February 15, 2025 | aspundir | Leave a comment ब्रह्मवैवर्तपुराण-गणपतिखण्ड-अध्याय 29 ॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥ उनतीसवाँ अध्याय परशुराम का शिवलोक में जाकर शिवजी के दर्शन करके उनकी स्तुति करना नारायण कहते हैं — नारद! तदनन्तर परशुराम ने ब्रह्मा की बात सुनकर उन जगद्गुरु को प्रणाम किया और उनसे वरदान पाकर वे सफल-मनोरथ हो शिवलोक को चले । वायु के आधार पर टिका हुआ वह मनोहर लोक एक लाख योजन ऊँचा तथा ब्रह्मलोक से विलक्षण है। उसका वर्णन करना अत्यन्त कठिन है। उसके दक्षिणभाग में वैकुण्ठ और वामभाग में गौरीलोक है। नीचे की ओर ध्रुवलोक है, जो सम्पूर्ण लोकों से परे कहा जाता है। उन सबके ऊपर पचास करोड़ योजन के विस्तार वाला गोलोक है। उससे ऊपर दूसरा लोक नहीं है । वही सर्वोपरि कहा जाता है । मन के समान वेगशाली योगीन्द्र परशुराम ने उस शिवलोक को देखा । वह महान् अद्भुत लोक उपमान और उपमेय से रहित अर्थात् अनुपम श्रेष्ठ योगीन्द्रों, सिद्धों, विद्याविशारदों, करोड़ों कल्पों की तपस्या से पवित्र शरीर वाले पुण्यात्माओं से निषेवित, मनोरथ पूर्ण करने वाले कल्पवृक्षों के समूहों से परिवेष्टित, असंख्य कामधेनुओं के समुदायों से सुशोभित, पारिजात-वृक्षों की वनावलीसे विशेष शोभायमान, दस हजार पुष्पोद्यानों से युक्त, सदा उत्कृष्ट शोभा से सम्पन्न, बहुमूल्य मणियों द्वारा रचित सुन्दर मणिवेदियों तथा सैकड़ों दिव्य राजमार्गों द्वारा बाहर-भीतर विभूषित और नाना प्रकार की पच्चीकारी से युक्त उत्तम मणियों के कलशों से उज्ज्वल दीखने वाले अमूल्य मणियों द्वारा निर्मित सौ करोड़ भवनों से युक्त था । ॐ नमो भगवते वासुदेवाय उसके रमणीय मध्यभाग में उन्हें शंकरजी का भवन दीख पड़ा। उस परम मनोहर भवन के चारों ओर बहुमूल्य मणियों की चहारदीवारी का निर्माण हुआ था। वह इतना ऊँचा था कि आकाश का स्पर्श कर रहा था । उसका रंग दूध और जल के समान उज्ज्वल था । उसमें सोलह दरवाजे थे तथा वह सैकड़ों ऐसे मन्दिरों से सुशोभित था, जो अमूल्य रत्नों द्वारा निर्मित तथा रत्नों की सीढ़ियों से विभूषित थे । उनमें हीरे जड़े हुए रत्नों के खंभे और किवाड़ लगे थे। वे मणियों की जालियों से सुशोभित, उत्तम रत्नों के कलशों से प्रकाशित, नाना प्रकार के विचित्र चित्रों से चित्रित अतएव परम मनोहर थे । वहाँ उस भवन के आगे परशुराम ने सिंहद्वार का दर्शन किया, जिसमें बहुमूल्य रत्नों के बने हुए किवाड़ लगे थे। उसका भीतरी भाग पद्मराग एवं महामरकत मणियों द्वारा रचित वेदियों से सदा बाहर-भीतर सुशोभित रहता था । नाना प्रका रके चित्रों से चित्रित होने के कारण वह अत्यन्त सुहावना लग रहा था। उसके द्वार पर दो भयंकर द्वारपाल नियुक्त थे, जिन्हें परशुराम ने देखा । उनकी आकृति बेडौल थी, दाँत और मुख बड़े विकराल थे। तीन बड़े-बड़े नेत्र थे, जिनमें कुछ पीलिमा और ललाई छायी हुई थी। वे जले हुए पर्वत के समान काले और महान् बल-पराक्रम से सम्पन्न शरीर उत्तम बाघम्बर तथा विभूति से विभूषित थे। त्रिशूल और पट्टिश धारण किये हुए वे दोनों ब्रह्मतेज से प्रज्वलित हो रहे थे। उन्हें देखकर परशुराम का मन भयग्रस्त हो गया। फिर भी वे डरते-डरते कुछ कहने को उद्यत हुए। उन्होंने विनीत होकर बड़ी नम्रता के साथ उन दोनों महाबली उच्छृंखलों के सामने अपना सारा वृत्तान्त कह सुनाया । ब्राह्मण की बात सुनकर उन दोनों के मन में दया का संचार हो आया, तब उन श्रेष्ठ अनुचरों ने दूत द्वारा महात्मा शंकर की आज्ञा लेकर परशुराम को भीतर प्रवेश करने का आदेश दिया । परशुराम उनकी आज्ञा पाकर श्रीहरि का स्मरण करते हुए भवन के अंदर प्रविष्ट हुए। वहाँ उन्होंने एक-एक करके सोलह दरवाजों को देखा, जो नाना प्रकार की चित्रकारी से चित्रित होने के कारण अत्यन्त सुन्दर थे तथा उनपर द्वारपाल नियुक्त थे । उन्हें देखकर परशुराम को महान् आश्चर्य हुआ । आगे बढ़ने पर उन्हें शंकरजी की सभा दिखायी पड़ी, जो बहुत-से सिद्धगणों से व्याप्त, महर्षियों द्वारा सेवित तथा पारिजात-पुष्पों के गन्ध से युक्त वायु द्वारा सुवासित थी । उस सभा में उन्होंने देवेश्वर शंकर के दर्शन किये। त्रिशूलपट्टिशधरं व्याघ्रचर्माम्बरं परम् । विभूतिभूषितांगं तं नागयज्ञोपवीतिनम् । रत्नसिंहासनस्थं च रत्नभूषणभूषितम् ॥ २७ ॥ महाशिवं शिवकरं शिवबीजं शिवाश्रयम् । आत्मारामं पूर्णकामं सूर्य्यकोटिसमप्रभम् ॥ २८ ॥ ईषद्धास्यं प्रसन्नास्यं भक्तानुग्रहकातरम् । शश्वज्ज्योतिस्स्वरूपं च लोकानुग्रहविग्रहम् ॥ २९ ॥ धृतवन्तं जटाजालं दक्षकन्यासमन्वितम् । तपसां फलदातारं दातारं सर्वसम्पदाम् ॥ ३० ॥ शुद्धस्फटिकसंकाशं पञ्च वक्त्रं त्रिलोचनम् । गुह्यं ब्रह्म प्रवोचन्तं शिष्येभ्यस्तत्त्वमुद्रया ॥ ३१ ॥ स्तूयमानं च योगीन्द्रैः सिद्धेन्द्रैः परिसेवितम् । पार्षदप्रवरैश्शश्वत्सेवितं श्वेतचामरैः ॥ ३२ ॥ ध्यायमानं परं ब्रह्म परिपूर्णतमं परम् । स्वेच्छामयं गुणातीतं जरामृत्युहरं परम् ॥ ३३ ॥ ज्योतीरूपं च सर्वाद्यं श्रीकृष्णं प्रकृतेः परम् । ध्यायन्तं परमानन्दं पुलकाञ्चितविग्रहम् । सुस्वरं साश्रुनेत्रं तमुद्गायन्तं गुणार्णवम् ॥ ३४ ॥ भूतेन्द्रैर्वै रुद्रगणैः क्षेत्रपालैश्च वेष्टितम् । वे रत्नाभरणों से सुसज्जित हो रत्नसिंहासन पर विराजमान थे। उनके ललाट पर चन्द्रमा सुशोभित हो रहा था। वे बाघाम्बर पहने तथा त्रिशूल और पट्टि धारण किये हुए थे । उनका शरीर विभूति से सुशोभित था । वे सर्प का यज्ञोपवीत पहने थे तथा महान् कल्याणस्वरूप, कल्याण करनेवाले, कल्याण के कारण, कल्याण के आश्रयस्थान, आत्मा में रमण करने वाले, पूर्णकाम और करोड़ों सूर्यों के समान प्रभाशाली थे। उनका मुख प्रसन्न था, जिस पर मन्द मुस्कान की अद्भुत छटा बिखर रही थी, वे भक्तों पर अनुग्रह करने के लिये अधीर हो रहे थे । वे सनातन ज्योतिःस्वरूप, लोकों के लिये अनुग्रह के मूर्त रूप, जटाधारी, सती की हड्डियों से शोभित, तपस्याओं के फल देने वाले तथा सम्पूर्ण सम्पदाओं के दाता थे। उनका वर्ण शुद्ध स्फटिक के सदृश उज्ज्वल था। उनके पाँच मुख और तीन नेत्र थे । वे तत्त्वमुद्रा द्वारा शिष्यों को गुह्य ब्रह्म का उपदेश कर रहे थे। योगीन्द्र उनके स्तवन में तथा बड़े-बड़े सिद्ध उनकी सेवामें नियुक्त थे । श्रेष्ठ पार्षद श्वेत चँवरों द्वारा निरन्तर उनकी सेवा कर रहे थे । वे बुढ़ापा और मृत्यु का हरण करनेवाले, गुणातीत, स्वेच्छामय, परिपूर्णतम परब्रह्म के ध्यान में निमग्न थे, जो ज्योतीरूप सबके आदि, प्रकृति से परे और परमानन्दमय हैं। उन श्रीकृष्ण का ध्यान करते समय उनके शरीर में रोमाञ्च हो रहा था तथा वे आँखों में आँसू भरे उत्तम स्वर से उनकी गुणावली का गान कर रहे थे और भूतेश्वर, रुद्रगण तथा क्षेत्रपाल उन्हें घेरे हुए थे । उन्हें देखकर परशुराम ने बड़े आदर के साथ सिर झुकाकर प्रणाम किया । तत्पश्चात् शिवजी के वामभाग में कार्तिकेय, दाहिनी ओर गणेश्वर, सामने नन्दीश्वर, महाकाल और वीरभद्र तथा उनकी गोद में उनकी प्रियतमा पत्नी गिरिराजनन्दिनी गौरी को देखा। उन सबको भी परशुराम ने बड़े हर्ष के साथ भक्तिपूर्वक सिर झुकाकर नमस्कार किया। उस समय शिवजी का दर्शन करके परशुराम परम संतुष्ट हुए। शोक से पीड़ित तो वे थे ही; अतः आँखों में आँसू भरकर अत्यन्त कातर हो हाथ जोड़कर शान्तभाव से दीन एवं गद्गदवाणी के द्वारा शिवजी की स्तुति करने लगे । ॥ परशुराम कृत शिव स्तुति ॥ ॥ परशुराम उवाच ॥ ईश त्वां स्तोतुमिच्छामि सर्वथा स्तोतुमक्षमः । अक्षराक्षयबीजं च किं वा स्तौमि निरीहकम् ॥ ४२ ॥ न योजनां कर्त्तुमीशो देवेशं स्तौमि मूढधीः । वेदा न शक्ता यं स्तोतुं कस्त्वां स्तोतुमिहेश्वरः ॥ ४३ ॥ वाग्बुद्धिमनसां दूरं सारात्सारं परात्परम् । ज्ञानमात्रेण साध्यं च सिद्धं सिद्धैर्निषेवितम् ॥ ४४ ॥ यमाकाशमिवाद्यन्तमध्यहीनं तथाऽव्ययम् । विश्वतन्त्रमतन्त्रं च स्वतन्त्रं तन्त्रबीजकम् ॥ ४५ ॥ ध्यानासाध्यं दुराराध्यमतिसाध्यं कृपानिधिम् । त्राहि मां करुणासिन्धो दीनबन्धोऽतिदीनकम् ॥ ४६ ॥ अद्य मे सफलं जन्म जीवितं च सुजीवितम् । स्वप्नेऽप्यदृष्टं भक्तैश्चाधुना पश्यामि चक्षुषा ॥ ४७ ॥ शक्रादयः सुरगणाः कलया यस्य सम्भवाः । चराचराः कलांशेन तं नमामि महेश्वरम् ॥ ४८ ॥ स्त्रीरूपं क्लीबरूपं च पौरुषं च बिभर्ति यः । सर्वाधारं सर्वरूपं तं नमामि महेश्वरम् ॥ ४९ ॥ यं भास्करस्वरूपं च शशिरूपं हुताशनम् । जलरूपं वायुरूपं तं नमामि महेश्वरम् ॥ ५० ॥ अनन्तविश्वसृष्टीनां संहर्तारं भयंकरम् । क्षणेन लीलामात्रेण तं नमामि महेश्वरम् ॥ ५१ ॥ यः कालः कालकालश्च कलिर्बीजं च कालजः । अजः प्रजश्च यः सर्वस्तं नमामि महेश्वरम् ॥ ५२ ॥ इत्येवमुक्त्वा स भृगुः पपात चरणाम्बुजे । आशिषं च ददौ तस्मै सुप्रसन्नो बभूव सः ॥ ५३ ॥ जामदग्न्यकृतं स्तोत्रं यः पठेद्भक्तिसंयुतः । सर्वपापविनिर्मुक्तः शिवलोकं स गच्छति ॥ ५४ ॥ परशुराम बोले — ईश ! मैं आपकी स्तुति करना चाहता हूँ, परंतु स्तवन करने में सर्वथा असमर्थ हूँ। आप अक्षर और अक्षर के कारण तथा इच्छारहित हैं, तब मैं आपकी क्या स्तुति करूँ? मैं मन्दबुद्धि हूँ; मुझमें शब्दों की योजना करने का ज्ञान तो है नहीं और चला हूँ देवेश्वर की स्तुति करने। भला, जिनका स्तवन करने की शक्ति वेदों में नहीं है, उन आपकी स्तुति करके कौन पार पा सकता है ? आप मन, बुद्धि और वाणी के अगोचर, सार से भी साररूप, परात्पर, ज्ञान और बुद्धि से असाध्य, सिद्ध, सिद्धोंद्वारा सेवित, आकाश की तरह आदि, मध्य और अन्त से हीन तथा अविनाशी, विश्व पर शासन करने वाले, तन्त्ररहित, स्वतन्त्र, तन्त्र के कारण, ध्यान द्वारा असाध्य, दुराराध्य, साधन करने में अत्यन्त सुगम और दया के सागर हैं। दीनबन्धो ! मैं अत्यन्त दीन हूँ । करुणासिन्धो ! मेरी रक्षा कीजिये । आज मेरा जन्म सफल तथा जीवन सुजीवन हो गया; क्योंकि भक्तगण जिन्हें स्वप्न में भी नहीं देख पाते, उन्हीं को इस समय प्रत्यक्ष देख रहा हूँ। जिनकी कला से इन्द्र आदि देवगण तथा जिनके कलांश से चराचर प्राणी उत्पन्न हुए हैं, उन महेश्वर को मैं नमस्कार करता हूँ। जो सूर्य, चन्द्रमा, अग्नि, जल और वायु के रूप में विराजमान हैं, उन महेश्वर को मैं अभिवादन करता हूँ। जो स्त्रीरूप, नपुंसकरूप और पुरुषरूप धारण करके जगत् का विस्तार करते हैं, जो सबके आधार और सर्वरूप हैं, उन महेश्वरको मैं नमस्कार करता हूँ । हिमालयकन्या देवी पार्वती ने कठोर तपस्या करके जिनको प्राप्त किया है। दीर्घ तपस्या के द्वारा भी जिनका प्राप्त होना दुर्लभ है; उन महेश्वर को मैं नमस्कार करता हूँ। जो सबके लिये कल्पवृक्षरूप हैं और अभिलाषा से भी अधिक फल प्रदान करते हैं, जो बहुत शीघ्र प्रसन्न हो जाते हैं और जो भक्तों के बन्धु हैं; उन महेश्वर को मैं नमस्कार करता हूँ। जो लीलापूर्वक क्षणभर में अनन्त विश्व-सृष्टियों का संहार करने वाले हैं; उन भयंकर रूपधारी महेश्वर को मेरा प्रणाम है। जो कालरूप, काल के काल, काल के कारण और काल से उत्पन्न होनेवाले हैं तथा जो अजन्मा एवं बारंबार जन्म धारण करनेवाले आदि सब कुछ हैं; उन महेश्वर को मैं मस्तक झुकाता हूँ । यों कहकर भृगुवंशी परशुराम शंकरजी के चरण-कमलों पर गिर पड़े। तब शिवजी ने परम प्रसन्न होकर उन्हें शुभाशीर्वाद दिये । नारद! जो भक्तिभावसहित इस परशुरामकृत स्तोत्र का पाठ करता है, वह सम्पूर्ण पापों से पूर्णतया मुक्त होकर शिवलोक में जाता है। (अध्याय २९) ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे तृतीये गणपतिखण्डे नारदनारायणसंवादे परशुरामस्य कैलासगमननामैकोनत्रिंशोऽध्यायः ॥ २९ ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Content is available only for registered users. 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