा गण्डं सदाऽवतु ॥ ८६ ॥
ॐ क्लीं ह्रीं विघ्ननाशाय स्वाहा कर्णं सदाऽवतु ।
ॐ श्रीं गं गजाननायेति स्वाहा स्कन्धं सदाऽवतु ॥ ८७ ॥
ॐ ह्रीं विनायकायेति स्वाहा पृष्ठं सदाऽवतु ।
ॐ क्लीं ह्रीमिति कङ्कालं पातु वक्षःस्थलं परम् ॥ ८८ ॥
करौ पादौ सदा पातु सर्वांगं विघ्ननाशकृत् ।
प्राच्यां लम्बोदरः पातु चाग्नेय्यां विघ्ननायकः ॥ ८९ ॥
दक्षिणे पातु विश्वेशो नैर्ऋत्यां तु गजाननः ।
पश्चिमे पार्वतीपुत्रो वायव्यां शंकरात्मजः ॥ ९० ॥
कृष्णस्यांशश्चोत्तरे च परिपूर्णतमस्य च ।
ऐशान्यामेकदन्तश्च हेरम्बः पातु चोर्ध्वतः ॥ ९१ ॥
अधो गणाधिपः पातु सर्वपूज्यश्च सर्वतः ।
स्वप्ने जागरणे चैव पातु मां योगिनां गुरुः ॥ ९२ ॥
इति ते कथितं वत्स सर्वमन्त्रौघविग्रहम् ।
संसारमोहनं नाम कवचं परमाद्भुतम् ॥ ९३ ॥
श्रीकृष्णेन पुरा दत्तं गोलोके रासमण्डले ।
वृन्दावने विनीताय मह्यं दिनकरात्मज ॥ ९४ ॥
मया दत्तं च तुभ्यं च यस्मै कस्मै न दास्यसि ।
परं वरं सर्वपूज्यं सर्वसंकटतारणम् ॥ ९५ ॥
गुरुमभ्यर्च्य विधिवत्कवचं धारयेत्तु यः ।
कण्ठे वा दक्षिणे बाहौ सोऽपि विष्णुर्न संशयः ॥ ९६ ॥
अश्वमेधसहस्राणि वाजपेयशतानि च ।
ग्रहेन्द्र कवचस्यास्य कलां नार्हन्ति षोडशीम् ॥ ९७ ॥
इदं कवचमज्ञात्वा यो भजेच्छंकरात्मजम् ।
शतलक्षप्रजप्तोऽपि न मन्त्रः सिद्धिदायकः ॥ ९८ ॥
॥ इति संसारमोहनं नाम कवचम् ॥

शनैश्चर! इस ‘संसारमोहन’ नामक कवच के प्रजापति ऋषि हैं, बृहती छन्द है और स्वयं लम्बोदर गणेश देवता हैं । धर्म, अर्थ, काम और मोक्षमें इसका विनियोग कहा गया है। मुने ! यह सम्पूर्ण कवचों का सारभूत है। ‘ॐ गं हुं श्रीगणेशाय स्वाहा’ यह मेरे मस्तक की रक्षा करे । बत्तीस अक्षरों वाला मन्त्र सदा मेरे ललाट को बचावे । ‘ॐ ह्रीं क्लीं श्रीं गम्’ यह निरन्तर मेरे नेत्रों की रक्षा
करे । विघ्नेश भूतल पर सदा मेरे तालु की रक्षा करें । ‘ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं’ यह निरन्तर मेरी नासिका की रक्षा करे तथा ‘ॐ गौं गं शूर्पकर्णाय स्वाहा’ यह मेरे ओठ को सुरक्षित रखे । षोडशाक्षर – मन्त्र मेरे दाँत, तालु और जीभ को बचावे। ‘ॐ लं श्रीं लम्बोदराय स्वाहा’ सदा गण्डस्थल की रक्षा करे । ‘ॐ क्लीं ह्रीं विघ्ननाशाय स्वाहा’ सदा कानोंकी रक्षा करे । ‘ ॐ श्रीं गं गजाननाय स्वाहा’ सदा कंधों की रक्षा करे | ‘ॐ ह्रीं विनायकाय स्वाहा’ सदा पृष्ठभाग की रक्षा करे । ‘ ॐ क्लीं ह्रीं’ कंकाल की और ‘गं’ वक्षःस्थल की रक्षा करे। विघ्ननिहन्ता हाथ, पैर तथा सर्वाङ्ग को सुरक्षित रखे । पूर्वदिशा में लम्बोदर और अग्निकोण में विघ्ननायक रक्षा करें। दक्षिण में विघ्नेश और नैर्ऋत्यकोण में गजानन रक्षा करें। पश्चिम में पार्वतीपुत्र, वायव्यकोण में शंकरात्मज, उत्तर में परिपूर्णतम श्रीकृष्ण का अंश, ईशानकोण में एकदन्त और ऊर्ध्वभाग में हेरम्ब रक्षा करें । अधोभाग में सर्वपूज्य गणाधिप सब ओर से मेरी रक्षा करें। शयन और जागरणकाल में योगियों के गुरु मेरा पालन करें।

वत्स! इस प्रकार जो सम्पूर्ण मन्त्रसमूहों का विग्रहस्वरूप है, उस परम अद्भुत संसारमोहन नामक कवच का तुमसे वर्णन कर दिया। सूर्यनन्दन ! इसे प्राचीनकाल में गोलोक के वृन्दावन में रासमण्डल के अवसर पर श्रीकृष्ण ने मुझ विनीत को दिया था । वही मैंने तुम्हें प्रदान किया है। तुम इसे जिस-किसी को मत दे डालना । यह परम श्रेष्ठ, सर्वपूज्य और सम्पूर्ण संकटों से उबारनेवाला है। जो मनुष्य विधिपूर्वक गुरु की अभ्यर्चना करके इस कवच को गले में अथवा दक्षिण भुजा पर धारण करता है, वह निस्संदेह विष्णु ही है । ग्रहेन्द्र ! हजारों अश्वमेध और सैकड़ों वाजपेय-यज्ञ इस कवच की सोलहवीं कला की समानता नहीं कर सकते। जो मनुष्य इस कवच को जाने बिना शंकर सुवन गणेश की भक्ति करता है, उसके लिये सौ लाख जपने पर भी मन्त्र सिद्धिदायक नहीं होता। *

इस प्रकार सूर्यपुत्र शनैश्चर को यह कवच प्रदान करके सुरेश्वर विष्णु चुप हो गये। तब समीप में स्थित परमानन्द में निमग्न हुए देवताओं ने कहा । (अध्याय १३)

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त्ते महापुराणे तृतीये गणपतिखण्डे नारदनारायणसंवादे गणेशपूजास्तवकवचकथनं नाम त्रयोदशोऽध्यायः ॥ १३ ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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