ब्रह्मवैवर्तपुराण-गणपतिखण्ड-अध्याय 20
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥
बीसवाँ अध्याय
भगवान् नारायण के निवेदित पुष्प की अवहेलना से इन्द्र का श्रीभ्रष्ट होना

नारद बोले आप भगवान् के अंश से उत्पन्न एवं बुद्धि, तेज और विक्रम में उन्हीं के समान हैं, अतः मेरा प्रश्न सुनने की कृपा करें । मैंने विघ्ननाशक (गणेश) की परमाद्भुत विघ्नकथा सुन ली और विश्व के कारण (भगवान्) के मुख से उस विघ्न का कारण भी सुन लिया है। तीनों लोकों के स्वामी शंकर के पुत्र को (गणेश के घड़ पर ) जो हाथी का मुख जोड़ा गया है, मुझे सन्देह है । अतः उसके निवारणार्थ मैं इस समय वही सुनना चाहता हूँ । हे ब्रह्मपते ! अन्य अनेक जीव-जन्तुओं और अनेक भाँति के उत्तम प्राणियों के विभिन्न प्रकार के सुन्दर रूपों के रहते हाथी का ही मुख उनके घड़ पर क्यों जोड़ा गया ।

श्रीनारायण ने कहा — नारद! एक बार देवराज इन्द्र निर्जन वन में, एक पुष्पोद्यान में गये थे । वहाँ रम्भा अप्सरा से उनका समागम हुआ । तदनन्तर वे दोनों जल-विहार करने लगे। इसी बीच मुनिश्रेष्ठ दुर्वासा वैकुण्ठ से कैलास जाते हुए शिष्यमण्डली सहित वहाँ आ पहुँचे । देवराज इन्द्रने उन्हें प्रणाम किया। मुनि ने आशीर्वाद दिया । फिर भगवान् नारायण का दिया हुआ पारिजात-पुष्प इन्द्र को उसका कुछ माहात्म्य भी उन्हें बतलाया, जो अपूर्व था।

दुर्वासा बोले — ‘देवराज ! भगवान् नारायण के निवेदित यह पुष्प सब विघ्नों का नाश करने वाला है। यह जिसके मस्तक पर रहेगा, वह सर्वत्र विजय प्राप्त करेगा और देवताओं में अग्रगण्य होकर अग्रपूजा का अधिकारी होगा ।  महालक्ष्मी छाया की तरह सदा उसके साथ रहेगी। वह ज्ञान, तेज, बुद्धि, बल — सभी बातों में सब देवताओं से श्रेष्ठ और भगवान् हरि के तुल्य पराक्रमी होगा । परंतु जो पामर अहंकारवश भगवान् श्रीहरि के निवेदित इस पुष्प को मस्तक पर धारण नहीं करेगा, वह अपनी जातिवालों के सहित श्रीभ्रष्ट हो जायगा।’

इतना कहकर दुर्वासाजी शंकरालय को चले गये । इन्द्र ने उस पुष्प को अपने सिर पर न धारण करके ऐरावत हाथी के मस्तक पर रख दिया। इससे इन्द्र श्री भ्रष्ट हो गये। इन्द्र को श्रीभ्रष्ट देख रम्भा उन्हें छोड़कर स्वर्ग चली गयी । गजराज इन्द्र को नीचे गिराकर महान् अरण्य में चला गया और हथिनी के साथ विहार करने लगा। उस वन में उसके बहुत-से बच्चे हुए। इसी समय श्रीहरि ने उस हाथी का मस्तक काटकर बालक (गणेश) – के सिर पर लगा दिया । वत्स ! गजमुख के लगाने का प्रसङ्ग तुमको सुना दिया। इसके श्रवण से पाप नष्ट होते हैं। अब और क्या सुनना चाहते हो, सो कहो ।  ( अध्याय २०)

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त्ते महापुराणे तृतीये गणपतिखण्डे नारदनारायणसंवादे गणपतेर्गजास्ययोजनाहेतुकथनं नाम विंशतितमोऽध्यायः ॥ २० ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

See Also ब्रह्मवैवर्तपुराण-प्रकृतिखण्ड अध्याय 36 से 39

इन्द्र को दुर्वासा के शाप का वर्णन
महालक्ष्मी के देवलोक-त्याग और इन्द्र के दुःखी होकर बृहस्पति के पास जाने का वर्णन
भगवती लक्ष्मी का समुद्र से प्रकट होना
इन्द्र के द्वारा महालक्ष्मी के ध्यान तथा स्तवन किये जाने और पुनः अधिकार प्राप्त किये जाने का वर्णन

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