ब्रह्मवैवर्तपुराण-गणपतिखण्ड-अध्याय 24
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥
चौबीसवाँ अध्याय
गणेश के एकदन्त-वर्णन-प्रसङ्ग में जमदग्नि के आश्रम पर कार्तवीर्य का स्वागत सत्कार, कार्तवीर्य का बलपूर्वक कामधेनु को हरण करने की इच्छा प्रकट करना, कामधेनु द्वारा उत्पन्न की हुई सेना के साथ कार्तवीर्य की सेना का युद्ध

नारदजी ने पूछा — हरि के अंश से उत्पन्न हुए महाभाग नारायण! आपकी कृपा से मैंने गणेश का सारा शुभ चरित सुन लिया। किंतु ब्रह्मन् ! विष्णु ने उस बालक के धड़ पर गजराज के दो दाँतों वाले मुख को जोड़ा था; फिर वह शिशु एकदन्त कैसे हो गया? उसका वह दूसरा दाँत कहाँ चला गया ? वह प्रसङ्ग बतलाने की कृपा कीजिये; क्योंकि आप सर्वेश्वर, सर्वज्ञ, कृपालु और भक्तवत्सल हैं।

नारायण ने कहा — नारद! एकदन्त का चरित सम्पूर्ण मङ्गलों का मङ्गल करनेवाला है। मैं उस प्राचीन इतिहास का वर्णन करता हूँ, सुनो।

गणेशब्रह्मेशसुरेशशेषाः सुराश्च सर्वे मनवो मुनीन्द्राः । सरस्वतीश्रीगिरिजादिकाश्च नमन्ति देव्यः प्रणमामि तं विभुम् ॥

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

मुने ! एक समय की बात है, राजा कार्तवीर्य शिकार खेलने के लिये वन में गया। वहाँ वह बहुत-से वन्य पशुओं का वध करके थक गया। इतने में सूर्यास्त हो चला, तब उस राजा ने सायंकाल में सेना सहित वहीं वन में जमदग्नि ऋषि के आश्रम के निकट पड़ाव डाल दिया और बिना कुछ खाये-पीये रात्रि व्यतीत की । प्रातःकाल राजा सरोवर में स्नान करके पवित्र हुआ और अपने शरीर को अलंकृत करके दत्तात्रेय द्वारा दिये गये मन्त्र का भक्तिपूर्वक जप करने लगा। मुनिवर जमदग्नि ने देखा कि राजा के कण्ठ, ओष्ठ और तालु सूख गये हैं; तब उन्होंने प्रेम के साथ आदरपूर्वक कोमल वाणी से राजा का कुशल-समाचार पूछा ।

तदनन्तर राजा ने बड़ी उतावली के साथ सूर्य के समान तेजस्वी मुनि को प्रणाम किया और मुनि ने चरणों में पड़े हुए राजा को स्नेहपूर्वक शुभाशीर्वाद दिया । राजा ने अपने उपवास आदि का सारा वृत्तान्त कह सुनाया; तब मुनि ने तुरंत ही डरते-डरते राजा को निमन्त्रण दे दिया। इसके बाद मुनिश्रेष्ठ जमदग्नि हर्षपूर्वक अपने आश्रम को लौट आये और वहाँ उन्होंने लक्ष्मी-सदृशी माता कामधेनु से सारा वृत्तान्त कह सुनाया।

तब कामधेनु भयभीत हुए मुनि से बोली ‘मुने! मेरे रहते आपको भय कैसा ? आप तो मेरे द्वारा सारे जगत्‌ को भोजन कराने में समर्थ हैं; फिर राजा की क्या बात है ? आप राजाओं के भोजन-योग्य त्रिलोकी में दुर्लभ जिन-जिन पदार्थों की याचना करेंगे, वह सब मैं आपको प्रदान करूंगी।’

तदनन्तर कामधेनु ने अनेक प्रकार के भोजन करने के योग्य सोने और चाँदी के बर्तन, असंख्यों भोजन बनाने के पात्र और बहुत-से स्वादिष्ट पदार्थों से परिपूर्ण बर्तन मुनि को दिये । फिर नाना प्रकार के स्वादिष्ट और पके हुए कटहल, आम, नारियल और बेल के फल प्रदान किये। नारद! स्वादिष्ट लड्डुओं की तो असंख्य ढेरियाँ लग गयीं। जौ और गेहूँ के आटे की बनी हुई पूड़ियों और भाँति-भाँति के पकवानों का पर्वत तथा उत्तम उत्तम अन्नों का ढेर लग गया। दूध, दही और घी की नदियाँ बह चलीं। शक्कर का ढेर तथा मोदकों का पहाड़ लग गया। उत्तम धान के चिउड़ों का पर्वत-सा ढेर लगा दिया। फिर कौतुकवश राजाओं के योग्य पूर्णतया कर्पूर आदि से सुवासित ताम्बूल और सुन्दर वस्त्राभूषण प्रदान किया । इस प्रकार सामग्री से सम्पन्न हो मुनि ने खेल-ही-खेल में सेना सहित राजा को मनोहर पदार्थ देकर भोजन कराया। तब जो-जो वस्तुएँ परम दुर्लभ थीं, उन्हें भरी-पूरी देखकर राजाधिराज कार्तवीर्य को महान् विस्मय हुआ । फिर उन बर्तनों को देखकर वह कहने लगा ।

राजा ने कहा — सचिव ! जरा पता तो लगाओ कि ये दुर्लभ पदार्थ सहसा कहाँ से आ गये ? ये मेरे लिये असाध्य हैं और बहुतों का तो मैंने नाम भी नहीं सुना है ।

मन्त्री बोला — महाराज ! मैंने मुनि के आश्रम में सब कुछ देख लिया है, सुनिये। वहाँ तो अग्निकुण्ड, समिधा, कुश, पुष्प, फल, कृष्णमृगचर्म, स्रुवा, स्रुक्, शिष्यसमुदाय और सूर्य के तेज के आधार पर पकने वाले अन्न आदि ही हैं। वह सम्पूर्ण सम्पत्तियों से रहित है । वहाँ मैंने यह भी देखा है कि सभी लोग जटाधारी हैं और वृक्षों की छाल ही उनका वस्त्र है । परंतु आश्रम के एक भाग में मैंने एक मनोहर कपिला गौ को देखा है। उसके अङ्ग बड़े सुन्दर हैं। चाँदनीकी-सी उसकी कान्ति है और लाल कमल के समान उसके नेत्र हैं। पूर्णिमा के चन्द्रमाकी-सी कान्तिमती वह गौ वहाँ तेज से उद्दीप्त हो रही थी। वही साक्षात् लक्ष्मी की तरह सम्पूर्ण सम्पत्तियों और गुणों की आधार है ।

तदनन्तर मन्त्री के कहने पर वह दुर्बुद्धि राजा मुनि से उस गौ की याचना करने के लिये उद्यत हो गया; क्योंकि वह उस समय सर्वथा कालपाश से बँधा हुआ था। भला, पुण्य अथवा उत्तम बुद्धि क्या कर सकती है; क्योंकि होनहार ही सब तरह से बली होता है । इसी कारण पुण्यवान् एवं बुद्धिमान् होकर भी राजेन्द्र कार्तवीर्य दैववश ब्राह्मण से याचना करना चाहता है। पुण्य से भारतवर्ष में पुण्यरूप कर्म और पाप से भयदायक पापरूप कर्म प्रकट होता है। पुण्यकर्म से स्वर्ग का भोग करके मनुष्य पुण्यस्थल में जन्म लेते हैं और पापकर्म से नरक का भोग करने के पश्चात् प्राणियों की निन्दित योनि में उत्पत्ति होती है । नारद! कर्म के वर्तमान रहते प्राणियों का उद्धार नहीं होता; इसलिये संत लोग निरन्तर कर्म का क्षय ही करते रहते हैं ।

सा विद्या तत्तपो ज्ञानं स गुरुः स च बान्धवः ।
सा माता स पिता पुत्रस्तत्क्षयं कारयेत्तु यः ॥ ३५ ॥

वही विद्या, वही तप, वही ज्ञान, वही गुरु, वही भाई-बन्धु, वही माता, वही पिता और वही पुत्र सार्थक है, जो कर्म-क्षय में सहायता करता है ।

प्राणियों के कर्मों का शुभ-अशुभ भोग दारुण रोग के समान है, जिसे भक्तरूपी वैद्य श्रीकृष्ण-भक्तिरूपी रसायन के द्वारा नष्ट करते हैं । जगत् का धारण-पोषण करनेवाली बुद्धिदायिनी माया प्रत्येक जन्म में सेवा किये जाने पर संतुष्ट होकर भक्त को वह भक्ति प्रदान करती है। तदनन्तर माया से विमुग्ध हुए राजा कार्तवीर्य ने यत्नपूर्वक मुनि को अपने पास बुलाया और हर्ष के साथ अञ्जलि बाँधकर भक्तिपूर्वक उनसे विनयपूर्ण वचन कहा ।

राजा बोला — भक्तों पर अनुग्रह करने के लिये उद्यत रहने वाले भक्तेश! आप तो कल्पतरु के समान हैं; अतः मुझ भक्त को कामनापूर्ण करने- वाली इस कामधेनु को भिक्षारूप में प्रदान कीजिये । तपोधन! आप जैसे दाताओं के लिये भारत में कोई वस्तु अदेय नहीं है। मैंने सुना भी है कि पूर्वकाल में दधीचि ने देवताओं को अपनी हड्डी दे डाली थी । तपोराशे ! आप तो भारतवर्ष में लीलापूर्वक भ्रूभङ्गमात्र से समूह-की-समूह कामधेनुओं की सृष्टि करने में समर्थ हैं।

मुनि ने कहा — राजन् ! आश्चर्य है, तुम तो उलटी बात कह रहे हो । अरे मूर्ख एवं छली नरेश ! मैं ब्राह्मण होकर क्षत्रिय को दान कैसे दूँगा ? इस कामधेनु को परमात्मा श्रीकृष्ण ने गोलोक में यज्ञ के अवसर पर ब्रह्मा को दिया था, अतः प्राणों से बढ़कर प्यारी यह गौ देने योग्य नहीं है। भूमिपाल ! फिर ब्रह्मा ने इसे अपने प्रिय पुत्र भृगु को दिया और भृगु ने मुझे दिया। इस प्रकार यह कपिला मेरी पैतृक सम्पत्ति है । यह कामधेनु गोलोक में उत्पन्न हुई है; अतः त्रिलोकी में दुर्लभ है। तब भला मैं लीलापूर्वक ऐसी कपिला की सृष्टि करने में कैसे समर्थ हो सकता हूँ। न तो मैं हलवाहा हूँ और न तुम्हारी सहायता से बुद्धिमान् हुआ हूँ । मैं अतिथि को छोड़कर शेष सबको क्षणमात्र में भस्मसात् करने की शक्ति रखता हूँ। अतः अपने घर जाओ और स्त्री-पुत्रों को देखो ।

मुनि के इस वचन को सुनकर राजा को क्रोध आ गया। तब वह मुनि को नमस्कार करके सेना के मध्य में चला गया । उस समय भाग्य ने उसे बाधित कर दिया था; अतः क्रोध के कारण उसके होंठ फड़क रहे थे। उसने सेना के निकट जाकर बलपूर्वक गौ को लाने के लिये नौकरों को भेजा । इधर शोक के कारण, जिनका विवेक नष्ट हो गया था, वे मुनिवर जमदग्नि कपिला के संनिकट जाकर रोने लगे और उन्होंने सारा वृत्तान्त कह सुनाया। तब भक्तों पर अनुग्रह करने के लिये उद्यत रहनेवाली वह गौ, जो साक्षात् लक्ष्मीस्वरूपा थी, ब्राह्मण को रोते देखकर बोली।

सुरभि ने कहा — मुने ! जो निरन्तर अपनी वस्तुओं का शासक, पालक और दाता है, चाहे वह इन्द्र हो अथवा हलवाहा, वही अपनी वस्तु का दान कर सकता है। तपोधन ! यदि आप स्वेच्छानुसार मुझे राजा को देंगे, तभी मैं स्वेच्छा से अथवा आपकी आज्ञा से उसके साथ जाऊँगी । यदि आप नहीं देंगे तो मैं आपके घर से नहीं जाऊँगी। आप मेरे द्वारा दी गयी सेना के सहारे राजा को भगा दीजिये । सर्वज्ञ ! माया से विमुग्ध-चित्त होकर आप क्यों रो रहे हैं ? अरे! ये संयोग-वियोग तो कालकृत हैं, आत्मकृत नहीं हैं। आप मेरे कौन हैं और मैं आपकी कौन हूँ- यह सम्बन्ध तो काल द्वारा नियोजित है। जब तक यह सम्बन्ध है तभी तक आप मेरे हैं। मन जब तक जिस वस्तु को केवल अपना मानता है और उस पर अपना अधिकार समझता है, तभी तक उसके वियोग से दुःख होता है ।

इतना कहकर कामधेनु ने सूर्य के सदृश कान्तिमान् नाना प्रकार के शस्त्रास्त्र और सेनाएँ उत्पन्न कीं । उस कपिला के मुख आदि अङ्गों से करोड़ों-करोड़ों खड्गधारी, शूलधारी, धनुर्धारी, दण्ड, शक्ति और गदाधारी शूरवीर निकल आये । करोड़ों वीर राजकुमार और म्लेच्छ निकले। इस प्रकार कपिला ने मुनि को सेनाएँ देकर उन्हें निर्भय कर दिया और कहा – ‘ये सेनाएँ युद्ध करेंगी; आप वहाँ मत जाइये ।’

उस सामग्री से सम्पन्न होने के कारण मुनि को महान् हर्ष प्राप्त हुआ। इधर राजा द्वारा भेजे गये भृत्य ने लौटकर राजा को सारा वृत्तान्त बतलाया । कपिला की सेना का वृत्तान्त और अपने पक्ष की पराजय सुनकर नृपश्रेष्ठ कार्तवीर्य भयभीत हो गया। उसके मन में कातरता छा गयी। तब उसने दूत भेजकर अपने देश से और सेनाएँ मँगवायीं ।    (अध्याय २४)

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त्ते महापुराणे तृतीये गणपतिखण्डे नारदनारायणसंवादे एकदन्तत्वप्रश्नप्रसङ्गे जदमग्निकार्त्तवीर्ययुद्धारंभवर्णनंनाम चतुर्विंशोऽध्यायः ॥ २४ ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

Content is available only for registered users. Please login or register

Please follow and like us:
Pin Share

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.