ब्रह्मवैवर्तपुराण-गणपतिखण्ड-अध्याय 35
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥
पैंतीसवाँ अध्याय
राजा को युद्ध के लिये उद्यत देख मनोरमा का योग द्वारा शरीर त्याग, राजा का विलाप और आकाशवाणी सुनकर उसकी अन्त्येष्टि-क्रिया करना, युद्धयात्रा के समय नाना प्रकार के अपशकुन देखना, कार्तवीर्य और परशुराम का युद्ध तथा कार्तवीर्य का वध, नारायण द्वारा शिव-कवच का वर्णन

नारायण कहते हैं — मुने ! मनोरमा ने अपने स्वामी के मुख से भविष्य की जो-जो बातें सुनीं, उन्हें मन में धारण कर लिया और यह समझ लिया कि ये बातें अवश्य सत्य होंगी; अतः उसने उसी क्षण अपने प्राणनाथ को अपनी छाती से लगा लिया और पुत्रों, बान्धवों तथा अपने भृत्यों को आगे करके वह भगवच्चरणों का ध्यान करने लगी। फिर उसने योग द्वारा षट्चक्र का भेदन करके वायु को मूर्धा में स्थापित किया और चञ्चल मन को जल के बुलबुले के सदृश क्षण-भङ्गुर विषयों से खींचकर, ब्रह्मरन्ध्र में स्थित सहस्रदल संयुक्त कमल पर स्थापित करके उसे ज्ञान द्वारा निष्कल ब्रह्म में बाँध दिया । तत्पश्चात् निर्मूल एवं पुनर्जन्मरहित द्विविध कर्म का परित्याग करके उसने वहीं प्राण त्याग दिये; परंतु प्राणों से अधिक प्रिय राजा को नहीं छोड़ा। तदनन्तर राजा विविध भाँति से करुण विलाप करके फूट-फूटकर रोने लगे ।

गणेशब्रह्मेशसुरेशशेषाः सुराश्च सर्वे मनवो मुनीन्द्राः । सरस्वतीश्रीगिरिजादिकाश्च नमन्ति देव्यः प्रणमामि तं विभुम् ॥

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

राजा के विलाप को सुनकर इस प्रकार आकाशवाणी हुई — ‘महाराज ! शान्त हो जाओ, क्यों रो रहे हो? तुम तो दत्तात्रेय की कृपा से बड़े-बड़े ज्ञानियों में श्रेष्ठ हो; अतः सारे संसार को, जो रमणीय दीख रहा है, जल के बुलबुले के सदृश क्षणभङ्गुर समझो। वह साध्वी मनोरमा तो लक्ष्मी के अंश से उत्पन्न हुई थी, अतः वह लक्ष्मी के वासस्थान को चली गयी। अब तुम भी रणभूमि में युद्ध करके वैकुण्ठ में जाओ ।’

आकाशवाणी के इस वचन को सुनकर नरेश ने शोक का परित्याग कर दिया। तत्पश्चात् चन्दन की लकड़ी से दिव्य चिता तैयार की और पुत्र द्वारा अग्नि-संस्कार कराकर उसका दाह कराया। फिर मनोरमा के पुण्य के निमित्त हर्षपूर्वक ब्राह्मणों को नाना प्रकार के रत्न, भाँति-भाँति के वस्त्र और अनेक तरह के अन्यान्य दान दिये । मुने! उस अवसर पर कार्तवीर्य के आश्रम में सर्वत्र निरन्तर यही शब्द होता था कि ‘दान दो, दान दो और खाओ, खाओ’। उस समय राजा द्वारा अधिकृत कोषों में जो-जो धन मौजूद था, उसे उसने मनोरमा के पुण्य के निमित्त हर्षपूर्वक ब्राह्मणों को दान कर दिया । तदनन्तर असंख्य बाजों तथा सैन्यसमूहों को साथ लेकर राजा दुःखी हृदय से समर-भूमि के लिये प्रस्थित हुआ। आगे बढ़ने पर यद्यपि राजा को प्रत्येक मार्ग में अमङ्गल के ही दर्शन हुए तथापि वह रणक्षेत्र की ओर ही बढ़ता गया; पुनः राजधानी को नहीं लौटा।

राजा को मार्ग में एक नग्न स्त्री मिली, जिसके बाल बिखरे थे, नाक कटी थी और वह रो रही थी। दूसरी विधवा भी मिली, जो काला वस्त्र पहने थी । आगे मुखदुष्टा, योनिदुष्टा, रोगिणी, कुट्टनी, पति-पुत्र से विहीन, डाकिनी, कुलटा, कुम्हार, तेली, व्याघ्र, सर्प द्वारा जीविका चलाने वाला (सँपेरा), कुत्सित वस्त्र, अत्यन्त रूखा शरीर, नंगा, काषाय- वस्त्रधारी, चरबी बेचने वाला, कन्या-विक्रयी, चिता में जलता हुआ शव, बुझे हुए अङ्गारों वाली राख, सर्प से डँसा हुआ मनुष्य, साँप, गोह, खरगोश, विष, श्राद्ध के लिये पकाया हुआ पाक, पिण्ड, मोटक, तिल, देवमूर्तियों पर चढ़े हुए धन से जीवन-निर्वाह करने वाला ब्राह्मण, वृषवाह (बैलपर सवारी करने वाला अथवा बैल को जोतनेवाला), शूद्र के श्राद्धान्न का भोजी, शूद्र का रसोइया, शूद्र का पुरोहित, गाँव का पुरोहित, कुश की पुत्तलिका, मुर्दा जलाने वाला, खाली घड़ा, फूटा घड़ा, तेल, नमक, हड्डी, रुई, कछुआ, धूल, भूँकता हुआ कुत्ता, दाहिनी ओर भयंकर शब्द करता हुआ सियार, जटा, हजामत, कटा हुआ बाल, नख, मल, कलह, विलाप करता हुआ मनुष्य, अमङ्गलसूचक विलाप करनेवाला तथा शोककारक रुदन करनेवाला, झूठी गवाही देनेवाला, चोर मनुष्य, हत्यारा, कुलटाका पति और पुत्र, कुलटाका अन्न खानेवाला, देवता, गुरु और ब्राह्मणोंकी वस्तुओं तथा धन का अपहरण करनेवाला, दान देकर छीन लेनेवाला, डाकू, हिंसक, चुगलखोर, दुष्ट, पिता- माता से विरक्त, ब्राह्मण और पीपल का विघातक, सत्य का हनन करने वाला, कृतघ्न, धरोहर हड़प लेने वाला मनुष्य, विप्रद्रोही, मित्रद्रोही, घायल, विश्वासघातक, गुरु, देवता और ब्राह्मण की निन्दा करनेवाला, अपने अङ्गों को काटने वाला, जीव-हिंसक, अपने अङ्ग से हीन, निर्दयी, व्रत-उपवास से रहित, दीक्षाहीन, नपुंसक, कुष्ठरोगी, काना, बहरा, पुक्कस (जातिविशेष), कटे हुए लिङ्गवाला (नागा), मदिरा से मतवाला, मदिरा, पागल, खून उगलने वाला, भैंसा, गदहा, मूत्र, विष्ठा, कफ, मनुष्य की सूखी खोपड़ी, प्रचण्ड आँधी, रक्त की वृष्टि, बाजा, वृक्ष का गिराया जाना, भेड़िया, सूअर, गीध, बाज, कङ्क (एक मांसाहारी पक्षी), भालू, पाश, सूखी लकड़ी, कौआ, गन्धक, पहले-पहल दान लेनेवाला ब्राह्मण (महापात्र), तन्त्र-मन्त्र से जीविका चलाने वाला, वैद्य, रत्न- पुष्प, औषध, भूसी, दूषित समाचार, मृतक की बातचीत, ब्राह्मण का दारुण शाप, दुर्गन्धयुक्त वायु और दुःशब्द आदि राजा के सामने आये।

राजाका मन दूषित हो गया, प्राण निरन्तर क्षुब्ध रहने लगे, बायाँ अङ्ग फड़कने लगा और शरीर में जडता आ गयी तथापि राजा को युद्ध में ही अपना मङ्गल दीख रहा था; अतः वह निःशङ्क हो सारी सेनाओं को साथ लेकर युद्धक्षेत्र में प्रविष्ट हुआ । वहाँ भृगुवंशी परशुराम को सामने देखकर वह तुरंत रथ से उतर पड़ा और भक्तिपूर्वक बड़े-बड़े राजाओं के साथ दण्ड की भाँति भूमि पर लेटकर उन्हें प्रणाम किया। तब परशुराम ने ‘तुम स्वर्ग में जाओ’ ऐसा राजा को उसका अभीष्ट आशीर्वाद दिया । वह उनके मनोऽनुकूल ही हुआ; क्योंकि ब्राह्मण के आशीर्वचन दुर्लङ्घ्य होते हैं । तदनन्तर राजराजेश्वर कार्तवीर्य उसी क्षण राजाओं सहित परशुराम को नमस्कार करके तुरंत ही रथ पर, जो नाना प्रकार की युद्ध-सामग्री से सम्पन्न था, सवार हुआ। फिर उसने सहसा दुन्दुभि, मुरज आदि तरह-तरह के बाजे बजवाये और ब्राह्मणों को धन दान किया। तब वेदवेत्ताओं में श्रेष्ठ परशुराम राजाओं की उस सभा में राजाधिराज कार्तवीर्य से हितकारक, सत्य एवं नीतियुक्त वचन बोले ।

परशुराम ने कहा — अये धर्मिष्ठ राजेन्द्र ! तुम तो चन्द्रवंश में उत्पन्न हुए हो और विष्णु के अंशभूत बुद्धिमान् दत्तात्रेय के शिष्य हो । तुम स्वयं विद्वान् हो और वेदज्ञों के मुख से तुमने वेदों का श्रवण भी किया है; फिर भी तुम्हें इस समय सज्जनों को विडम्बित करने वाली दुर्बुद्धि कैसे उत्पन्न हो गयी ? तुमने पहले लोभवश निरीह ब्राह्मण की हत्या कैसे कर डाली ? जिसके कारण सती-साध्वी ब्राह्मणी शोक संतप्त होकर पति के साथ सती हो गयी । भूपाल ! इन दोनों के वध से परलोक में तुम्हारी क्या गति होगी ? यह सारा संसार तो कमल के पत्ते पर पड़े हुए जल की बूँद की तरह मिथ्या ही है । सुयश हो अथवा अपयश, इसकी तो कथामात्र अवशिष्ट रह जाती है ।

अहो ! सत्पुरुषों की दुष्कीर्ति हो, इससे बढ़कर और क्या विडम्बना होगी ? कपिला कहाँ गयी, तुम कहाँ गये, विवाद कहाँ गया और मुनि कहाँ चले गये; परंतु एक विद्वान् राजा ने जो कर्म कर डाला, वह हलवाहा भी नहीं कर सकता। मेरे धर्मात्मा पिता ने तो तुम जैसे नरेश को उपवास करते देखकर भोजन कराया और तुमने उन्हें वैसा फल दिया ! राजन् ? तुमने शास्त्रों का अध्ययन किया है, तुम प्रतिदिन ब्राह्मणों को विधिपूर्वक दान देते हो और तुम्हारे यश से सारा जगत् व्याप्त है । फिर बुढ़ापे में तुम्हारी अपकीर्ति कैसे हुई ? प्राचीन काल के वन्दीगण ऐसा कहते हैं कि भूतल पर कार्तवीर्यार्जुन के समान दाता, सर्वश्रेष्ठ, धर्मात्मा, यशस्वी, पुण्यशाली और उत्तम बुद्धिसम्पन्न न कोई हुआ है और न आगे होगा । जो पुराणों में विख्यात है, उसकी ऐसी अपकीर्ति ! आश्चर्य है। राजन् ! प्राणियों के लिये दुर्वाक्य तीखे अस्त्र से भी बढ़कर दुस्सह होता है; इसीलिये संकट-काल में भी सत्पुरुषों के मुख से दुर्वचन नहीं निकलते । राजेन्द्र ! मैं तुम पर दोषारोपण नहीं कर रहा हूँ, बल्कि सच्ची बात कह रहा हूँ; अतः इस राजसभा में तुम मुझे उत्तर दो। इस सभा में सूर्य, चन्द्र और मनु के वंशज विद्यमान हैं; अतः सभा में तुम ठीक-ठीक बतलाओ, जिसे तुम्हारे पितर और देवगण भी सुनें। साथ ही सत्- असत् को कहने में समर्थ ये सारे नरेश भी श्रवण करें; क्योंकि समदृष्टि रखनेवाले सत्पुरुष लोग पक्षपात की बात नहीं कहते।

युद्धस्थल में इतना कहकर परशुराम चुप हो गये। तब बृहस्पति के समान बुद्धिमान् राजा ने कहना आरम्भ किया ।

कार्तवीर्यार्जुन ने कहा — हे राम ! आप श्रीहरि के अंश, हरि के भक्त और जितेन्द्रिय हैं। मैंने जिनके मुख से धर्म श्रवण किया है, आप उनके गुरु के भी गुरु हैं । जो कर्मवश ब्राह्मण-कुल में उत्पन्न हुआ है, ब्रह्म-चिन्तन करता है और अपने धर्म में तत्पर एवं शुद्ध है, इसीलिये वह ब्राह्मण कहलाता है। जो मनन करने के कारण नित्य बाहर-भीतर कर्म करता रहता है, सदा मौन धारण किये रहता है और समय आने पर बोलता है, वह मुनि कहलाता है । जिसकी सुवर्ण और मिट्टी के ढेले में, घर और जंगल में तथा कीचड़ और अत्यन्त चिकने चन्दन में समता की भावना है, वह योगी कहा जाता है। जो सम्पूर्ण जीवों में समत्व-बुद्धि से विष्णु की भावना करता है और श्रीहरि की भक्ति करता है, वह हरिभक्त कहा जाता है ।

कर्म्मणा वाऽप्यसद्बुध्या करोति ब्रह्मभावनाम् ।
स्वधर्मनिरतः शुद्धस्तस्माद्ब्राह्मण उच्चते ॥ ७० ॥
अन्तर्बहिश्च मननात्कुरुत कर्म्म नित्यशः ।
मौनी शश्वद्वदेत्काले यो वै स मुनिरुच्यते ॥ ७१ ॥
स्वर्णे लोष्टे गृहेऽरण्ये पंके सुस्निग्धचन्दने ।
समताभावना यस्य स योगी परिकीर्त्तितः ॥ ७२ ॥
सर्वजीवेषु यो विष्णुं भावयेत्समता धिया ।
हरौ करोति भक्तिं च हरिभक्तः स च स्मृतः ॥ ७३ ॥

ब्राह्मणों का धन तप है। चूँकि तपस्या कल्पतरु और कामधेनु के समान है, इसीलिये उनकी निरन्तर तप में इच्छा लगी रहती है । रजोगुणी पुरुष कर्मों के रागवश राजसिक कार्य करता है और रागान्ध होकर रजोगुणी कार्यों में लगा रहता है; इसी कारण वह राजा कहा जाता है। मुने! रागवश मैंने कामधेनु की याचना की थी; अतः मुझ अनुरागी क्षत्रिय का इसमें कौन-सा अपराध हुआ ? फिर भी, आपके पिता ने महान् बल-पराक्रम से सम्पन्न बहुत-से भूपालों का वध कर डाला। इस समय यहाँ शिशु अवस्था वाले राजकुमार ही आये हैं । आपने सम्पूर्ण पृथ्वी को इक्कीस बार भूपालों से शून्य कर देने के लिये जो प्रतिज्ञा की है, उसका पालन कीजिये । युद्ध करना तो क्षत्रियों का धर्म ही है। युद्ध में मृत्यु को प्राप्त हो जाना उनके लिये निन्दित नहीं है; परंतु ब्राह्मणों की रण-स्पृहा लोक और वेद- दोनों में विडम्बना की पात्र है । वाणी ही जिनका बल और तप ही जिनका धन है, उन ब्राह्मणों की शान्ति ही प्रत्येक युग में स्वस्तिकारक कर्म है। युद्ध करना ब्राह्मण का धर्म नहीं है । शान्तिपरायण ब्राह्मण युद्ध के लिये उद्योगशील हो, ऐसा तो न देखने में ही आया है और न सुना ही गया है । भगवान् नारायण के विद्यमान रहते यह दूसरी तरह का उलट-फेर कैसे हो गया ?

रणाङ्गण में यों कहकर राजेन्द्र कार्तवीर्य शान्त हो गया। उसके उस वचन को सुनकर सभी लोग मौन हो गये । तदनन्तर परशुराम के सभी भाई, जो बड़े शूरवीर तथा हाथों में अत्यन्त तीखे शस्त्र धारण किये हुए थे, उनकी आज्ञा से युद्ध करने के लिये आगे बढ़े। तब जो स्वयं मङ्गलस्वरूप तथा मङ्गलों का आश्रय-स्थान था, उस महाबली मत्स्यराज ने भी उन सबको युद्धोन्मुख देखकर युद्ध करना आरम्भ किया। उस राजेन्द्र ने बाणों का जाल बिछाकर उन सभी को रोक दिया। तब जमदग्नि के पुत्रों ने उस बाण-समूह को छिन्न-भिन्न कर दिया। मुने! राजा ने सैकड़ों सूर्यों के समान प्रकाशमान दिव्यास्त्र चलाया; परंतु मुनियों ने माहेश्वरास्त्र के द्वारा खेल-ही-खेल में उसे काट दिया । पुनः मुनियों ने दिव्यास्त्र द्वारा राजा के बाणसहित धनुष, रथ, सारथि और कवच की धज्जियाँ उड़ा दीं।

इस प्रकार राजा को शस्त्रहीन देखकर मुनियों को महान् हर्ष हुआ । तब उन्होंने मत्स्यराज का वध करने की इच्छा से शिवजी का त्रिशूल हाथ में उठाया ।

त्रिशूल चलाते समय आकाशवाणी हुई — ‘विप्रवरो! शिवजी का यह त्रिशूल अमोघ है, इसे मत चलाओ; क्योंकि मत्स्यराज के गले में सर्वाङ्गों की रक्षा करने वाला शिवजी का दिव्य कवच बँधा है, जिसे पूर्वकाल में दुर्वासा ने दिया था । अतः पहले राजा से उस प्राण-प्रदान करने वाले कवच को माँग लो।’

मुने! तदनन्तर परशुराम ने त्रिशूल चलाकर राजा पर चोट की, परंतु राजा के शरीर से टकराकर उस त्रिशूल के सौ टुकड़े हो गये। तब आकाशवाणी सुनकर महान् पराक्रमी जमदग्निनन्दन परशुराम ने शृङ्गधारी संन्यासी का वेष धारण करके राजा से कवच की याचना की । राजा ने ‘ब्रह्माण्ड-विजय’ नामक वह उत्तम कवच उन्हें दे दिया। उस कवच को लेकर परशुराम ने पुनः त्रिशूल से ही प्रहार किया। उसके आघात से मत्स्यराज, जो चन्द्रवंश में उत्पन्न, गुणवान् और महाबली था, जिसके मुख की कान्ति सैकड़ों चन्द्रमाओं के समान थी, भूतल पर गिर पड़ा।

नारद ने कहा — महाभाग नारायण ! मत्स्यराज ने शिवजी के जिस कवच को धारण किया था, उसका वर्णन कीजिये; क्योंकि उसे सुनने के लिये मुझे कौतूहल हो रहा है।

॥ ब्रह्माण्ड-विजय शिव-कवच॥
॥ नारायण उवाच ॥
कवचं शृणु विप्रेन्द्र शङ्करस्य महात्मनः ।
ब्रह्माण्डविजयं नाम सर्वावयवरक्षणम् ॥ ११४ ॥
पुरा दुर्वाससा दत्तं मत्स्यराजाय धीमते ।
दत्त्वा षडक्षरं मन्त्रं सर्वपापप्रणाशनम् ॥ ११५ ॥
स्थिते च कवचे देहे नास्ति मृत्युश्च जीविनाम् ।
अस्त्रे शस्त्रे जले वह्नौ सिद्धिश्चेन्नास्ति संशयः ॥ ११६ ॥
यद्धृत्वा पठनाद्बाणः शिवत्वं प्राप लीलया ।
बभूव शिवतुल्यश्च यद्धृत्वा नन्दिकेश्वरः ॥ ११७ ॥
वीरश्रेष्ठो वीरभद्रः साम्बोऽभूद्धारणाद्यतः ।
त्रैलोक्यविजयी राजा हिरण्यकशिपुः स्वयम् ॥ ११८ ॥
हिरण्याक्षश्च विजयी चाभवद्धारणाद्धि सः ।
यद्धृत्वा पठनात्सिद्धो दुर्वासा विश्वपूजितः ॥ ११९ ॥
जैगीषव्यो महायोगी पठनाद्धारणाद्यतः ।
यद्धृत्वा वामदेवश्च देवलः पवनः स्वयम् ।
अगस्त्यश्च पुलस्त्यश्चाप्यभवद्विश्वपूजितः ॥ १२० ॥
ॐ नमः शिवायेति च मस्तकं मे सदाऽवतु ।
ॐ नमः शिवायेति च स्वाहा भालं सदाऽवतु ॥ १२१ ॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं शिवायेति स्वाहा नेत्रे सदाऽवतु ।
ॐ ह्रीं श्रीं हूँ शिवायेति नमो मे पातु नासिकाम् ॥ १२२ ॥
ॐ नमः शिवाय शान्ताय स्वाहा कण्ठं सदाऽवतु ।
ॐ ह्रीं श्रीं हूँ संहारकर्त्रे स्वाहा कर्णौ सदाऽवतु ॥ १२३ ॥
ॐ ह्रीं श्रीं पञ्चवक्त्राय स्वाहा दन्तं सदाऽवतु ।
ॐ ह्रीं महेशाय स्वाहा चाधरं पातु मे सदा ॥ १२४ ॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं त्रिनेत्राय स्वाहा केशान्सदाऽवतु ।
ॐ ह्रीं ऐं महादेवाय स्वाहा वक्षः सदाऽवतु ॥ १२५ ॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं मैं रुद्राय स्वाहा नाभिं सदाऽवतु ।
ॐ ह्रीं मैं श्रीमीश्वराय स्वाहा पृष्ठं सदाऽवतु ॥ ॥ १२६ ॥
ॐ ह्रीं क्लीं मृत्युञ्जयाय स्वाहा भ्रुवौ बाहू सदाऽवतु ।
ॐ ह्रीं श्रीं ह्रीमीशानाय स्वाहा पार्श्वं सदाऽवतु ॥ १२७ ॥
ॐ ह्रीमीश्वराय स्वाहा चोदरं पातु मे सदा ।
ॐ श्रीं ह्रीं मृत्युञ्जयाय स्वाहा बाहू सदाऽवतु ॥ १२८ ॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीमीश्वराय स्वाहा पातु करौ मम ।
ॐ महेश्वराय रुद्राय नितम्बं पातु मे सदा ॥ १२९ ॥
ॐ ह्रीं श्रीं भूतनाथाय स्वाहा पादौ सदाऽवतु ।
ॐ सर्वेश्वराय सर्वाय स्वाहा पादौ सदाऽवतु ॥ १३० ॥
प्राच्यां मां पातु भूतेश आग्नेय्यां पातु शङ्करः ।
दक्षिणे पातु मां रुद्रो नैर्ऋत्यां स्थाणुरेव च ॥ १३१ ॥
पश्चिमे खण्डपरशुर्वायव्यां चन्द्रशेखरः ।
उत्तरे गिरिशः पातु चैशान्यामीश्वरः स्वयम् ॥ १३२ ॥
ऊर्ध्वे मृडः सदा पातु चाधो मृत्युञ्जयः स्वयम् ।
जले स्थले चान्तरिक्षे स्वप्ने जागरणे सदा ॥ १३३ ॥
पिनाकी पातु मां प्रीत्या भक्तं सवै भक्तवत्सलः ।
इति ते कथितं वत्स कवचं परमाद्भुतम् ॥ १३४ ॥
दशलक्षजपेनैव सिद्धिर्भवति निश्चितम् ।
यदि स्यात्सिद्धकवचो रुद्रतुल्यो भवेद्ध्रुवम् ॥ १३५ ॥
तव स्नेहान्मयाऽऽख्यातं प्रवक्तव्यं न कस्यचित् ।
कवचं कण्वशाखोक्तमतिगोप्यं सुदुर्लभम् ॥ १३६ ॥
अश्वमेधसहस्राणि राजसूयशतानि च ।
सर्वाणि कवचस्यास्य कलां नार्हन्ति षोडशीम् ॥ १३७ ॥
कवचस्य प्रसादेन जीवन्मुक्तो भवेन्नरः ।
सर्वज्ञः सर्वसिद्धीशो मनोयायी भवेद्ध्रुवम् ॥ १३८ ॥
इदं कवचमज्ञात्वा भजेद्यः शङ्करं प्रभुम् ।
शतलक्षं प्रजप्तोऽपि न मन्त्रः सिद्धिदायकः ॥ १३९ ॥

नारायण बोले विप्रवर! महात्मा शंकर के उस ‘ब्रह्माण्डविजय’ नामक कवच का, जो सर्वाङ्ग की रक्षा करनेवाला है, वर्णन करता हूँ; सुनो। पूर्वकाल में दुर्वासा ने बुद्धिमान् मत्स्यराज को सम्पूर्ण पापों का समूल नाश करने वाला षडक्षर मन्त्र बतलाकर इसे प्रदान किया था । यदि सिद्धि प्राप्त हो जाय तो इस कवच के शरीर पर स्थित रहते अस्त्र-शस्त्र प्रहार के समय, जल में तथा अग्नि में प्राणियों की मृत्यु नहीं होती – इसमें संशय नहीं है । जिसे पढ़कर एवं धारण करके दुर्वासा सिद्ध होकर लोकपूजित हो गये, जिसके पढ़ने और धारण करने से जैगीषव्य महायोगी कहलाने लगे। जिसे धारण करके वामदेव, देवल, स्वयं च्यवन, अगस्त्य और पुलस्त्य विश्ववन्द्य हो गये ।

‘ॐ नमः शिवाय’ यह सदा मेरे मस्तक की रक्षा करे । ‘ॐ नमः शिवाय स्वाहा’ यह सदा ललाट की रक्षा करे । ‘ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं शिवाय स्वाहा’ सदा नेत्रों की रक्षा करे । ॐ ह्रीं क्लीं हूं शिवाय नमः ‘ मेरी नासिकाकी रक्षा करे। ‘ॐ नमः शिवाय शान्ताय स्वाहा’ सदा कण्ठ की रक्षा करे। ‘ॐ ह्रीं श्रीं हूं संहारकर्त्रे स्वाहा’ सदा कानों की रक्षा करे । ‘ॐ ह्रीं श्रीं पञ्चवक्त्राय स्वाहा’ सदा दाँत की रक्षा करे । ‘ॐ ह्रीं महेशाय स्वाहा’ सदा मेरे ओठ की रक्षा करे। ‘ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं त्रिनेत्राय स्वाहा’ सदा केशों की रक्षा करे। ‘ॐ ह्रीं ऐं महादेवाय स्वाहा’ सदा छाती की रक्षा करे। ‘ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं रुद्राय स्वाहा’ सदा नाभि की रक्षा करे। ‘ॐ ह्रीं ऐं श्रीं ईश्वराय स्वाहा’ सदा पृष्ठभाग की रक्षा करे । ‘ॐ ह्रीं क्लीं मृत्युञ्जयाय स्वाहा’ सदा भौंहों की रक्षा करे। ‘ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ईशानाय स्वाहा’ सदा पार्श्वभाग की रक्षा करे। ‘ॐ ह्रीं ईश्वराय स्वाहा’ सदा मेरे उदर की रक्षा करे। ‘ॐ श्रीं क्लीं मृत्युञ्जयाय स्वाहा’ सदा भुजाओं की रक्षा करे । ‘ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ईश्वराय स्वाहा’ मेरे हाथों की रक्षा करे । ‘ ॐ महेश्वराय रुद्राय नमः ‘ सदा मेरे नितम्ब की रक्षा करे। ‘ॐ ह्रीं श्रीं भूतनाथाय स्वाहा’ सदा पैरों की रक्षा करे। ॐ सर्वेश्वराय सर्वाय स्वाहा’ सदा सर्वाङ्ग की रक्षा करे । पूर्व में ‘भूतेश’ मेरी रक्षा करें। अग्निकोण में ‘शंकर’ रक्षा करें। दक्षिण में ‘रुद्र’ तथा नैर्ऋत्यकोण में स्थाणु मेरी रक्षा करें। पश्चिम में ‘खण्डपरशु’, वायव्यकोण में ‘चन्द्रशेखर’, उत्तर में ‘गिरिश’ और ईशानकोण में स्वयं ‘ईश्वर’ रक्षा करें। ऊर्ध्वभाग में ‘मृड’ और अधोभाग में स्वयं ‘मृत्युञ्जय’ सदा रक्षा करें। जल में, स्थल में, आकाश में, सोते समय अथवा जागते रहने पर भक्तवत्सल ‘पिनाकी’ सदा मुझ भक्त की स्नेहपूर्वक रक्षा करें।

वत्स! इस प्रकार मैंने तुमसे इस परम अद्भुत कवच का वर्णन कर दिया। इसके दस लाख जप से ही सिद्धि हो जाती है, यह निश्चित है । यदि यह कवच सिद्ध हो जाय तो वह निश्चय ही रुद्र- तुल्य हो जाता है । वत्स ! तुम्हारे स्नेह के कारण मैंने वर्णन कर दिया है, तुम्हें इसे किसी को नहीं बतलाना चाहिये; क्योंकि यह काण्वशाखोक्त कवच अत्यन्त गोपनीय तथा परम दुर्लभ है। सहस्रों अश्वमेध और सैकड़ों राजसूय- ये सभी इस कवच की सोलहवीं कला की समानता नहीं कर सकते । इस कवच की कृपा से मनुष्य निश्चय ही जीवन्मुक्त, सर्वज्ञ, सम्पूर्ण सिद्धियों का स्वामी और मन के समान वेगशाली हो जाता है । इस कवच को बिना जाने जो भगवान् शंकर का भजन करता है, उसके लिये एक करोड़ जप करने पर भी मन्त्र सिद्धिदायक नहीं होता ।     (अध्याय ३५)

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त्ते महापुराणे तृतीये गणपतिखण्डे नारदनारायणसंवादे शङ्करकवचप्रकथनं नाम पञ्चत्रिंशोऽध्यायः ॥ ३५ ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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