February 13, 2025 | aspundir | Leave a comment ब्रह्मवैवर्तपुराण-गणपतिखण्ड-अध्याय 18 ॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥ अठारहवाँ अध्याय गणेश शिरश्छेदन के वर्णन के प्रसङ्ग में शंकर द्वारा सूर्य का मारा जाना, कश्यप का शिव को शाप देना, सूर्य का जीवित होना और माली-सुमाली की रोगनिवृत्ति नारद ने पूछा — महाभाग नारायण ! आप तो वेदवेदाङ्गों के पारगामी विद्वान् हैं । परमेश्वर ! मैं आपसे एक बहुत बड़े संदेह का समाधान जानना चाहता हूँ । प्रभो ! जो देवेश्वर महात्मा शंकर के पुत्र तथा विघ्नों के विनाशक हैं, उन गणेश्वर के लिये जो विघ्न घटित हुआ, उसका क्या कारण है ? जब परिपूर्णतम परात्पर परमात्मा श्रीमान् गोलोकनाथ स्वयं ही अपने अंश से पार्वती के पुत्र होकर उत्पन्न हुए थे, तब उन ग्रहाधिराज भगवान् श्रीकृष्ण के मस्तक का ग्रह की दृष्टि से कट जाना बड़े आश्चर्य की बात है । आप इस वृत्तान्त को मुझे बतलाने की कृपा करें । ॐ नमो भगवते वासुदेवाय श्रीनारायण ने कहा — ब्रह्मन् ! विघ्नेश्वर का यह विघ्न जिस कारण से हुआ था, उस प्राचीन इतिहास को तुम सावधान होकर श्रवण करो । नारद! एक समय की बात है । भक्तवत्सल शंकर ने माली और सुमाली को मारने वाले सूर्य पर बड़े क्रोध के साथ त्रिशूल से प्रहार किया। वह शिव के समान तेजस्वी त्रिशूल अमोघ था। अतः उसकी चोट से सूर्य की चेतना नष्ट हो गयी और वे तुरंत ही रथ से नीचे गिर पड़े। जब कश्यपजी ने देखा कि मेरे पुत्र की आँखें ऊपर को चढ़ गयी हैं और वह चेतनाहीन हो गया है, तब वे उसे छाती से लगाकर फूट-फूटकर विलाप करने लगे। उस समय सारे देवताओं में हाहाकार मच गया। वे सभी भयभीत होकर जोर-जोर से रुदन करने लगे। अन्धकार छा जाने से सारा जगत् अंधीभूत हो गया। तब ब्रह्मा के पौत्र तपस्वी कश्यपजी, जो ब्रह्मतेज से प्रज्वलित हो रहे थे, अपने पुत्र को प्रभाहीन देखकर शिव को शाप देते हुए बोले — ‘जिस प्रकार आज तुम्हारे त्रिशूल से मेरे पुत्र का वक्षःस्थल विदीर्ण हो गया है, उसी तरह तुम्हारे पुत्र का मस्तक कट जायगा ।’ शिवजी आशुतोष तो हैं ही; अतः क्षणमात्र में ही उनका क्रोध जाता रहा। तब उन्होंने उसी क्षण ब्रह्मज्ञान द्वारा सूर्य को जीवित कर दिया । तदनन्तर जो ब्रह्मा, विष्णु और महेश के अंश से उत्पन्न हैं, वे त्रिगुणात्मक भक्तवत्सल सूर्य चेतना प्राप्त करके पिता के समक्ष खड़े हुए। फिर भक्तिपूर्वक पिता को तथा शंकर को नमस्कार किया। साथ ही (पिता द्वारा दिये गये) शम्भु शाप को जानकर वे कश्यपजी पर क्रुद्ध हो गये, जिससे उन्होंने अपने विषय को ग्रहण नहीं किया और क्रोधावेश में यों कहा — ‘ईश्वर के बिना यह सब कुछ तुच्छ, अनित्य और नश्वर है, अतः विद्वान् को चाहिये कि वह मङ्गलकारक सत्य को छोड़कर अमङ्गल की इच्छा न करे । इसलिये अब मैं विषय का परित्याग करके परमेश्वर श्रीकृष्ण का भजन करूँगा ।’ यह सुनकर देवताओं ने ब्रह्मा को प्रेरित किया, तब उन प्रभु ने शीघ्रतापूर्वक वहाँ पधारकर सूर्य को समझाया और उन्हें इनके कार्य पर नियुक्त किया। फिर ब्रह्मा, शिव और कश्यप आनन्दपूर्वक सूर्य को आशीर्वाद देकर अपने-अपने भवन को चले गये। इधर सूर्य भी अपनी राशि पर आरूढ़ हुए। तत्पश्चात् माली और सुमाली व्याधिग्रस्त हो गये । उनके शरीर में सफेद कोढ़ हो गयी, जिससे सारा अङ्ग गल गया, शक्ति जाती रही और प्रभा नष्ट हो गयी । तब स्वयं ब्रह्मा ने उन दोनों से कहा — ‘सूर्य के कोप से ही तुम दोनों हतप्रभ हो गये हो और तुम्हारा शरीर गल गया है, अतः तुम लोग सूर्य का भजन करो।’ फिर ब्रह्मा उन दोनों को सूर्य का कवच, स्तोत्र और पूजा की सारी विधि बतलाकर ब्रह्मलोक को चले गये। मुने! तदनन्तर वे दोनों पुष्कर में जाकर सूर्य का भजन करने लगे। वहाँ वे तीनों काल स्नान करके भक्तिपूर्वक उत्तम सूर्य-मन्त्र जप में तल्लीन हो गये। फिर समयानुसार सूर्य से वरदान पाकर वे पुनः अपने असली रूप में आ गये। इस प्रकार मैंने यह सारा वृत्तान्त वर्णन कर दिया, अब और क्या सुनना चाहते हो ? (अध्याय १८) ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त्ते महापुराणे तृतीये गणपतिखण्डे नारदनारायणसंवादे विघ्नेशविघ्नकथनंनामाष्टादशोऽध्यायः ॥ १८ ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Content is available only for registered users. Please login or register Please follow and like us: Related