February 15, 2025 | aspundir | Leave a comment ब्रह्मवैवर्तपुराण-गणपतिखण्ड-अध्याय 27 ॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥ सत्ताईसवाँ अध्याय जमदग्नि-कार्तवीर्य युद्ध, कार्तवीर्य द्वारा दत्तात्रेय दत्त शक्ति के प्रहार से जमदग्नि का वध, रेणुका का विलाप, परशुराम का आना और क्षत्रियवध की प्रतिज्ञा करना, भृगु का आकर उन्हें सान्त्वना देना नारायण कहते हैं — नारद! राजा घर लौट तो गया पर उसके मन में युद्ध की लगी रही; इससे उसने लाखों सेना संग्रह करके फिर जमदग्नि के आश्रम पर जाकर आश्रम को घेर लिया। राजा की विशाल सेना को देखकर जमदग्नि के आश्रमवासी भय से मूर्च्छित हो गये। महर्षि ने मन्त्रोच्चारणपूर्वक बाणों का एक ऐसा जाल बिछाया कि उससे आश्रमभूमि पूरी ढक गयी। सारी सेना उसी में आबद्ध हो गयी। तब राजा ने रथ से उतरकर महर्षि को नमस्कार किया । महर्षि ने उसे आशीर्वाद दिया । राजा ने फिर आक्रमण किया। यों कई बार राजा आक्रमण करता रहा, मूर्च्छित होता रहा, पर क्षमाशील मुनि ने उसका वध नहीं किया। बड़ा घोर युद्ध हुआ। अन्त में राजा कार्तवीर्य ने दत्तात्रेय मुनि के द्वारा प्राप्त एक पुरुष का नाश करने वाली अमोघ शक्ति का प्रयोग किया। वह भगवान् विष्णु की शक्ति थी । उसने मुनि के हृदय को बींध डाला । मुनि ने उसके आघात से जीवन-विसर्जन कर दिया । शक्ति भगवान् विष्णु के पास चली गयी। ॐ नमो भगवते वासुदेवाय जगत् में हाहाकार मच गया। कपिला गौ ‘तात- तात’ पुकारती हुई गोलोक को प्रस्थान कर गयी । तदनन्तर राजा कार्तवीर्यार्जुन ब्रह्महत्या-जनित पाप का प्रायश्चित्त करके अपनी राजधानी को लौट गया। इधर पतिव्रता महर्षिपत्नी रेणुका पति के मरण से अत्यन्त दुःखी होकर रोने लगीं। वे अपने पुत्र परशुराम को पुकारने लगीं। उस समय योगी परशुराम पुष्कर में थे । वे उसी क्षण मानस-गति से चलकर माता के पास आ पहुँचे। उन्होंने माता को प्रणाम किया और पिता की अन्त्येष्टि-क्रिया की तैयारी की। सारी बातें सुनकर माता के युद्ध न करने का अनुरोध करने पर भी भार्गव परशुराम ने इक्कीस बार पृथ्वी को क्षत्रियहीन करने की प्रतिज्ञा कर ली और राजा कार्तवीर्यार्जुन के वध करने का प्रण कर लिया। फिर विलाप करती हुई पति-शोकपीड़िता माता को समझाते हुए बोले ! परशुराम ने कहा — माता ! जो पिता की आज्ञा भङ्ग करने वाले तथा पिता के हिंसक का वध नहीं करता, वह महान् मूर्ख है। उसे निश्चय ही रौरव नरक में जाना पड़ता है। आग लगाने वाला, विष देने वाला, हाथ में हथियार लेकर मारने के लिये आनेवाला, धन का अपहरण करने वाला, क्षेत्र का विनाश करने वाला, स्त्री को चुरानेवाला, पिता का वध करनेवाला, बन्धुओं की हिंसा करने वाला, सदा अपकार करने वाला, निन्दक और कटु वचन कहने वाला — ये ग्यारह वेदविहित घोर पापी हैं । ये मार डालने योग्य हैं । इसी बीच वहाँ स्वयं महर्षि भृगु आ पहुँचे । वे मनस्वी मुनि अत्यन्त भयभीत थे और उनका हृदय दुःखी था। उन्हें देखकर रेणुका और परशुराम उनके चरणों पर गिर पड़े। तब भृगुमुनि उन दोनों से ऐसी वेदोक्त बात कहने लगे जो परलोक के लिये हितकारिणी थी । भृगुजी बोले — बेटा ! तुम तो मेरे वंश में उत्पन्न और ज्ञान-सम्पन्न हो; फिर विलाप कैसे कर रहे हो। इस संसार में सभी चराचर प्राणी जल के बुलबुले के समान क्षणभङ्गुर हैं। पुत्र ! सत्य के सार तथा सत्य के बीज तो श्रीकृष्ण ही हैं। तुम उन्हीं का स्मरण करो । वत्स! जो बीत गया, सो गया; क्योंकि बीती हुई बात पुनः लौटती नहीं । जो होने वाला है, वह होता ही है और आगे भी जो होने वाला होगा वह होकर ही रहेगा; क्योंकि निषेकजन्य (प्रारब्धजन्य) कर्म सत्य ( अटल) होता है। भला, कर्म-फल-भोग को कौन हटा सकता है ? वत्स ! श्रीकृष्ण ने जिस प्रका रके भूत, वर्तमान और भविष्य की रचना की है, उनके द्वारा निरूपित उस कर्म को कौन निवारण कर सकता है ? बेटा ! माया का कारण, मायावियों के पाञ्चभौतिक शरीर और संकेतपूर्वक नाम – ये प्रातः काल के स्वप्रसदृश निरर्थक हैं । परमात्मा के अंशभूत आत्मा के चले जाने पर भूख, निद्रा, दया, शान्ति, क्षमा, कान्ति, प्राण, मन तथा ज्ञान सभी चले जाते हैं । जैसे राजाधिराज के पीछे नौकर-चाकर चलते हैं, उसी प्रकार बुद्धि तथा सारी शक्तियाँ उसी का अनुगमन करती हैं; अत: तुम यत्नपूर्वक श्रीकृष्ण का भजन करो। बेटा! कौन किसके पितर हैं और कौन किसके पुत्र हैं । ये सभी इस दुस्तर भवसागर में कर्मरूपी लहरियों से प्रेरित हो रहे हैं । पुत्र ! ज्ञानी लोग विलाप नहीं करते, अतः अब तुम भी रुदन मत करो; क्योंकि रोने के कारण आँसुओं के गिरने से मृतकों को निश्चय ही नरक में जाना पड़ता है। भाई-बन्धु आदि कुटुम्ब के लोग जिस सांकेतिक नाम का उच्चारण करके रुदन करते हैं, उसे वे सौ वर्षों तक रोते रहने पर भी नहीं पा सकते — यह निश्चित है; क्योंकि त्वचा आदि पृथ्वी के अंश को पृथ्वी, जलांश को जल, शून्यांश को आकाश, वायु के अंश को वायु तथा तेजांश को तेज ग्रहण कर लेता है । इस प्रकार सभी अंश अपने-अपने अंशी में विलीन हो जाते हैं; फिर रोने से कौन वापस आयेगा। मरने के बाद तो नाम, शास्त्र, ज्ञान, यश और कर्म की कथामात्र अवशिष्ट रह जाती है। इसलिये जो वेदविहित पारलौकिक कर्म है, इस समय तुम वही करो; क्योंकि जो परलोक के लिये हितकारी हो, वही वास्तव में पुत्र है और वही बन्धु है । भृगु के उस वचन को सुनकर महासाध्वी रेणुका ने उसी क्षण शोक का परित्याग कर दिया और मुनि से कहना आरम्भ किया । (अध्याय २७) ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त्ते महापुराणे तृतीये गणपतिखण्डे नारदनारायणसंवादे जमदग्निसंहारपरशुरामप्रतिज्ञादिवर्णनंनाम सप्तविंशोऽध्यायः ॥ २७ ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Content is available only for registered users. Please login or register Please follow and like us: Related