ब्रह्मवैवर्तपुराण-गणपतिखण्ड-अध्याय 36
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥
छत्तीसवाँ अध्याय
मत्स्यराज के वध के पश्चात् अनेकों राजाओं का आना और परशुराम द्वारा मारा जाना, पुनः राजा सुचन्द्र और परशुराम का युद्ध, परशुराम द्वारा कालीस्तवन, ब्रह्मा का आकर परशुराम को युक्ति बताना, परशुराम का राजा सुचन्द्र से मन्त्र और कवच माँगकर उसका वध करना

श्रीनारायण कहते हैं — नारद! युद्ध में मत्स्यराज के गिर जाने पर महाराज कार्तवीर्य के भेजे हुए बृहद्बल, सोमदत्त, विदर्भ, मिथिलेश्वर, निषधराज, मगधाधिपति एवं कान्यकुब्ज, सौराष्ट्र, राढीय, वारेन्द्र, सौम्य बंगीय, महाराष्ट्र, गुर्जरजातीय और कलिंग आदि के सैकड़ों सैकड़ों राजा बारह अक्षौहिणी सेना के साथ आये; परंतु परशुरामजी ने सबको रणभूमि में सुला दिया। यह देखकर एक लाख नरपतियों के साथ बारह अक्षौहिणी सेना लेकर राजा सुचन्द्र रणस्थल में आये । सुचन्द्र के साथ भयानक युद्ध हुआ, पर वे परास्त न हो सके। तब परशुराम ने देखा कि मुण्डमाला धारण किये हुए विकटानना भयंकरी जगज्जननी भद्रकाली उनकी रक्षा कर रही हैं। यह देखकर परशुराम ने शस्त्रास्त्र का त्याग करके महामाया की स्तुति आरम्भ की।

गणेशब्रह्मेशसुरेशशेषाः सुराश्च सर्वे मनवो मुनीन्द्राः । सरस्वतीश्रीगिरिजादिकाश्च नमन्ति देव्यः प्रणमामि तं विभुम् ॥

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

॥ परशुराम उवाच ॥
नमः शंकरकान्तायै सारायै ते नमो नमः ।
नमो दुर्गतिनाशिन्यै मायायै ते नमो नमः ॥ २९ ॥
नमो नमो जगद्धात्र्यै जगत्कत्र्यै नमो नमः ।
नमोऽस्तु ते जगन्मात्रे कारणार्थं नमो नमः ॥ ३० ॥
प्रसीद जगतां मातः सृष्टिसंहारकारिणि ।
त्वत्पादौ शरणं यामि प्रतिज्ञां सार्थिकां कुरु ॥ ३१ ॥
त्वयि मे विमुखायाञ्च को मां रक्षितुमीश्वरः ।
त्वं प्रसन्ना भव शुभे मां भक्तं भक्तवत्सले ॥ ३२ ॥
युष्माभिः शिवलोके च मह्यं दत्तो वरः पुरा ।
तं वरं सफलं कर्तुं त्वमर्हसि वरानने ॥ ३३ ॥
रैणुकेयस्तवं श्रुत्वा प्रसन्नाऽभवदम्बिका ।
मा भैरित्येवमुक्त्वा तु तत्रैवान्तरधीयत ॥ ३४ ॥
एतद्‌भूगुकृतं स्तोत्रं भक्तियुक्तश्च यः पठेत् ।
महाभयात्समुत्तीर्णः स भवेदेव लीलया ॥ ३५ ॥
स पूजितश्च त्रैलोक्ये तत्रैव विजयी भवेत् ।
ज्ञातिश्रेष्ठो भवेच्चैव वैरिपक्षविमर्दकः ॥ ३६ ॥

परशुराम बोले — आप शंकरजी की प्रियतमा पत्नी हैं, आपको नमस्कार है । सारस्वरूपा आपको बारंबार प्रणाम है। दुर्गतिनाशिनी को मेरा अभिवादन है । मायारूपा आपको मैं बारंबार सिर झुकाता हूँ । जगद्धात्री को नमस्कार-नमस्कार । जगत्कर्त्री को पुनः पुनः प्रणाम । जगज्जननी को मेरा नमस्कार प्राप्त हो । कारणरूपा आपको बारंबार अभिवादन है। सृष्टि का संहार करने वाली जगन्माता ! प्रसन्न होइये। मैं आपके चरणों की शरण ग्रहण करता हूँ, मेरी प्रतिज्ञा सफल कीजिये। मेरे प्रति आपके विमुख हो जाने पर कौन मेरी रक्षा कर सकता है ? भक्तवत्सले ! शुभे ! आप मुझ भक्त पर कृपा कीजिये । सुमुखि ! पहले शिवलोक में आप लोगों ने मुझे जो वरदान दिया था, उस वर को आपको सफल करना चाहिये ।

परशुराम द्वारा किये गये इस स्तवन को सुनकर अम्बिका का मन प्रसन्न हो गया और ‘भय मत करो’ यों कहकर वे वहीं अन्तर्धान हो गयीं। जो मनुष्य भक्तिपूर्वक इस परशुरामकृत स्तोत्र का पाठ करता है, वह अनायास ही महान् भय से छूट जाता है। वह त्रिलोकी में पूजित, त्रैलोक्यविजयी, ज्ञानियों में श्रेष्ठ और शत्रुपक्ष का विमर्दन करने वाला हो जाता है ।

इसी बीच ब्रह्माजी धर्मात्माओं में श्रेष्ठ भृगुवंशी परशुराम के पास आकर उनसे उस रहस्य का वर्णन करने लगे ।

ब्रह्माजी बोले — महाभाग राम ! अपनी प्रतिज्ञा सफल करने के लिये पहले तुम सुचन्द्र की विजय के हेतुभूत रहस्य का मुझसे श्रवण करो । पूर्वकाल में दुर्वासा ने सुचन्द्र को दशाक्षरी महाविद्या तथा भद्रकाली का परम दुर्लभ कवच प्रदान किया था । भद्रकाली का कवच देवताओं के लिये भी अत्यन्त दुर्लभ है। वह कवच सम्पूर्ण शत्रुओं का विनाश करने वाला, अत्यन्त पूजनीय, प्रशंसनीय और त्रिलोकी पर विजय पाने का कारण है । वह कवच जिसके गले में वर्तमान है, उसे जीतने के लिये भूतल पर तुम कैसे समर्थ हो सकते हो ? अतः भार्गव ! तुम भिक्षा के लिये जाओ और राजा से प्रार्थना करो। सूर्यवंश में उत्पन्न हुआ वह राजा परम धर्मात्मा एवं दानी है । माँगने पर वह निश्चय ही प्राण, कवच, मन्त्र आदि सब कुछ डालेगा।

मुने! तब परशुराम संन्यासी का वेष धारण करके राजा के पास गये और उससे उन्होंने मन्त्र तथा परम अद्भुत कवच की याचना की। तब राजा ने अत्यन्त आदरपूर्वक उन्हें मन्त्र और कवच दे दिया। तदनन्तर परशुराम ने शंकरजी के त्रिशूल से उस राजा का काम तमाम कर दिया ।    (अध्याय ३६)

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त महापुराणे गणपतिखण्डे नारदनारायणसंवादे भृगुकार्तवीर्ययुद्धवर्णनं नाम षट्त्रिंशोऽध्यायः ॥ ३६ ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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