ब्रह्मवैवर्तपुराण-गणपतिखण्ड-अध्याय 28
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥
अट्ठाइसवाँ अध्याय
रेणुका- भृगु-संवाद, रेणुका का पति के साथ सती होना, परशुराम का पिता की अन्त्येष्टि क्रिया करके ब्रह्मा के पास जाना और अपनी प्रतिज्ञा सुनाना, ब्रह्मा का उन्हें शिवजी के पास भेजना

रेणुका ने पूछा — ब्रह्मन् ! अब मैं अपने प्राणनाथ का अनुगमन करना चाहती हूँ। दूसरों को मान देनेवाले ये मेरे पतिदेव आज मेरे ऋतुकाल के चौथे दिन मृत्युको प्राप्त हुए हैं; अतः वेदवेत्ताओं में श्रेष्ठ मुने! बतलाइये, अब इस विषय में कैसी व्यवस्था करनी चाहिये। मेरे कई जन्मों का पुण्य उदय हुआ है, जिसके फलस्वरूप आप सहसा उपस्थित हुए हैं।

भृगु ने कहा — अहो महासति ! तुम अपने पुण्यात्मा पति का अनुगमन करो; क्योंकि ऋतु का चौथा दिन पति के सभी कार्यों में शुद्ध माना जाता है। जो भक्तिदाता है, वही पुत्र है; जो अनुगमन करती है, वही स्त्री है; जो दान देता है, वही बन्धु है; जो गुरु की अर्चना करता है, वही शिष्य है; जो रक्षा करे, वही अभीष्ट देवता है; जो प्रजा का पालन करे, वही राजा है; जो अपनी पत्नी की बुद्धि को धर्म में नियोजित करता है, वही स्वामी है; जो धर्मोपदेशक तथा हरिभक्ति प्रदान करनेवाला है, वही गुरु है – ये सभी वेदों तथा पुराणों मे निश्चितरूप से प्रशंसनीय कहे गये हैं।

गणेशब्रह्मेशसुरेशशेषाः सुराश्च सर्वे मनवो मुनीन्द्राः । सरस्वतीश्रीगिरिजादिकाश्च नमन्ति देव्यः प्रणमामि तं विभुम् ॥

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

रेणुका ने पूछा — मुने! भारतवर्ष में कैसी नारियाँ अपने पति के साथ सती हो सकती हैं और कैसी नहीं हो सकतीं ? तपोधन ! यह मुझे बतलाने की कृपा कीजिये ।

भृगु ने कहा — रेणुके! जिनके बच्चे छोटे हों, जो गर्भिणी हों, जिन्होंने ऋतुकाल को देखा ही न हो, जो रजस्वला, कुलटा, कुष्ठरोग से ग्रस्त, पति की सेवा न करनेवाली, पति-भक्तिरहित और कटुवादिनी हों-ये यदि दैववश सती भी हो जायँ तो वे अपने पति को नहीं प्राप्त होतीं । पतिव्रताएँ चिता में शयन करने वाले पति को पहले संस्कार से शुद्ध हुई आग देकर पीछे उसका अनुगमन करती हैं। यदि वे सचमुच पतिव्रता होती हैं तो अपने पति को पा लेती हैं। जो अपने प्रियतम का अनुगमन करती हैं, वे उसी को पतिरूप में पाती हैं और प्रत्येक जन्म में उसी के साथ स्वर्ग में पुण्य का उपभोग करती हैं । पतिव्रते ! गृहस्थों की यह व्यवस्था तो मैंने तुम्हें बतला दी । अब तीर्थ में मरनेवाले ज्ञानियों तथा वैष्णवों के विषय में श्रवण करो। जो साध्वी नारी जहाँ-जहाँ अपने वैष्णव पति का अनुगमन करती है, वहाँ-वहाँ वह स्वामी के साथ वैकुण्ठ में जाकर श्रीहरि की संनिधि प्राप्त करती है । नारद! कृष्णभक्तिपरायण जीवन्मुक्त भक्तों के तीर्थ में अथवा अन्यत्र मरने में कोई विशेषता नहीं है; क्योंकि उन्हें दोनों जगह समान फल मिलता है । इसलिये यदि स्त्री अथवा पुरुष भगवान् नारायण तथा कमलालया लक्ष्मी का भजन करे तो उस भजन के प्रभाव से महाप्रलय होने पर भी उन दोनोंका नाश नहीं होता ।

वहाँ रेणुका से इतना कहकर भृगुमुनि परशुराम से समयोचित तथा वेदविहित वचन बोले । “महाभाग वत्स ! यहाँ आओ और इस अमाङ्गलिक शोक को त्याग दो। भृगुनन्दन ! अपने पिता को दक्षिण सिर करके उत्तान कर दो, नया वस्त्र और यज्ञोपवीत पहनाओ और आँसू रोककर दक्षिणाभिमुख हो बैठ जाओ। फिर भक्तिपूर्वक अरणी से उत्पन्न हुई अग्नि हाथ में लो और पृथ्वी पर जो-जो तीर्थ हैं, उन सबका स्मरण करो । गया आदि तीर्थ, पुण्यमय पर्वत, कुरुक्षेत्र, सरिताओं में श्रेष्ठ गङ्गा, यमुना, कौशिकी, सम्पूर्ण पापों का विनाश करने वाली चन्द्रभागा, गण्डकी, काशी, पनसा, सरयू, पुष्पभद्रा, भद्रा, नर्मदा, सरस्वती, गोदावरी, कावेरी, स्वर्णरेखा, पुष्कर, रैवत, वराह, श्रीशैल, गन्धमादन, हिमालय, कैलास, सुमेरु, रत्नपर्वत, वाराणसी, प्रयाग, पुण्यमय वन वृन्दावन, हरिद्वार और बदरी – इनका बारंबार स्मरण करो ।

फिर चन्दन, अगुरु, कस्तूरी तथा सुगन्धित पुष्प देकर और वस्त्र से आच्छादित करके पिता के शव को चिता के ऊपर स्थापित करो । तात ! फिर सोने की सलाई से कान, आँख, नाक और मुख में  निर्मन्थन करके उसे आदरसहित ब्राह्मण को दान कर दो । तत्पश्चात्, तिलसहित ताँबे का पात्र, गौ, चाँदी और सोना दक्षिणा सहित दान करके स्वस्थचित्त हो दाह-कर्म करो ।

ॐ कृत्वा दुष्कृतं कर्म्म जानता वाऽप्यजानता ।
मृत्युकालवशं प्राप्य नरं पञ्चत्वमागतम् ॥ ३२ ॥
धर्माधर्मसमायुक्तं लोभमोहसमावृतम् ।
दह सर्वाणि गात्राणि दिव्याँल्लोकान्स गच्छतु ॥ ॥ ३३ ॥

ॐ जो जानकारी में अथवा अनजान में पाप-कर्म करके मृत्यु-काल के वशीभूत  हो पञ्चत्वको प्राप्त हुआ । ॐ धर्म-अधर्मसे युक्त   तथा लोभ-मोह से समावृत उस मनुष्य के सारे शरीर को जलाता हूँ; वह दिव्य लोकों में जाय । ‘

इस मन्त्र को पढ़कर पिता की प्रदक्षिणा करो और फिर

ॐ अस्मत्कुले त्वं जातोऽसि त्वदीयो जायतां पुनः ।
असौ स्वर्गाय लोकाय स्वाहेति वद साम्प्रतम् ॥ ३५ ॥

‘ॐ तुम हमारे कुल में उत्पन्न हुए हो, मैं पुनः तुम्हारा होकर उत्पन्न होऊँ, तुम्हें स्वर्गलोक की प्राप्ति हो स्वाहा’

इस प्रकार उच्चारण करो तथा श्रीहरि का स्मरण करते हुए इसी मन्त्र से पिता का दाह करो। हे भृगुनन्दन ! पहले तुम भाइयों के साथ सिर में आग लगाओ।”

तब भृगुमुनि के आज्ञानुसार परशुराम ने अपने गोत्रवालों के साथ वह सारा कार्य सम्पन्न किया । तदनन्तर रेणुका ने वहाँ अपने पुत्र परशुराम को छाती से लगा लिया और परिणाम में सुखदायक कुछ वचन कहे — ‘बेटा! इस भवसागर में विरोध न करना सम्पूर्ण मङ्गलों का मङ्गल है और विरोध नाश का कारण तथा समस्त उपद्रवों का हेतु है । अतः भयंकर क्षत्रियों के साथ विरोध न करना ही उचित है; किंतु मेरे सुनते-सुनते तुमने जो प्रतिज्ञा की है उसे पूर्ण करना चाहिये । इसके लिये तुम दिव्य मन्त्रों के ज्ञाता भृगु और ब्रह्मा के साथ विचार करके जैसा उचित हो वैसा करना । सज्जनों द्वारा आलोचित कर्म शुभकारक होता है।’

यों कहकर रेणुका परशुराम को छोड़कर अपने पति का आलिङ्गन करके श्रीहरि का स्मरण करते हुए परशुराम की ओर निहारती हुई चिता में सो गयी। तब भाइयों के साथ परशुराम ने चिता में आग लगा दी। फिर भाइयों और पिता के शिष्यों के साथ वे विलाप करने लगे। इतने में ही सती रेणुका ‘राम, राम, राम’ यों उच्चारण करके परशुराम के देखते-देखते जलकर राख हो गयी। तब अपने स्वामी का नाम सुनकर वहाँ श्रीहरि के दूत आ पहुँचे। वे सभी रथ पर सवार थे। उनके शरीर का रंग श्याम था । सुन्दर चार भुजाएँ थीं, जिनमें शङ्ख, चक्र, गदा और पद्म धारण किये हुए उनके गले में वनमाला लटक रही थी और वे किरीट, कुण्डल तथा रेशमी पीताम्बर से विभूषित थे। वे उस रेणुका को रथ में बिठाकर ब्रह्मलोक में गये और जमदग्नि को लेकर श्रीहरि के संनिकट जा पहुँचे। वहाँ वैकुण्ठ में वे दोनों पति-पत्नी निरन्तर श्रीहरि की परिचर्या, जो मङ्गलों की मङ्गल है, करते हुए श्रीहरि के संनिकट रहने लगे।

नारद! इधर परशुराम ने ब्राह्मणों तथा भृगुजी के सहयोग से माता-पिता की शेष क्रिया समाप्त करके ब्राह्मणों को बहुत-सा धन दान दिया। फिर गौ, भूमि, स्वर्ण, वस्त्र, सुवर्णनिर्मित पलंगसहित मनोरम दिव्य शय्या, जल, अन्न, चन्दन, रत्नदीप, चाँदी का पहाड़, सुवर्ण के आधारसहित स्वर्णनिर्मित उत्तम आसन, सुवासित ताम्बूल, छत्र, पादुका, फल, मनोहर माला, फल-मूल-जल और मनोहर मिष्टान्न तथा धन ब्राह्मणों को देकर वे ब्रह्मलोक को चल पड़े। ब्रह्मलोक में पहुँचकर परशुराम ने भक्तिभाव से अव्ययात्मा ब्रह्माजी को नमस्कार करके रोते हुए सारी घटना कह सुनायी । कृपामय ब्रह्माजी ने सारी बातें सुनकर उन्हें शुभाशीर्वाद दिया और अपने हृदय से लगा लिया। भृगुवंशी परशुराम की बहुत-से जीवों का विनाश करनेवाली, दुष्कर एवं भयंकर प्रतिज्ञा को सुनकर चतुर्मुख ब्रह्मा को महान् विस्मय हुआ । वे ‘प्रारब्धवश सब कुछ घटित हो सकता है’ ऐसा मन में विचारकर परशुराम से परिणाम में सुखदायक वचन बोले ।

ब्रह्मा ने कहा — वत्स ! बहुसंख्यक जीवों का विनाश करने वाली तुम्हारी प्रतिज्ञा दुष्कर है; क्योंकि यह सृष्टि भगवान् श्रीहरि की इच्छा से उत्पन्न होती है। बेटा ! उन्हीं परमेश्वर की आज्ञा से मैंने बड़े कष्ट से इस सृष्टि की रचना की है; किंतु तुम्हारी निर्दयतापूर्ण घोर प्रतिज्ञा सृष्टि का लोप कर देनेवाली है । तुम एक क्षत्रिय के अपराध से पृथ्वी को इक्कीस बार भूपरहित कर देना चाहते हो और क्षत्रिय जाति को समूल नष्ट करने की तुमने ठान ली है। किंतु ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र- यह चार प्रकार की सृष्टि नित्य है, जो श्रीहरि की ही आज्ञा से पुनः-पुनः आविर्भूत और तिरोहित होती रहती है। अन्यथा किसी प्राक्तन कर्मानुसार तुम्हारी प्रतिज्ञा पूर्ण होगी । तुम्हें अपनी कार्य-सिद्धि के लिये बड़ा परिश्रम करना पड़ेगा।

अतः वत्स ! तुम शिवलोक में जाओ और शंकर की शरण ग्रहण करो; क्योंकि भूतल पर बहुत-से नरेश शंकर के भक्त हैं। जब वे शक्तिस्वरूपा पार्वती और शंकर के दिव्य कवच को धारण करके खड़े होंगे, तब महेश्वर की आज्ञा के बिना उन्हें मारने में कौन समर्थ हो सकता है ? अतः जो विजय का कारण एवं शुभकारक है, उस उपाय को तुम यत्नपूर्वक करो; क्योंकि उपायपूर्वक आरम्भ किये गये कार्य ही सिद्ध होते हैं। इसलिये तुम शंकर से श्रीकृष्ण के मन्त्र और कवच को ग्रहण करो। वह वैष्णव तेज परम दुर्लभ है। उसके प्रभाव से तुम शैव और शाक्त दोनों तेजों पर विजय पा सकोगे । जगदीश्वर शिव तुम्हारे जन्म-जन्मान्तर के गुरु हैं । अतः मुझसे मन्त्र ग्रहण करना तुम्हारे लिये युक्त नहीं है; क्योंकि जो उपयुक्त होता है, वही विधि है । कर्मभोग से ही मन्त्र, स्वामी, स्त्री, गुरु और देवता प्राप्त होते हैं । जो जिनके हैं, वे उनके पास स्वयं ही उपस्थित होते हैं, यह ध्रुव है । भृगुनन्दन ! तुम त्रैलोक्यविजय नामक श्रेष्ठ कवच ग्रहण करके इक्कीस बार पृथ्वी को भूपरहित कर डालोगे । दानी शंकर तुम्हें दिव्य पाशुपतास्त्र प्रदान करेंगे। उस दिये हुए मन्त्र के बल से तुम क्षत्रिय-समुदाय को जीत लोगे ।   (अध्याय २८)

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त्ते महापुराणे तृतीये गणपतिखण्डे नारदनारायणसंवादे भृगोर्ब्रह्मलोकगमने ब्रह्मोक्तोपायवर्णनं नामाष्टाविंशोऽध्यायः ॥ २८ ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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