ब्रह्मवैवर्तपुराण-गणपतिखण्ड-अध्याय 31
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥
इकतीसवाँ अध्याय
शिवजी का प्रसन्न होकर परशुराम को त्रैलोक्यविजय नामक कवच प्रदान करना

नारद ने पूछा — भगवन्! अब मेरी यह सुनने की इच्छा है कि भगवान् शंकर ने दयावश परशुराम को कौन-सा मन्त्र तथा कौन-सा स्तोत्र और कवच दिया था ? उस मन्त्र के आराध्य देवता कौन हैं ? कवच धारण करने का क्या फल है ? तथा स्तोत्र-पाठ से किस फल की प्राप्ति होती है ? वह सब आप बतलाइये ।

नारायण बोले — नारद! उस मन्त्र के आराध्य देव गोलोकनाथ गोपगोपीश्वर सर्वसमर्थ परिपूर्णतम स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण हैं । शंकर ने रत्नपर्वत के निकट स्वयंप्रभा नदी के तटपर पारिजात वन के मध्य स्थित आश्रम में लोकों के देवता माधव के समक्ष परशुराम को ‘त्रैलोक्यविजय’ नामक परम अद्भुत कवच, विभूति-योग से सम्भूत महान् पुण्यमय ‘स्तवराज’ नाम वाला स्तोत्र और सम्पूर्ण कामनाओं का फल प्रदान करने वाला ‘मन्त्रकल्पतरु’ नामक मन्त्र प्रदान किया था ।

गणेशब्रह्मेशसुरेशशेषाः सुराश्च सर्वे मनवो मुनीन्द्राः । सरस्वतीश्रीगिरिजादिकाश्च नमन्ति देव्यः प्रणमामि तं विभुम् ॥

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

॥ महादेव उवाच ॥
वत्सागच्छ महाभाग भृगुवंशसमुद्भव ।
पुत्राधिकोऽसि प्रेम्णा मे कवचग्रहणं कुरु ॥ ७ ॥
शृणु राम प्रवक्ष्यामि ब्रह्माण्डे परमाद्भुतम् ।
त्रैलोक्यविजयं नाम श्रीकृष्णस्य जयावहम् ॥ ८ ॥
श्रीकृष्णेन पुरा दत्तं गोलोके राधिकाश्रमे ।
रासमण्डलमध्ये च मह्यं वृन्दावने वने ॥ ९ ॥
अतिगुह्यतरं तत्त्वं सर्वमन्त्रौघविग्रहम् ।
पुण्यात्पुण्यतरं चैव परं स्नेहाद्वदामि ते ॥ १० ॥
यद्धृत्वा पठनाद्देवी मूलप्रकृतिरीश्वरी ।
शुम्भं निशुम्भं महिषं रक्तबीजं जघान ह ॥ ११ ॥
यद्धृत्वाऽहं च जगतां संहर्त्ता सर्वतत्त्ववित् ।
अवध्यं त्रिपुरं पूर्वं दुरन्तमपि लीलया ॥ १२ ॥
यद्धृत्वा पठनाद्ब्रह्मा ससृजे सृष्टिमुत्तमाम् ।
यद्धृत्वा भगवाञ्छेषो विधत्ते विश्वमेव च ॥ १३ ॥
यद्धृत्वा कूर्मराजश्च शेषं धत्ते हि लीलया ।
यद्धृत्वा भगवान्वायुर्विश्वाधारो विभुः स्वयम् ॥ १४ ॥
यद्धृत्वा वरुणः सिद्धः कुबेरश्च धनेश्वरः ।
यद्धृत्वा पठनादिन्द्रो देवानामधिपः स्वयम् ॥ १५ ॥
यद्धृत्वा भाति भुवने तेजोराशिः स्वयं रविः ।
यद्धृत्वा पठनाच्चन्द्रो महाबलपराक्रमः ॥ १६ ॥
अगस्त्यः सागरान्सप्त यद्धृत्वा पठनात्पपौ ।
चकार तेजसा जीर्णं दैत्यं वातापिसंज्ञकम् ॥ १७ ॥
यद्धृत्वा पठनाद्देवी सर्वाधारा वसुन्धरा ।
यद्धृत्वा पठनात्पूता गङ्गा भुवनपावनी ॥ १८ ॥
यद्धृत्वा जगतां साक्षी धर्मो धर्मभृतां वरः ।
सर्वविद्याधिदेवी सा यच्च धृत्वा सरस्वती ॥ १९ ॥
यद्धृत्वा जगतां लक्ष्मीरन्नदात्री परात्परा ॥
यद्धृत्वा पठनाद्वेदान्सावित्री सा सुषाव च ॥ २० ॥
वेदाश्च धर्म्मवक्तारो यद्धृत्वा पठनाद् भृगो ।
यद्धृत्वा पठनाच्छुद्धस्तेजस्वी हव्यवाहनः ।
सनत्कुमारो भगवान्यद्धृत्वा ज्ञानिनां वरः ॥ २१ ॥
दातव्यं कृष्णभक्ताय साधवे च महात्मने ।
शठाय परशिष्याय दत्त्वा मृत्युमवाप्नुयात् ॥ २२। ।
त्रैलोक्यविजयस्यास्य कवचस्य प्रजापतिः ।
ऋषिश्छन्दश्च गायत्री देवो रासेश्वरः स्वयम् ॥ २३ ॥
त्रैलोक्यविजयप्राप्तौ विनियोगः प्रकीर्त्तितः ।
परात्परं च कवचं त्रिषु लोकेषु दुर्लभम् ॥ २४ ॥
प्रणवो मे शिरः पातु श्रीकृष्णाय नमः सदा ।
पायात्कपालं कृष्णाय स्वाहा पञ्चाक्षरः स्मृतः ॥ २५ ॥
कृष्णेति पातु नेत्रे च कृष्ण स्वाहेति तारकम् ।
हरये नम इत्येवं भ्रूलतां पातु मे सदा ॥ २६ ॥
ॐ गोविंदाय स्वाहेति नासिकां पातु सन्ततम् ।
गोपालाय नमो गण्डौ पातु मे सर्वतः सदा ॥ २७ ॥
ॐ नमो गोपाङ्गनेशाय कर्णौ पातु सदा मम ।
ॐ कृष्णाय नमः शश्वत्पातु मेऽधरयुग्मकम् ॥ २८ ॥
ॐ गोविन्दाय स्वाहेति दन्तौघं मे सदाऽवतु ।
पातु कृष्णाय दन्ताधो दन्तोर्ध्वं क्लीं सदाऽवतु ॥ २९ ॥
ॐ श्रीकृष्णाय स्वाहेति जिह्विकां पातु मे सदा ।
रासेश्वराय स्वाहेति तालुकं पातु मे सदा ॥ ३० ॥
राधिकेशाय स्वाहेति कण्ठं पातु सदा मम ।
नमो गोपाङ्गनेशाय वक्षः पातु सदा मम ॥ ३१ ॥
ॐ गोपेशाय स्वाहेति स्कन्धं पातु सदा मम ।
नमः किशोरवेषाय स्वाहा पृष्ठं सदाऽवतु ॥ ३२ ॥
उदरं पातु मे नित्यं मुकुन्दाय नमः सदा ।
ॐ ह्रीं क्लीं कृष्णाय स्वाहेति करौ पातु सदा मम ॥ ३३ ॥
ॐ विष्णवे नमो बाहुयुग्मं पातु सदा मम ।
ॐ ह्रीं भगवते स्वाहा नखरं पातु मे सदा ॥ ३४ ॥
ॐ नमो नारायणायेति नखरन्ध्रं सदाऽवतु ।
ॐ ह्रीं ह्रीं पद्मनाभाय नाभिं पातु सदा मम ॥ ३५ ॥
ॐ सर्वेशाय स्वाहेति कङ्कालं पातु मे सदा ।
ॐ गोपीरमणाय स्वाहा नितम्बं पातु मे सदा ॥ ३६ ॥
ॐ गोपीरमणनाथाय पादौ पातु सदा मम ।
ॐ ह्रीं क्लीं रसिकेशाय स्वाहा सर्वं सदाऽवतु ॥ ३७ ॥
ॐ केशवाय स्वाहेति मम केशान्सदाऽवतु ।
नमः कृष्णाय स्वाहेति ब्रह्मरन्ध्रं सदाऽवतु ॥ ३८ ॥
ॐ माधवाय स्वाहेति मे लोमानि सदाऽवतु ।
ॐ ह्रीं श्रीं रसिकेशाय स्वाहा सर्वं सदाऽवतु ॥ ३९ ॥
परिपूर्णतमः कृष्णः प्राच्यां मां सर्वदाऽवतु ।
स्वयं गोलोकनाथो मामाग्नेय्यां दिशि रक्षतु ॥ ४० ॥
पूर्णब्रह्मस्वरूपश्च दक्षिणे मां सदाऽवतु ।
नैर्ऋत्यां पातु मां कृष्णः पश्चिमे पातु मां हरिः ॥ ४१ ॥
गोविन्दः पातु मां शश्वद्वायव्यां दिशि नित्यशः ।
उत्तरे मां सदा पातु रसिकानां शिरोमणिः ॥ ४२ ॥
ऐशान्यां मां सदा पातु वृन्दावनविहारकृत् ।
वृन्दावनीप्राणनाथः पातु मामूर्ध्वदेशतः ॥ ४३ ॥
सदैव माधवः पातु बलिहारी महाबलः ।
जले स्थले चान्तरिक्षे नृसिंहः पातु मां सदा ॥ ४४ ॥
स्वप्ने जागरणे शश्वत्पातु मां माधवः सदा ।
सर्वान्तरात्मा निर्लिप्तः पातु मां सर्वतो विभुः ॥ ४५ ॥
इति ते कथितं वत्स सर्वमन्त्रौघविग्रहम् ।
त्रैलोक्यविजयं नाम कवचं परमाद्भुतम् ॥ ४६ ॥
मया श्रुतं कृष्णवक्त्रात्प्रवक्तव्यं न कस्यचित् ।
गुरुमभ्यर्च्य विधिवत्कवचं धारयेत्तु यः ॥ ४७ ॥
कण्ठे वा दक्षिणे बाहौ सोऽपि विष्णुर्न संशयः ।
स च भक्तो वसेद्यत्र लक्ष्मीर्वाणी वसेत्ततः ॥ ४८ ॥
यदि स्यात्सिद्धकवचो जीवन्मुक्तो भवेत्तु सः ।
निश्चितं कोटिवर्षाणां पूजायाः फलमाप्नुयात् ॥ ४९ ॥
राजसूयसहस्राणि वाजपेयशतानि च ।
अश्वमेधायुतान्येव नरमेधायुतानि च ॥ ५० ॥
महादानानि यान्येव प्रादक्षिण्यं भुवस्तथा ।
त्रैलोक्यविजयस्यास्य कलां नार्हन्ति षोडशीम् ॥ ५१ ॥
व्रतोपवासनियमं स्वाध्यायाध्ययनं तपः ।
स्नानं च सर्वतीर्थेषु नास्यार्हन्ति कलामपि ॥ ५२ ॥
सिद्धत्वममरत्वं च दासत्वं श्रीहरेरपि ।
यदि स्यात्सिद्धकवचः सर्वं प्राप्नोति निश्चितम् ॥ ५३ ॥
स भवेत्सिद्धकवचो दशलक्षं जपेत्तु यः ।
यो भवेत्सिद्धकवचः सर्वज्ञः स भवेद्ध्रुवम् ॥ ५४ ॥
इदं कवचमज्ञात्वा भजेत्कृष्णं सुमन्दधीः ।
कोटिकल्पं प्रजप्तोऽपि न मन्त्रः सिद्धिदायकः ॥ ५५ ॥
गृहीत्वा कवचं वत्स महीं निःक्षत्रियां कुरु ।
त्रिस्सप्तकृत्वो निश्शंकः सदानन्दो हि लीलया ॥ ५६ ॥
राज्यं देयं शिरो देयं प्राणा देयाश्च पुत्रक ।
एवंभूतं च कवचं न देयं प्राणसंकटे ॥ ५७ ॥

महादेवजी ने कहा — भृगुवंशी महाभाग वत्स ! तुम प्रेम के कारण मुझे पुत्र से भी अधिक प्रिय हो; अतः आओ कवच ग्रहण करो। राम! जो ब्रह्माण्ड में परम अद्भुत तथा विजयप्रद है, श्रीकृष्ण के उस ‘ त्रैलोक्यविजय’ नामक कवच का वर्णन करता हूँ, सुनो। पूर्वकाल में श्रीकृष्ण ने गोलोक में स्थित वृन्दावन नामक वन में राधिकाश्रम में रासमण्डल के मध्य यह कवच मुझे दिया था । यह अत्यन्त गोपनीय तत्त्व, सम्पूर्ण मन्त्र-समुदाय का विग्रहस्वरूप, पुण्य से भी बढ़कर पुण्यतर परमोत्कृष्ट है और इसे स्नेहवश मैं तुम्हें बता रहा हूँ। जिसे पढ़कर एवं धारण करके मूलप्रकृति भगवती आद्याशक्ति ने शुम्भ, निशुम्भ, महिषासुर और रक्तबीज का वध किया था। जिसे धारण करके मैं लोकों का संहारक और सम्पूर्ण तत्त्वों का जानकार हुआ हूँ तथा पूर्वकाल में जो दुरन्त और अवध्य थे, उन त्रिपुरों को खेल ही खेल में दग्ध कर सका हूँ। जिसे पढ़कर और धारण करके ब्रह्मा ने इस उत्तम सृष्टि की रचना की है।

जिसे धारण करके भगवान् शेष सारे विश्व को धारण करते हैं। जिसे धारण करके कूर्मराज शेष को लीलापूर्वक धारण किये रहते हैं । जिसे धारण करके स्वयं सर्वव्यापक भगवान् वायु विश्व के आधार हैं । जिसे धारण करके वरुण सिद्ध और कुबेर धन के स्वामी हुए हैं। जिसे पढ़कर एवं धारण करके स्वयं इन्द्र देवताओं के राजा बने हैं। जिसे धारण करके तेजोराशि स्वयं सूर्य भुवन में प्रकाशित होते हैं। जिसे पढ़कर एवं धारण करके चन्द्रमा महान् बल और पराक्रम से सम्पन्न हुए हैं। जिसे पढ़कर एवं धारण करके महर्षि अगस्त्य सातों समुद्रों को पी गये और उसके तेज से वातापि नामक दैत्य को पचा गये। जिसे पढ़कर एवं धारण करके पृथ्वीदेवी सबको धारण करने में समर्थ हुई हैं। जिसे पढ़कर एवं धारण करके गङ्गा स्वयं पवित्र होकर भुवनों को पावन करने वाली बनी हैं। जिसे धारण करके धर्मात्माओं में श्रेष्ठ धर्म लोकों के साक्षी बने हैं । जिसे धारण करके सरस्वतीदेवी सम्पूर्ण विद्याओं की अधिष्ठात्रीदेवी हुई हैं। जिसे धारण करके परात्परा लक्ष्मी लोकों को अन्न प्रदान करनेवाली हुई हैं। जिसे पढ़कर एवं धारण करके सावित्री ने वेदों को जन्म दिया है । भृगुनन्दन ! जिसे पढ़ एवं धारणकर वेद धर्म के वक्ता हुए हैं। जिसे पढ़कर एवं धारण करके अग्नि शुद्ध एवं तेजस्वी हुए हैं और जिसे धारण करके भगवान् सनत्कुमार को ज्ञानियों में सर्वश्रेष्ठ स्थान मिला है। जो महात्मा, साधु एवं श्रीकृष्णभक्त हो, उसी को यह कवच देना चाहिये; क्योंकि शठ एवं दूसरे के शिष्य को देने से दाता मृत्यु को प्राप्त हो जाता है ।

इस त्रैलोक्यविजय कवच के प्रजापति ऋषि हैं। गायत्री छन्द है । स्वयं रासेश्वर देवता हैं और त्रैलोक्य की विजयप्राप्ति में इसका विनियोग कहा गया है। यह परात्पर कवच तीनों लोकों में दुर्लभ है। ‘ॐ श्रीकृष्णाय नमः ‘ सदा मेरे सिर की रक्षा करे । ‘कृष्णाय स्वाहा’ यह पञ्चाक्षर सदा कपाल को सुरक्षित रखे । ‘कृष्ण’ नेत्रों की तथा ‘कृष्णाय स्वाहा’ पुतलियों की रक्षा करे । ‘हरये नमः’ सदा मेरी भृकुटियों को बचावे । ‘ॐ गोविन्दाय स्वाहा’ मेरी नासिकाकी सदा रक्षा करे । ‘गोपालाय नमः ‘ मेरे गण्डस्थलों की सदा सब ओर से रक्षा करे। ‘ॐ गोपाङ्गनेशाय नमः’ सदा मेरे कानों की रक्षा करे । ‘ॐ कृष्णाय नमः ‘ निरन्तर मेरे दोनों ओठों की रक्षा करे । ‘ॐ गोविन्दाय स्वाहा’ सदा मेरी दन्तपङ्क्ति की रक्षा करे। ‘ॐ कृष्णाय नमः’ दाँतों के छिद्रों की तथा ‘क्लीं’ दाँतों के ऊर्ध्वभाग की रक्षा करे । ॐ श्रीकृष्णाय स्वाहा’ सदा मेरी जिह्वा की रक्षा करे । ‘रासेश्वराय स्वाहा’ सदा मेरे तालु की रक्षा करे । ‘राधिकेशाय स्वाहा’ सदा मेरे कण्ठ की रक्षा करे । ‘गोपाङ्गनेशाय नमः’ सदा मेरे वक्षःस्थल की रक्षा करे। ‘ॐ गोपेशाय स्वाहा’ सदा मेरे कंधों की रक्षा करे ।

‘नमः किशोरवेशाय स्वाहा’ सदा पृष्ठभाग की रक्षा करे । ‘मुकुन्दाय नमः’ सदा मेरे उदर की तथा ‘ॐ ह्रीं क्लीं कृष्णाय स्वाहा’ सदा मेरे हाथ-पैरों की रक्षा करे। ‘ॐ विष्णवे नमः’ सदा मेरी दोनों भुजाओं की रक्षा करे। ‘ॐ ह्रीं भगवते स्वाहा’ सदा मेरे नखों की रक्षा करे। ‘ॐ नमो नारायणाय’ सदा नख-छिद्रों की रक्षा करे । ‘ॐ ह्रीं ह्रीं पद्मनाभाय नमः’ सदा मेरी नाभि की रक्षा करे। ‘ॐ सर्वेशाय स्वाहा’ सदा मेरे कङ्काल की रक्षा करे । ‘ॐ गोपीरमणाय स्वाहा’ सदा मेरे नितम्ब की रक्षा करे। ‘ॐ गोपीरमणनाथाय स्वाहा’ सदा मेरे पैरों की रक्षा करे। ‘ॐ ह्रीं श्रीं रसिकेशाय स्वाहा’ सदा मेरे सर्वाङ्गों की रक्षा करे। ‘ॐ केशवाय स्वाहा’ सदा मेरे केशों की रक्षा करे । ‘नमः कृष्णाय स्वाहा’ सदा मेरे ब्रह्मरन्ध्र की रक्षा करे | ‘ॐ माधवाय स्वाहा’ सदा मेरे रोमों की रक्षा करे । ‘ॐ ह्रीं श्रीं रसिकेशाय स्वाहा’ मेरे सर्वस्व की सदा रक्षा करे ।

परिपूर्णतम श्रीकृष्ण पूर्व दिशा में सर्वदा मेरी रक्षा करें। स्वयं गोलोकनाथ अग्निकोण में मेरी रक्षा करें। पूर्णब्रह्मस्वरूप दक्षिण दिशा में सदा मेरी रक्षा करें। श्रीकृष्ण नैर्ऋत्यकोण में मेरी रक्षा करें । श्रीहरि पश्चिम दिशा में मेरी रक्षा करें । गोविन्द वायव्यकोण में नित्य निरन्तर मेरी रक्षा करें । रसिकशिरोमणि उत्तर दिशा में सदा मेरी रक्षा करें। वृन्दावनविहारकृत् सदा ईशानकोण में मेरी रक्षा करें । वृन्दावनी के प्राणनाथ ऊर्ध्वभाग में मेरी रक्षा करें । महाबली बलिहारी माधव सदैव मेरी रक्षा करें। नृसिंह जल, स्थल तथा अन्तरिक्ष में सदा मुझे सुरक्षित रखें। माधव सोते समय तथा जाग्रत्-काल में सदा मेरा पालन करें तथा जो सबके अन्तरात्मा, निर्लेप और सर्वव्यापक हैं, वे भगवान् सब ओर से मेरी रक्षा करें।

वत्स! इस प्रकार मैंने ‘ त्रैलोक्यविजय’ नामक कवच, जो परम अनोखा तथा समस्त मन्त्रसमुदाय का मूर्तिमान् स्वरूप है, तुम्हें बतला दिया। मैंने इसे श्रीकृष्ण के मुख से श्रवण किया था। इसे जिस-किसी को नहीं बतलाना चाहिये । विधिपूर्वक गुरु का पूजन करके इस कवच को गले में अथवा दाहिनी भुजा पर धारण करता है, वह भी विष्णुतुल्य हो जाता है; इसमें संशय नहीं है। वह भक्त जहाँ रहता है, वहाँ लक्ष्मी और सरस्वती निवास करती हैं। यदि उसे कवच सिद्ध हो जाता है तो वह जीवन्मुक्त हो जाता है और उसे करोड़ों वर्षों की पूजा का फल प्राप्त हो जाता है। हजारों राजसूय, सैकड़ों वाजपेय, दस हजार अश्वमेध, सम्पूर्ण महादान तथा पृथ्वी की प्रदक्षिणा — ये सभी इस त्रैलोक्यविजय की सोलहवीं कला की भी समानता नहीं कर सकते । व्रत-उपवास का नियम, स्वाध्याय, अध्ययन, तपस्या और समस्त तीर्थों में स्नान- ये सभी इसकी एक कला को भी नहीं पा सकते। यदि मनुष्य इस कवच को सिद्ध कर ले तो निश्चय ही उसे सिद्धि, अमरता और श्रीहरि की दासता आदि सब कुछ मिल जाता है । जो इसका दस लाख जप करता है, उसे यह कवच सिद्ध हो जाता है और जो सिद्धकवच होता है, वह निश्चय ही सर्वज्ञ हो जाता है । परंतु जो इस कवच को जाने बिना श्रीकृष्ण का भजन करता है, उसकी बुद्धि अत्यन्त मन्द है; उसे करोड़ों कल्पों तक जप करने पर भी मन्त्र सिद्धिदायक नहीं होता । वत्स ! इस कवच को धारण करके तुम आनन्दपूर्वक निःशङ्क होकर अनायास ही इक्कीस बार पृथ्वी को क्षत्रियों से शून्य कर डालो। बेटा! प्राणसंकट के समय राज्य दिया जा सकता है, सिर कटाया जा सकता है और प्राणों का परित्याग भी किया जा सकता है; परंतु ऐसे कवच का दान नहीं करना चाहिये ।          (अध्याय ३१)

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे तृतीये गणपतिखण्डे नारदनारायणसंवादे परशुरामाय श्रीकृष्णकवचप्रदानं नामैकत्रिंशत्तमोऽध्यायः ॥ ३१ ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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