ब्रह्मवैवर्तपुराण-गणपतिखण्ड-अध्याय 04
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥
चौथा अध्याय
शिवजी द्वारा पार्वती से पुण्यक व्रत की सामग्री, विधि तथा फल का वर्णन

श्रीनारायण कहते हैं — नारद! पुण्यक-व्रत का विधान सुनकर पार्वती का मन प्रसन्न हो गया। तत्पश्चात् उन्होंने व्रत की सम्पूर्ण विधि के विषय में प्रश्न करना आरम्भ किया ।

पार्वती बोलीं नाथ! आप वेदवेत्ताओं में श्रेष्ठ, करुणा के सागर तथा परात्पर हैं। दीनबन्धो ! इस व्रत का सारा विधान मुझे बतलाइये। प्रभो ! कौन-कौन-से द्रव्य और फल इस व्रत में उपयोगी होते हैं ? इसका समय क्या है ? किस नियम का पालन करना पड़ता है ? इसमें आहार का क्या विधान है ? और इसका क्या फल होता है ? यह सब मुझ विनम्र सेविका से वर्णन कीजिये । साथ ही एक उत्तम पुरोहित, पुष्प एकत्रित करने के लिये ब्राह्मण और सामग्री जुटाने के लिये भृत्यों को भी नियुक्त कर दीजिये । इनके अतिरिक्त और भी जो व्रतोपयोगी वस्तुएँ हैं, जिन्हें मैं नहीं जानती हूँ, वह सब भी एकत्र करा दीजिये; क्योंकि स्त्रियों के लिये स्वामी ही सब कुछ प्रदान करनेवाला होता है।

गणेशब्रह्मेशसुरेशशेषाः सुराश्च सर्वे मनवो मुनीन्द्राः । सरस्वतीश्रीगिरिजादिकाश्च नमन्ति देव्यः प्रणमामि तं विभुम् ॥

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

स्त्रियों की तीन अवस्थाएँ होती हैं — कौमार, युवा और वृद्ध । कौमार-अवस्था में पिता, युवावस्था में पति और वृद्धावस्था में पुत्र सब तरह से पालन करने वाले होते हैं । प्राणनाथ! आप तो सर्वात्मा, ऐश्वर्यशाली, सर्वसाक्षी और सर्वज्ञ हैं, अतः अपने आत्मा की निर्वृति का कारणभूत एक श्रेष्ठ पुत्र मुझे प्रदान कीजिये । भगवन्! यह तो मैंने अपनी जानकारी के अनुरूप आप-जैसे महात्मा से निवेदन किया है। आप तो सबके आन्तरिक अभिप्राय के ज्ञाता और परम ज्ञानी हैं। भला, मैं आपको क्या समझा सकती हूँ?

इस प्रकार कहकर पार्वती ने प्रेमपूर्वक अपने पतिदेव के चरणों में माथा टेक दिया । तब कृपासिन्धु भगवान् शिव कहने को उद्यत हुए ।

श्रीमहादेवजी ने कहा — देवि ! मैं इस व्रत की विधि, नियम, फल और व्रतोपयोगी द्रव्यों तथा फलों का वर्णन करता हूँ, सुनो। इस व्रत के हेतु मैं फल-पुष्प लाने के लिये सौ शुद्ध ब्राह्मणों को, सामग्री जुटाने के निमित्त सौ भृत्यों और बहुसंख्यक दासियों को तथा पुरोहित के स्थान पर सनत्कुमार को, जो सम्पूर्ण व्रतों की विधि के ज्ञाता, वेद-वेदान्त के पारंगत विद्वान्, हरिभक्तों में सर्वश्रेष्ठ, सर्वज्ञ, उत्तम ज्ञानी और मेरे ही समान हैं, नियुक्त करता हूँ । तुम इन्हें ग्रहण करो।

देवि ! शुद्ध समय आने पर परम नियमपूर्वक व्रत का अनुष्ठान करना चाहिये । प्रिये ! माघ-मास की शुक्ल त्रयोदशी के दिन इस व्रत का आरम्भ शुभ होता है। उत्तम व्रती को चाहिये कि वह व्रतारम्भ के पूर्व दिन उपवास करे और शरीर को अत्यन्त निर्मल करके यत्नपूर्वक वस्त्र को धोकर स्वच्छ कर ले। फिर दूसरे दिन अरुणोदय-वेला में शय्या से उठ जाय और मुख को शुद्ध करके निर्मल जल में स्नान करे। तत्पश्चात् हरिस्मरणपूर्वक आचमन करके पवित्र हो जाय । फिर भक्ति सहित श्रीहरि को अर्घ्य देकर शीघ्र ही घर लौट आये। वहाँ धुली हुई धोती और चादर धारण करके पवित्र आसन पर बैठे। फिर आचमन और तिलक करके अपना नित्यकर्म समाप्त करे । तत्पश्चात् पहले प्रयत्नपूर्वक पुरोहित का वरण करके स्वस्ति-वाचन-पूर्वक कलश स्थापन करे । फिर वेद-विहित संकल्प करके इस व्रत का अनुष्ठान आरम्भ करे ।

तदनन्तर सौन्दर्य, नेत्रदीप्ति, विविध अङ्गों के सौन्दर्य, पति-सौभाग्य आदि के लिये विभिन्न वस्तुओं के संख्या सहित समर्पण करने की बात कहकर शंकरजी पुनः बोले- देवि ! पुत्र-प्राप्ति के लिये कूष्माण्ड, नारियल, जम्बीर तथा श्रीफल – इन फलों को श्रीहरि के अर्पण करना चाहिये । असंख्य जन्म-पर्यन्त स्वामी के धन की वृद्धि के निमित्त यत्नपूर्वक श्रीकृष्ण को एक लाख रत्नेन्द्रसार समर्पित करना चाहिये । व्रती को चाहिये कि व्रतकाल में सम्पत्ति की वृद्धि के हेतु झाँझ-मजीरा आदि नाना प्रकार के उत्तम बाजे बजाकर श्रीहरि को सुनावे | स्वामी की भोगवृद्धि के लिये भक्तिपूर्वक श्रीहरि को मनोहर खीर और शक्करयुक्त घी तथा पूड़ी का भोग प्रदान करे । हरिभक्ति की विशेष उन्नति के लिये स्वेच्छानुसार सुगन्धित पुष्पों की एक लाख माला, जो टूटी हुई न हों, भक्तिपूर्वक श्रीहरि को अर्पित करनी चाहिये । दुर्गे श्रीकृष्ण की प्रसन्नता-प्राप्ति के हेतु नाना प्रकार के स्वादिष्ट एवं मधुर नैवेद्यों का भोग लगाना चाहिये । सुव्रते ! इस व्रत में श्रीकृष्ण को प्रसन्न करने के लिये भक्ति सहित तुलसी-दल से संयुक्त अनेक प्रकार के पुष्प निवेदन करना चाहिये ।

व्रती को चाहिये कि वह व्रतकाल में जन्म-जन्मान्तर में अपने धन-धान्य की समृद्धि के लिये प्रतिदिन एक सहस्र ब्राह्मणों को भोजन करावे । देवि ! प्रतिदिन पूजनकाल में पुष्पों से भरी हुई सौ अञ्जलियाँ समर्पित करे तथा भक्ति की वृद्धि के लिये सौ बार प्रणाम करना चाहिये। सुव्रते! व्रतकाल में छः मास तक हविष्यान्न, पाँच मास तक फलाहार और एक पक्ष तक हवि का भोजन करे तथा एक पक्ष तक केवल जल पीकर रहना चाहिये। अग्निदेव के लिये सौ अखण्ड रत्नदीपों का दान करना चाहिये। रात्रि में कुशासन बिछाकर नित्य जागरण करना उत्तम है । व्रती को चाहिये कि व्रत की शुद्धि के लिये स्मरण, कीर्तन, केलि, प्रेक्षण, गुह्यभाषण, संकल्प, अध्यवसाय तथा क्रियानिष्पत्ति — इन अष्टविध मैथुनों का परित्याग कर दे।

देवि ! इस प्रकार व्रत के भली-भाँति पूर्ण होने पर तदनन्तर व्रतोद्यापन करना चाहिये । उस समय तीन सौ साठ डलियाएँ, जो वस्त्रों से आच्छादित तथा भोजन के पदार्थ, यज्ञोपवीत और मनोहर उपहारों से सजी हुई हों, दान करनी चाहिये । एक हजार तीन सौ साठ ब्राह्मणों को भोजन तथा एक हजार तीन सौ साठ तिल की आहुतियाँ देने का विधान है। फिर व्रत समाप्त हो जाने पर विधिपूर्वक एक हजार तीन सौ साठ स्वर्णमुद्राओं की दक्षिणा देनी चाहिये। इसके अतिरिक्त व्रत-समाप्ति के दिन दूसरी दक्षिणा भी बतलाऊँगा ।

देवि ! इस व्रत का फल यही है कि श्रीहरि में भक्ति दृढ़ हो जाती है । श्रीहरि के सदृश तीनों भुवनों में विख्यात पुत्र उत्पन्न होता है और सौन्दर्य, पतिसौभाग्य, ऐश्वर्य और अतुल धन की प्राप्ति होती है। महेश्वरि ! यह व्रत प्रत्येक जन्म में समस्त वाञ्छित सिद्धियों का बीज है, जिसका मैंने इस प्रकार वर्णन किया है; अतः देवि ! तुम भी इस व्रत का अनुष्ठान करो। साध्वि ! तुम्हें पुत्र उत्पन्न होगा। यों कहकर शिवजी चुप हो गये । ( अध्याय ४ )

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त्ते महापुराणे तृतीये गणपतिखण्डे नारदनारायणसंवादे पुण्यक व्रतविधानं नाम चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४ ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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