ब्रह्मवैवर्तपुराण-गणपतिखण्ड-अध्याय 33
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥
तैंतीसवाँ अध्याय
पुष्कर में जाकर परशुराम का तपस्या करना, श्रीकृष्ण द्वारा वर-प्राप्ति, आश्रम पर मित्रों के साथ उनका विजय यात्रा करना और शुभ शकुनों का प्रकट होना, नर्मदा तट पर रात्रि में परशुराम को स्वप्न में शुभ शकुनों का दिखलायी देना

श्रीनारायण कहते हैं — नारद! तदनन्तर भृगुवंशी परशुराम हर्षपूर्वक शिव, दुर्गा तथा भद्रकाली को प्रणाम करके पुष्करतीर्थ में गये और वहाँ मन्त्र सिद्ध करने लगे। उन्होंने एक महीने तक अन्न-जल का परित्याग कर दिया और भक्तिपूर्वक श्रीकृष्ण के चरणकमल का ध्यान करते हुए वायु को अवरुद्ध कर दिया। फिर आँखें खोलकर देखा तो उनको आकाश एक अद्भुत तेज से व्याप्त दिखायी पड़ा। उस तेज से दसों दिशाएँ उद्दीप्त हो रही थीं और सूर्य का तेज प्रतिहत हो गया था। उस तेजोमण्डल के मध्य उन्हें एक रत्ननिर्मित विमान दीख पड़ा, जिस पर एक अत्यन्त सुन्दर श्रेष्ठ पुरुष दृष्टिगोचर हो रहे थे । वे भक्तों पर अनुग्रह करने वाले थे तथा उनका मुख मन्द मुस्कान से खिल रहा था ।

गणेशब्रह्मेशसुरेशशेषाः सुराश्च सर्वे मनवो मुनीन्द्राः । सरस्वतीश्रीगिरिजादिकाश्च नमन्ति देव्यः प्रणमामि तं विभुम् ॥

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

परशुराम ने उन ईश्वर को दण्ड की भाँति लेटकर सिर से प्रणाम किया और वर माँगा — ‘भगवन्! मैं इक्कीस बार पृथ्वी को भूपालों से रहित कर दूँ, आपके चरणकमलों में मेरी अनपायिनी सुदृढ़ भक्ति हो और मैं निरन्तर आपके पादारविन्द का दास बना रहूँ- यह वर मुझे प्रदान कीजिये ।’

तब श्रीकृष्ण उन्हें वह वर देकर वहीं अन्तर्धान हो गये और परशुराम उन परात्पर को नमस्कार करके अपने आश्रम को लौट आये। उस समय उनका दाहिना अङ्ग फड़कने लगा, जो शुभ मङ्गलों का सूचक था। रात में उन्हें वाञ्छा-सिद्धि को प्रकट करने वाला उत्तम स्वप्न भी दीख पड़ा। इससे उनका मन रात-दिन प्रसन्न और संतुष्ट रहने लगा। वे स्वजनों से सारा वृत्तान्त पूर्णतया बतलाकर आनन्दपूर्वक आश्रम में निवास करने लगे । तदनन्तर महाबली परशुराम ने अपने शिष्यों को, पिता के शिष्यों को, भाइयों को तथा बन्धु-बान्धवों को बुला-बुलाकर उनके साथ तरह-तरह सलाह की और उनसे अपना पूर्वापर का वृत्तान्त कहकर शुभ मुहूर्त में वे उन्हीं के साथ विजय-यात्रा के लिये उद्यत हुए। उस समय परशुराम को मङ्गल शकुन दिखायी पड़ने लगे और जय की सूचना देनेवाले शब्द सुनायी दिये।

तब उन्होंने मन-ही-मन सबका विचार करके निश्चय कर लिया कि मेरी विजय होगी और शत्रुओं का संहार होगा। यात्रा के अवसर पर सहसा मुनि को अपने सामने मयूर की बोली, सिंह की गर्जना, घण्टा और दुन्दुभि की ध्वनि, संगीत, कल्याणकारी नवीन सांकेतिक शब्द और विजयसूचक बादलों की गड़गड़ाहट सुनायी पड़ी। उसी समय आकाशवाणी भी हुई कि ‘तुम्हारी विजय होगी।’ इस तरह अनेक प्रकार के शुभ शब्दों को सुनते हुए भगवान् परशुराम ने यात्रा आरम्भ की। चलते ही उन्होंने अपने आगे ब्राह्मण, वन्दी, ज्योतिषी और भिक्षुक को देखा। फिर नाना प्रकार के आभूषणों से सजी हुई एक पति-पुत्रसम्पन्ना सती नारी हाथ में प्रज्वलित दीपक लिये हुए मुस्कराती हुई सामने आयी ।

चलते-चलते परशुराम ने अपने दाहिनी ओर यात्रा के समय मङ्गल की सूचना देने वाले शव, शृगाली, जल से पूर्ण घट, नीलकण्ठ, नेवला, कृष्णसार मृग, हाथी, सिंह, घोड़ा, गैंडा, द्विप, चमरी गाय, राजहंस, चक्रवाक, शुक, कोयल, मोर, खंजन, सफेद चील, चकोर, कबूतर, बगुलों की पंक्ति, बत्तख, चातक, गौरैया, बिजली, इन्द्रधनुष, सूर्य, सूर्य की प्रभा, तुरंत का काटा हुआ मांस, जीवित मछली, शङ्ख, सुवर्ण, माणिक्य, चाँदी, मोती, हीरा, मूँगा, दही, लावा, सफेद धान, सफेद फूल, कुंकुम, पान का पत्ता, पताका, छत्र, दर्पण, श्वेत चँवर, सवत्सा गौ, रथारूढ़ भूपाल, दूध, घी, राशि – राशि अमृत, खीर, शालग्राम, पका हुआ फल, स्वस्तिक, शक्कर, मधु, बिलाव, साँड़, भेड़ा, पर्वतीय चूहा, मेघाच्छन्न सूर्य का उदय, चन्द्रमण्डल, कस्तूरी, पंखा, जल, हल्दी, तीर्थ की मिट्टी, पीली या सफेद सरसों, दूब, ब्राह्मण का बालक और कन्या, मृग, वेश्या, भौंरा, कपूर, पीला वस्त्र, गोमूत्र, गोबर, गौ के खुर की धूलि, गोपद से चिह्नित गोष्ठ, गौओं का मार्ग (डहर), रमणीय गोशाला, सुन्दर गोगति, भूषण, देवप्रतिमा, प्रज्वलित अग्नि, महोत्सव, ताँबा, स्फटिक, वैद्य, सिंदूर, माला, चन्दन, सुगन्ध, हीरा और रत्न देखा। उन्हें सुगन्धित वायु का आघ्राण और ब्राह्मणों का शुभाशीर्वाद प्राप्त हुआ ।

इस प्रकार माङ्गलिक अवसर जानकर वे हर्षपूर्वक आगे बढ़े और सूर्यास्त होते-होते नर्मदा के तट पर पहुँच गये। वहाँ उन्हें एक अत्यन्त मनोहर दिव्य अक्षयवट दिखायी दिया। वह अत्यन्त ऊँचा, विस्तारवाला और उत्तम एवं पावन आश्रम-स्थान था। वहाँ सुगन्धित वायु बह रही थी। वहीं पुलस्त्य-नन्दन ने तपस्या की थी। वहीं कार्तवीर्यार्जुन के आश्रम के निकट परशुराम अपने गणों के साथ ठहर गये। वहाँ उन्होंने रात में पुष्प-शय्या पर शयन किया। थके तो वे थे ही, अतः किंकरों द्वारा भली-भाँति सेवा किये जाने पर परमानन्द में निमग्न हो निद्रा के वशीभूत हो गये। रात व्यतीत होते-होते भार्गव परशुराम को एक सुन्दर स्वप्न दिखायी दिया, जो वायु, पित्त और कफके प्रकोप से रहित था और जिसका पहले मन में विचार भी नहीं किया गया था ।

उन्होंने देखा कि मैं हाथी, घोड़ा, पर्वत, अट्टालिका, गौ और फलयुक्त वृक्ष पर चढ़ा हुआ हूँ । मुझे कीड़े काट रहे हैं जिससे मैं रो रहा हूँ । मेरे शरी रमें चन्दन लगा है। मैं पीले वस्त्र से शोभित तथा पुष्पमाला धारण किये हुए हूँ । मेरा सारा शरीर मल-मूत्र से सराबोर है और उसमें मज्जा और पीब चुपड़ा हुआ है, ऐसी दशा में मैं नौका पर सवार हूँ और उत्तम वीणा बजा रहा हूँ । फिर देखा कि मैं नदी तट पर बड़े-बड़े कमल-पत्रों पर रखकर दही, घी और मधु-मिश्रित खीर खा रहा हूँ । पुनः देखा कि मैं पान चबा रहा हूँ । मेरे सामने फल, पुष्प और दीपक रखे हुए हैं तथा ब्राह्मण मुझे आशीर्वाद दे रहे हैं। फिर अपने को बारंबार पके हुए फल, दूध, शक्कर-मिश्रित गरमा-गरम अन्न, स्वस्तिक के आकार की बनी हुई मिठाई खाते देखा । पुनः उन्होंने देखा कि मुझे जल-जन्तु, बिच्छू, मछली तथा सर्प काट रहे हैं और मैं भयभीत होकर भाग रहा हूँ। फिर देखा कि मैं चन्द्रमा और सूर्य का मण्डल, पति और पुत्र से सम्पन्न नारी और मुस्कराते हुए ब्राह्मण को देख रहा हूँ। पुनः अपने को सुन्दर वेषवाली परम संतुष्ट कन्या तथा संतुष्ट एवं मुस्कानयुक्त ब्राह्मण द्वारा आलिङ्गित होते हुए देखा । फिर देखा कि मैं फल पुष्प-समन्वित वृक्ष, देवता की मूर्ति तथा हाथी पर एवं रथ पर सवार हुए राजा को देख रहा हूँ ।

पुनः उन्होंने देखा कि मैं एक ऐसी ब्राह्मणी को देख रहा हूँ, जो पीला वस्त्र धारण किये हुए है, रत्नों के आभूषणों से विभूषित है और घर में प्रवेश कर रही है। फिर अपने को शङ्ख, स्फटिक, श्वेत माला, मोती, चन्दन, सोना, चाँदी और रत्न देखते हुए पाया। पुनः भार्गव को हाथी, बैल, श्वेत सर्प, श्वेत चँवर, नीला कमल और दर्पण दिखायी पड़ा। परशुराम ने स्वप्न में अपने को रथारूढ़ नये रत्नों से संयुक्त, मालती की मालाओं से शोभित और रत्नसिंहासन पर स्थित देखा । परशुराम ने स्वप्न में कमलों की पंक्ति, भरा हुआ घट, दही, लावा, घी, मधु, पत्ते का छत्र और नाई देखा। भृगुनन्दन ने स्वप्न में बगुलों की कतार, हंसों की पाँति और मङ्गल-कलश की पूजा करती हुई व्रती कन्याओं की पंक्ति देखी। परशुराम ने स्वप्न में उन ब्राह्मणों को देखा, जो मण्डप में स्थित होकर शिव और विष्णु की पूजा कर रहे थे तथा ‘जय हो’ ऐसा उच्चारण कर रहे थे ।

फिर परशुराम ने स्वप्न में सुधावृष्टि, पत्तों की वर्षा, फलों की वृष्टि, लगातार होती हुई पुष्प और चन्दन की वर्षा, तुरंत का काटा हुआ मांस, जीवित मछली, मोर, श्वेत खंजन, सरोवर, तीर्थ, कबूतर, शुक, नीलकण्ठ, सफेद चील, चातक, बाघ, सिंह, सुरभी, गोरोचन, हल्दी, सफेद धानका विशाल पर्वत, प्रज्वलित अग्नि, दूब, समूह-के-समूह देव-मन्दिर, पूजित शिवलिङ्ग और पूजा की हुई शिव की मृण्मयी मूर्ति को देखा । परशुराम ने स्वप्न में जौ और गेहूँ के आटे की पूड़ी और लड्डू देखा और उन्हें बारंबार खाया। फिर अकस्मात् अपने को शस्त्र से घायल और जंजीर से बँधा हुआ देखकर उनकी नींद टूट गयी और वे प्रातः काल श्रीहरि का स्मरण करते हुए उठ बैठे। इस स्वप्न से उन्हें अत्यन्त हर्ष हुआ। तत्पश्चात् उन्होंने अपना प्रातःकालिक नित्य कर्म सम्पन्न किया और मन में ऐसा समझ लिया कि निश्चय ही सारे शत्रुओं को जीत लूँगा ।   (अध्याय ३३)

॥ इति श्रीब्रह्मवैवत्ते महापुराणे तृतीये गणपति खण्डे नारदनारायणसंवादे त्रयस्त्रिंशत्तमोऽध्यायः ॥ ३३ ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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