February 16, 2025 | aspundir | Leave a comment ब्रह्मवैवर्तपुराण-गणपतिखण्ड-अध्याय 32 ॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥ बतीसवाँ अध्याय शिवजी का परशुराम को मन्त्र, ध्यान, पूजा-विधि और स्तोत्र प्रदान करना परशुराम ने कहा — नाथ ! जो सम्पूर्ण अङ्गों की रक्षा करनेवाला, सुखदायक, मोक्षप्रद, सार-सर्वस्व तथा शत्रुओं के संहार का कारण है, वह कवच तो मुझे प्राप्त हो गया । सामर्थ्यशाली भगवन्! अब मुझ अनाथ को मन्त्र, स्तोत्र और पूजाविधि प्रदान कीजिये; क्योंकि आप शरणागत के पालक हैं। ॐ नमो भगवते वासुदेवाय महादेवजी बोले — भृगुनन्दन ! ‘ॐ श्रीं नमः श्रीकृष्णाय परिपूर्णतमाय स्वाहा’ यह सप्तदशाक्षर महामन्त्र सभी मन्त्रों में मन्त्रराज है। मुनिवर ! पाँच लाख जप करने से यह मन्त्र सिद्ध हो जाता है । उस समय जप का दशांश हवन, हवन का दशांश अभिषेक, अभिषेक का दशांश तर्पण और तर्पण का दशांश मार्जन करने का विधान है तथा सौ मोहरें इस पुरश्चरण की दक्षिणा बतायी गयी हैं । मुने! जिस पुरुष को यह मन्त्र सिद्ध हो जाता है, उसके लिये विश्व करतलगत हो जाता है । वह समुद्रों को पी सकता है, विश्व का संहार करने में समर्थ हो जाता है और इसी पाञ्चभौतिक शरीर से वैकुण्ठ में जा सकता है। उसके चरणकमल की धूलि के स्पर्शमात्र से सारे तीर्थ पवित्र हो जाते हैं और पृथ्वी तत्काल पावन हो जाती है । मुने! जो भोग और मोक्ष का प्रदाता है, सर्वेश्वर श्रीकृष्ण का वह सामवेदोक्त ध्यान मेरे मुख से श्रवण करो। नवीनजलदश्यामं नीलेन्दीवरलोचनम् । शरत्पार्वणचन्द्रास्यमीषद्धास्यं मनोहरम् ॥ १० ॥ कोटिकन्दर्पलावण्यं लीलाधाममनोहरम् । रत्नसिहासनस्थं तं रत्नभूषणभूषितम् ॥ ११ ॥ चन्दनोक्षितसर्वाङ्गं पीताम्बरधरं वरम् । वीक्ष्यमाणं च गोपीभिः सस्मिताभिश्च संततम् ॥ १२ ॥ प्रफुल्लमालतोमालावनमालाविभूषितम् । दधतं कुन्दपुष्पाढ्यां चूडां चन्द्रकचर्चिताम् ॥ १३ ॥ प्रभां क्षिपन्तीं नभसश्चन्द्रतारान्वितस्य च । रत्नभूषितसर्वाङ्गं राधावक्षःस्थलस्थितम् ॥ १४ ॥ सिद्धेन्द्रैश्च मुनीन्द्रैश्च देवेन्द्रैः परिसेवितम् । ब्रह्मविष्णुमहेशैश्च श्रुतिभिश्च स्तुतं भजे ॥ १५ ॥ जो रत्ननिर्मित सिंहासन पर आसीन हैं; जिनका वर्ण नूतन जलधर के समान श्याम है; नेत्र नीले कमल की शोभा छीने लेते हैं; मुख शारदीय पूर्णिमा के चन्द्रमा को मात कर रहा है, उस पर मन्द मुस्कान की मनोहर छटा छायी हुई है । जो करोड़ों कामदेवों की भाँति सुन्दर, लीला के धाम, मनोहर और रत्नों के आभूषणों से विभूषित हैं । जिनके सम्पूर्ण अङ्गों में चन्दन की खौर लगी है । जो श्रेष्ठ पीताम्बर धारण किये हुए हैं। मुस्कराती हुई गोपियाँ सदा जिनकी ओर निहार रही हैं । जो प्रफुल्ल मालती-पुष्पों की माला तथा वनमाला से विभूषित हैं। जो सिर पर ऐसी कलँगी धारण किये हुए हैं, जिसमें कुन्द-पुष्पों की बहुतायत है, जो कर्पूर सुवासित है और चन्द्रमा एवं ताराओं से युक्त आकाश की प्रभा का उपहास कर रही है । जिनके सर्वाङ्ग में रत्नों के भूषण सुशोभित हैं । जो राधा के वक्षःस्थल में विराजमान रहते हैं। सिद्धेन्द्र, मुनीन्द्र और देवेन्द्र जिनकी सेवामें लगे रहते हैं तथा ब्रह्मा, विष्णु, महेश और श्रुतियाँ जिनका स्तवन करती रहती हैं; उन श्रीकृष्ण का मैं भजन करता हूँ। जो मनुष्य इस ध्यान से श्रीकृष्ण का ध्यान करके उन्हें षोडशोपचार समर्पित कर भक्तिपूर्वक उनका भली-भाँति पूजन करता है, वह सर्वज्ञत्व प्राप्त कर लेता है । ( पूजन की विधि इस प्रकार है – ) पहले भगवान् को भक्तिपूर्वक अर्घ्य, पाद्य, आसन, यज्ञसूत्र, धूप, दीप, नैवेद्य, पुनः आचमन, अनेक वस्त्र, भूषण, गौ, अर्घ्य, मधुपर्क, परमोत्तम प्रकार के पुष्प, सुवासित ताम्बूल, चन्दन, अगुरु, कस्तूरी, मनोहर दिव्य शय्या, माला और तीन पुष्पाञ्जलि निवेदित करना चाहिये । तदनन्तर षडङ्ग की पूजा करके फिर गण की विधिवत् पूजा करे । तत्पश्चात् श्रीदामा, सुदामा, वसुदामा, हरिभानु, चन्द्रभानु, सूर्यभानु और सुभानु — इन सातों श्रेष्ठ पार्षदों का भक्तिभाव सहित पूजन करे। फिर जो गोपीश्वरी, मूलप्रकृति, आद्याशक्ति, कृष्णशक्ति और कृष्ण द्वारा पूज्य हैं, उन राधिका की भक्तिपूर्वक पूजा करे । विद्वान् को चाहिये कि वह गोप और गोपियों के समुदाय, मुझ शान्तस्वरूप महादेव, ब्रह्मा, पार्वती, लक्ष्मी, सरस्वती, पृथ्वी, विग्रहधारी सम्पूर्ण देवता और देवषट्क की पञ्चोपचार द्वारा सम्यक्-रूप से पूजा करे । तत्पश्चात् इसी क्रम से श्रीकृष्ण का पूजन करे। फिर गणेश, सूर्य, अग्नि, विष्णु, शिव और पार्वती – इन छः देवों की भलीभाँति अर्चना करके इष्टदेव की पूजा करे । विघ्ननाश के लिये गणेश का, व्याधिनाश के लिये सूर्य का, आत्मशुद्धि के लिये अग्नि का, मुक्ति के लिये विष्णु का, ज्ञान के लिये शंकर का और परमैश्वर्य की प्राप्ति के लिये दुर्गा का पूजन करने पर यह फल मिलता है । यदि इनका पूजन न किया जाय तो विपरीत फल प्राप्त होता है । तदनन्तर भक्तिभाव सहित इष्टदेव का परिहार करके भक्तिपूर्वक सामवेदोक्त स्तोत्र का पाठ करना चाहिये । ( वह स्तोत्र बतलाता हूँ) उसे श्रवण करो । ॥ महादेव उवाच ॥ परं ब्रह्म परं धाम परं ज्योतिः सनातनम् । निर्लिप्तं परमात्मानं नमाम्यखिलकारणम् ॥ २९ ॥ स्थूलात्स्थूलतमं देवं सूक्ष्मात्सूक्ष्मतमं परम् । सर्वदृश्यमदृश्य च स्वेच्छाचारं नमाम्यहम् ॥ ३० ॥ साकारं च निराकारं सगुणं निर्गुणं प्रभुम् । सर्वाधारं च सर्वं च स्वेच्छारूपं नमाम्यहम् ॥ ३१ ॥ अतीव कमनीयं च रूपं निरुपमं विभुम् । करालरूपमत्यन्तं बिभतं प्रणमाम्यहम् ॥ ३२ ॥ कर्मणः कर्मरूपं तं साक्षिणं सर्वकर्मणाम् । फलं च फलदातारं सर्वरूपं नमाम्यहम् ॥ ३३ ॥ स्रष्टा पाता च संहर्ता कलया मूर्तिभेदतः । नानामूर्तिः कलांशेन यः पुमांस्तं नमाम्यहम् ॥ ३४ ॥ स्वयं प्रकृतिरूपश्च मायया च स्वयं पुमान् । तयोः परः स्वयं शश्वत्तं नमामि परात्परम् ॥ ३५ ॥ स्त्रीपुंनपुंसकं रूपं यो बिभर्ति स्वमायया । स्वयं’ माया स्वयं मायी यो देवस्तं नमाम्यहम् ॥ ३६ ॥ तारकं सर्वदुःखानां सर्वकारणकारणम् । धारकं सर्वविश्वानां सर्वबीजं नमाम्यहम् ॥ ३७ ॥ तेजस्विनां रविर्यो हि सर्वजातिषु वाडवः । नक्षत्राणां च यश्चन्द्रस्तं नमामि जगत्प्रभुम् ॥ ३८ ॥ रुद्राणां वैष्णवानां च ज्ञानिनां यो हि शंकरः । नागानां यो हि शेषश्च तं नमामि जगत्पतिम् ॥ ३९ ॥ प्रजापतीनां यो ब्रह्मा सिद्धानां कपिलः स्वयम् । सनत्कुमारो मुनिषु तं नमामि जगद्गुरुम् ॥ ४० ॥ देवानां यो हि विष्णुश्च देवीनां प्रकृतिः स्वयम् । स्वायंभुवो मनूनां यो मानवेषु च वैष्णवः ॥ नारीणां शतरूपा च बहुरूप नमाम्यहम् ॥ ४१ ॥ ऋतूनां यो वसन्तश्च मासानां मार्गशीर्षकः । एकादशी तिथीनां च नमाम्यखिलरूपिणम् ॥ ४२ ॥ सागरः सरितां यश्च पर्वतानां हिमालय । वसुंधरा सहिष्णूनां तं सर्वं प्रणमाम्यहम् ॥ ४३ ॥ पत्राणां तुलसीपत्रं दारुरूपेषु चन्दनम् । वृक्षाणां कल्पवृक्षो यस्तं नमामि जगत्पतिम् ॥ ४४ ॥ पुष्पाणां पारिजातश्च सस्यानां धान्यमेव च । अमृत भक्ष्यवस्तूनां नानारूपं नमाम्यहम् ॥ ४५ ॥ ऐरावतो गजेन्द्राणां वैनतेयश्च पक्षिणाम् । कामधेनुश्च धेनूनां सर्वरूपं नमाम्यहम् ॥ ४६ ॥ तैजसानां सुवर्णं च धान्यानां यव एव च । यः केसरी पशूनां च वररूपं नमाम्यहम् ॥ ४७ ॥ यक्षाणां च कुबेरो यो ग्रहाणां च बृहस्पतिः । दिक्पालानां महेन्द्रश्च तं नमामि परं वरम् ॥ ४८ ॥ वेदसंघश्च शास्त्राणां पण्डितानां सरस्वती । अक्षराणामकारो यस्तं प्रधानं नमाम्यहम् ॥ ४९ ॥ मन्त्राणां विष्णुमन्त्रश्च तीर्थानां जाह्नवी स्वयम् । इन्द्रियाणां मनो यो हि सर्वश्रेष्ठं नमाम्यहम् ॥ ५० ॥ सुदर्शनं च शस्त्राणां व्याधीनां वैष्णवो ज्वरः । तेजसां ब्रह्मतेजश्च वरेण्यं तं नमाम्यहम् ॥ ५१ ॥ बलं यो वै बलवतां मनो वै शीघ्रगामिनाम् । कालः कलयतां यो हि तं नमामि विचक्षणम् ॥ ५२ ॥ ज्ञानदाता गुरूणां च मातृरूपश्च बन्धुषु । मित्रेषु जन्मदाता यस्तं सारं प्रणमाम्यहम् ॥ ५३ ॥ शिल्पिनां विश्वकर्मा यः कामदेवश्च रूपिणाम् । पतिव्रता च पत्नीनां नमस्यं तं नमाम्यहम् ॥ ५४ ॥ प्रियेषु पुत्ररूपो यो नृपरूपो नरेषु च । शालग्रामश्च यन्त्राणां तं विशिष्टं नमाम्यहम् ॥ ५५ ॥ धर्मः कल्याणबीजानां वेदानां सामवेदकः । धर्माणां सत्यरूपो यो विशिष्टं तं नमाम्यहम् ॥ ५६ ॥ जले शैत्यस्वरूपो यो गन्धरूपश्च भूमिषु । शब्दरूपश्च गगने तं प्रणम्ये नमाम्यहम् ॥ ५७ ॥ क्रतूनां राजसूयो यो गायत्री छन्दसां च यः । गन्धर्वाणां चित्ररथस्तं गरिष्ठं नमाम्यहम् ॥ ५८ ॥ क्षीरस्वरूपो गव्यानां पवित्राणां च पावकः । पुण्यदानां च यः स्तोत्रं तं नमामि शुभप्रदम् ॥ ५९ ॥ तृणानां कुशरूपो यो व्याधिरूपश्च वैरिणाम् । गुणानां शान्तरूपो यश्चित्ररूपं नमाम्यहम् ॥ ६० ॥ तेजोरूपो ज्ञानरूपः सर्वरूपश्च यो महान् । सर्वानिर्वचनीयं च तं नमामि स्वयं विभुम् ॥ ६१ ॥ सर्वाधारेषु यो वायुर्यथाऽऽत्मा नित्यरूपिणाम् । आकाशो व्यापकानां यो व्यापकं तं नमाम्यहम् ॥ ६२ ॥ वेदानिवर्चनीयं यं न स्तोतुं पण्डितः क्षमः । यदनिर्वचनोयं च को वा तत्स्तोतुमीश्वरः ॥ ६३ ॥ वेदा न शक्ता यं स्तोतुं जडीभूता सरस्वती । तं च वाङ्त्मनसोः पारं को विद्वान्स्तोतुमीश्वरः ॥ ६४ ॥ शुद्धतेजः स्वरूपं च भक्तानुग्रहविग्रहम् । अतीव कमनीयं च श्यामरूपं नमाम्यहम् ॥ ६५ ॥ द्विभुजं मुरलीवक्त्रं किशोरं सस्मितं मुदा । शश्वद्गोपाङ्गनाभिश्च वक्ष्यमाणं नमाम्यहम् ॥ ६६ ॥ राधया दत्तताम्बूलं भुक्तवन्तं मनोहरम् । रत्नसिंहानस्थं च तमीशं प्रणमाम्यहम् ॥ ६७ ॥ रत्नभूषणभूषाढ्यं सेवितं श्वेतचामरैः । पार्षदप्रवरैर्गोपकुमारैस्तं नमाम्यहम् ॥ ६८ ॥ वृन्दावनान्तरे रम्ये रासोल्लाससमुत्सुकम् । रासमण्डलमध्यस्थं नमामि रसिकेश्वरम् ॥ ६९ ॥ शतशृङ्गे महाशैले गोलोके रत्नपर्वते । विरजापुलिने रम्ये प्रणमामि विहारिणम् ॥ ७० ॥ परिपूर्णतमं शान्तं राधाकान्तं मनोहरम् । सत्यं ब्रह्मस्वरूपं च नित्यं कृष्णं नमाम्यहम् ॥ ७१ ॥ श्रीकृष्णस्य स्तोत्रमिदं त्रिसंध्यं यः पठेन्नरः । धर्मार्थकाममोक्षाणां स दाता भारते भवेत् ॥ ७२ ॥ हरिदास्य हरौ भक्तिं लभेत्स्तोत्रप्रसादतः । इह लोके जगत्पूज्यो विष्णुतुल्यो भवेद्धृवम् ॥ ७३ ॥ सर्वसिद्धेश्वरः शान्तोऽप्यन्ते याति हरेः पदम् । तेजसा यशसा भाति यथा सूर्यो महीतले ॥ ७४ ॥ जीवन्मुक्तः कृष्णभक्तः स भवेन्नात्र संशयः । अरोगी गुणवान्विद्वान्पुत्रवान्धनवात्सदा ॥ ७५ ॥ षडभिज्ञो दशबलो मनोयायी भवेद्ध्रुवम् । सर्वज्ञः सर्वदश्चैव स दाता सर्वसंपदाम् ॥ ७६ ॥ कल्पवृक्षसमः शश्वद्भवेत्कृष्णप्रसादतः । इत्येवं कथितं स्तोत्रं वत्स त्वं गच्छ पुष्करम् ॥ ७७ ॥ तत्र कृत्वा मन्त्रसिद्धिं पश्चात्प्राप्स्यसि वाञ्छितम् । त्रिःसप्तकृत्वो निर्भूपां कुरु पृथ्वीं यथासुखम् । ममाऽऽशिषा मुनिश्रेष्ठ श्रीकृष्णस्य प्रसादतः ॥ ७८ ॥ महादेवजी ने कहा — जो परब्रह्म, परम धाम, परम ज्योति, सनातन, निर्लिप्त और सबके कारण हैं, उन परमात्मा को मैं नमस्कार करता हूँ। जो स्थूल से स्थूलतम, सूक्ष्म से सूक्ष्मतम सबके देखने योग्य, अदृश्य और स्वेच्छाचारी हैं, उन उत्कृष्ट देव को मैं प्रणाम करता हूँ। जो साकार, निराकार, सगुण, निर्गुण, सबके आधार, सर्वस्वरूप और स्वेच्छानुसार रूप धारण करनेवाले हैं; उन प्रभु को मेरा अभिवादन है। जिनका रूप अत्यन्त सुन्दर है, जो उपमारहित हैं और अत्यन्त कराल रूप धारण करते हैं; उन सर्वव्यापी भगवान् को मैं सिर झुकाता हूँ। जो कर्म के कर्मरूप, समस्त कर्मों के साक्षी, फल और फलदाता हैं; उन सर्वरूप को मेरा नमस्कार है। जो पुरुष अपनी कला से विभिन्न मूर्ति धारण करके सृष्टि का रचयिता, पालक और संहारक हैं तथा जो कलांश से नाना प्रकार की मूर्ति धारण करते हैं; उनके चरणों में मैं प्रणिपात करता हूँ। जो माया के वशीभूत होकर स्वयं प्रकृतिरूप हैं और स्वयं पुरुष हैं तथा स्वयं इन दोनों से परे हैं; उन परात्पर को मैं सदा नमस्कार करता हूँ। जो अपनी माया से स्त्री, पुरुष और नपुंसक का रूप धारण करते हैं तथा जो देव स्वयं माया और स्वयं मायेश्वर हैं; उन्हें मेरा प्रणाम है। जो सम्पूर्ण दुःखों से उबारने वाले, सभी कारणों के कारण और समस्त विश्वों को धारण करनेवाले हैं, सबके कारणस्वरूप हैं; उन परमेश्वर को मैं प्रणाम करता हूँ। जो तेजस्वियों में सूर्य, सम्पूर्ण जातियों में ब्राह्मण और नक्षत्रों में चन्द्रमा हैं; उन जगदीश्वर को मेरा अभिवादन है। जो रुद्रों, वैष्णवों और ज्ञानियों में शंकर हैं तथा जो नागों में शेषनाग हैं; उन जगत्पति को मैं मस्तक झुकाता हूँ। जो प्रजापतियों में ब्रह्मा, सिद्धों में स्वयं कपिल और मुनियों में सनत्कुमार हैं; उन जगद्गुरु को मेरा प्रणाम स्वीकार हो । जो देवताओं में विष्णु, देवियों में स्वयं प्रकृति, मनुओं में स्वायम्भुव मनु, मनुष्यों में वैष्णव और नारियों में शतरूपा हैं; उन बहुरूपिये को मैं नमस्कार करता हूँ। जो ऋतुओं में वसन्त, महीनों में मार्गशीर्ष और तिथियों में एकादशी हैं; उन सर्वरूप को मैं प्रणाम करता हूँ। जो सरिताओं में सागर, पर्वतों में हिमालय और सहनशीलों में पृथ्वीरूप हैं; उन सर्वरूप को मेरा प्रणाम है । जो पत्रों में तुलसीपत्र, लकड़ियों में चन्दन और वृक्षों में कल्पवृक्ष हैं; उन जगत्पति को मेरा अभिवादन है। जो पुष्पों में पारिजात, अन्नों में धान और भक्ष्य पदार्थों में अमृत हैं; उन अनेक रूपधारी को मैं सिर झुकाता हूँ। जो गजराजों में ऐरावत, पक्षियों में गरुड और गौओं में कामधेनु हैं; उन सर्वरूप को मैं नमन करता हूँ। जो तैजस पदार्थों में सुवर्ण, धान्यों में यव और पशुओं में सिंह हैं; उन श्रेष्ठ रूपधारी के समक्ष मैं नत होता हूँ। जो यक्षों में कुबेर, ग्रहों में बृहस्पति और दिक्पालों में महेन्द्र हैं; उन श्रेष्ठ परमात्मा को मैं नमस्कार करता हूँ । जो शास्त्रों में वेदसमुदाय, सदसद्विवेकशील बुद्धिमानों में सरस्वती और अक्षरों में अकार हैं; उन प्रधान देव को मैं प्रणाम करता हूँ। जो मन्त्रों में विष्णुमन्त्र, तीर्थों में स्वयं गङ्गा और इन्द्रियों में मन हैं; उन सर्वश्रेष्ठ को मेरा नमस्कार है । जो शस्त्रों में सुदर्शनचक्र, व्याधियों में वैष्णव-ज्वर और तेजों में ब्रह्मतेज हैं; उन वरणीय प्रभु को मेरा प्रणाम है । जो बलवानों में निषेक-कर्मफलभोग, शीघ्र चलने वालों में मन और गणना करने वालों में काल हैं; उन विलक्षण देव को मैं अभिवादन करता हूँ । जो गुरुओं में ज्ञानदाता, बन्धुओं में मातृरूप और मित्रों में जन्मदाता – पितृरूप हैं; उन साररूप परमेश्वर को मैं मस्तक झुकाता हूँ। जो शिल्पियों में विश्वकर्मा, रूपवानों में कामदेव और पत्नियों में पतिव्रता हैं; उन नमनीय प्रभु को मेरा अभिवादन है । जो प्रिय प्राणियों में पुत्ररूप, मनुष्यों में नरेश्वर और यन्त्रों में शालग्राम हैं; उन विशिष्ट को मैं नमस्कार करता हूँ। जो कल्याण-बीजों में धर्म, वेदों में सामवेद और धर्मों में सत्यरूप हैं; उन विशिष्ट को मैं प्रणाम करता हूँ। जो जल में शीतलता, पृथ्वी में गन्ध और आकाश में शब्दरूप से विद्यमान हैं; उन वन्दनीय को मैं अभिवादन करता हूँ। जो यज्ञों में राजसूय-यज्ञ और छन्दों में गायत्री छन्द हैं तथा जो गन्धर्वों में चित्ररथ हैं; उन परम महनीय को मैं सिर झुकाता हूँ। जो गव्य पदार्थों में दूध-स्वरूप, पवित्रों में अग्नि और पुण्य प्रदान करने वालों में स्तोत्र हैं; उन शुभदायक को मैं प्रणिपात करता हूँ। जो तृणों में कुशरूप और शत्रुओं में रोगरूप हैं तथा जो गुणों में शान्तरूप हैं; उन विचित्र रूपधारी को मैं नमन करता हूँ। जो तेजोरूप, ज्ञानरूप, सर्वरूप और महान् हैं; उन सबके द्वारा अनिर्वचनीय सर्वव्यापी स्वयं प्रभु को मेरा नमस्कार है । जो सर्वाधारस्वरूपों में वायु और नित्यरूपधारियों में आत्मा के समान हैं तथा जो आकाश की भाँति व्याप्त हैं; उन सर्वव्यापक को मेरा प्रणाम है। जो वेदों द्वारा अवर्णनीय हैं, अतः विद्वान् जिनकी स्तुति करने में असमर्थ हैं तथा जिनका गुणगान वाक् शक्ति के बाहर है; भला, उनका स्तवन करके कौन पार पा सकता है ? जिनकी स्तुति करने में वेद समर्थ नहीं हैं तथा सरस्वती जड-सी हो जाती हैं, मन-वाणी से परे उन भगवान् का कौन विद्वान् स्तवन कर सकता है ? जो शुद्ध तेज: स्वरूप, भक्तों के लिये मूर्तिमान् अनुग्रह और अत्यन्त सुन्दर हैं; उन श्याम-रूपधारी प्रभु को मेरा अभिवादन है। जिनके दो भुजाएँ हैं, मुख पर मुरली सुशोभित है, किशोर अवस्था है, जो आनन्दपूर्वक मुस्करा रहे हैं, गोपाङ्गनाएँ निरन्तर जिनकी ओर निहारा करती हैं; उन्हें मेरा प्रणाम स्वीकार हो । जो रत्ननिर्मित सिंहासनपर विराजमान हैं और राधा द्वारा दिये गये पान को चबा रहे हैं; उन मनोहर रूपधारी ईश्वर को मैं प्रणाम करता हूँ। जो रत्नों के आभूषणों से भलीभाँति सुसज्जित हैं तथा जिन पर पार्षद-प्रवर गोपकुमार श्वेत चँवर डुला रहे हैं; उन्हें मैं नमस्कार करता हूँ। जो रमणीय वृन्दावन के भीतर रासमण्डल के मध्य स्थित होकर रासक्रीडा के उल्लास से समुत्सुक हैं; उन रसिकेश्वर को मेरा प्रणाम है। जो शतशृङ्ग की चोटियों पर, महाशैल पर, गोलोक में रत्नपर्वत पर तथा विरजा नदी के रमणीय तट पर विहार करनेवाले हैं; उन्हें मेरा नमस्कार है । जो परिपूर्णतम, शान्त, राधा के प्रियतम, मन को हरण करने वाले, सत्यरूप और ब्रह्मस्वरूप हैं, उन अविनाशी श्रीकृष्ण को मैं अभिवादन करता हूँ। जो मनुष्य भारतवर्ष में श्रीकृष्ण के इस स्तोत्र का तीनों का पाठ करता है, वह धर्म, अर्थ, काम, मोक्षका दाता हो जाता है । इस स्तोत्र की कृपा से श्रीहरि में उसकी भक्ति सुदृढ़ हो जाती है । उसे श्रीहरि की दासता मिल जाती है और वह इस लोक में निश्चय ही विष्णु-तुल्य जगत्पूज्य हो जाता है । वह शान्ति-लाभ करके समस्त सिद्धों का ईश्वर हो जाता है और अन्त में श्रीहरि के परमपद को प्राप्त कर लेता है तथा भूतल पर अपने तेज और यश से सूर्य की तरह प्रकाशित होता है । वह जीवन्मुक्त, श्रीकृष्णभक्त, सदा नीरोग, गुणवान्, विद्वान्, पुत्रवान् और धनी हो जाता है – इसमें तनिक भी संशय नहीं है। वह निश्चय ही छहों विषयों का जानकार, दसों बलों से सम्पन्न, मन के सदृश वेगशाली, सर्वज्ञ, सर्वस्व दान करनेवाला और सम्पूर्ण सम्पदाओं का दाता हो जाता है तथा श्रीकृष्ण की कृपा से वह निरन्तर कल्पवृक्ष के समान बना रहता है । वत्स ! इस प्रकार मैंने इस स्तोत्र का वर्णन कर दिया। अब तुम पुष्कर में जाओ और वहाँ मन्त्र सिद्ध करो । तत्पश्चात् तुम्हें अभीष्ट फल की प्राप्ति होगी । मुनिश्रेष्ठ ! यों श्रीकृष्ण की कृपा से तथा मेरे आशीर्वाद से तुम सुखपूर्वक पृथ्वी को इक्कीस बार क्षत्रियों से शून्य करो * । (अध्याय ३२) ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे तृतीये गणपतिखण्डे नारदनारायणसंवादे स्तवप्रदानं नाम द्वात्रिंशत्तमोऽध्यायः ॥ ३२ ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Content is available only for registered users. 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