February 18, 2025 | aspundir | Leave a comment ब्रह्मवैवर्तपुराण-गणपतिखण्ड-अध्याय 41 ॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥ इकतालीसवाँ अध्याय परशुराम का कैलास-गमन, वहाँ शिव-भवन में पार्षदों सहित गणेश को प्रणाम करके आगे बढ़ने को उद्यत होना, गणेश द्वारा रोके जाने पर उनके साथ वार्तालाप श्रीनारायण कहते हैं — नारद! श्रीहरि का कवच धारण करके जब परशुराम ने पृथ्वी को क्षत्रियों से रहित कर दिया, तब वे अपने गुरुदेव शिव को नमस्कार करने और गुरुपत्नी अम्बा शिवा को तथा दोनों गुरुपुत्र कार्तिकेय और गणेश्वर को, जो गुणों में नारायण के समान थे, देखने के लिये कैलास को चले। वे भृगुवंशी महात्मा मन के समान वेगशाली थे; अतः उसी क्षण कैलास पर जा पहुँचे। ॐ नमो भगवते वासुदेवाय वहाँ उन्होंने अत्यन्त रमणीय परम मनोहर नगर देखा । वह नगर ऐसी बड़ी-बड़ी सड़कों से सुशोभित था, जो अत्यन्त भली लगती थीं। उनकी भूमि सोने की भूमिकी- सी थी, जिन पर शुद्ध स्फटिक के सदृश मणियाँ जड़ी हुई थीं । उस नगर में चारों ओर सिंदूर की- सी रंगवाली मणियों की वेदिकाएँ बनी थीं। वह राशि – की राशि मुक्ताओं से संयुक्त और मणियों के मण्डपों से परिपूर्ण था। उसमें यक्षों के एक अरब दिव्य भवन थे, जो रत्नों और काञ्चनों से परिपूर्ण, यक्षेन्द्र-गणों से परिवेष्टित और मणिनिर्मित किवाड़, खम्भे और सीढ़ियों से शोभायमान थे । वह नगर दिव्य सुवर्ण कलशों, चाँदी के बने हुए श्वेत चँवरों, रत्नों के आभूषणों से विभूषित था। वह उद्दीप्त होती हुई सुन्दरियों, हाथों में चित्रलिखित पुतलिकाएँ लिये हुए निरन्तर स्वच्छन्दतापूर्वक हँसते और खेलते हुए सुन्दर-सुन्दर बालकों एवं बालिकाओं तथा स्वर्गगङ्गा के तट पर उगे हुए पारिजात के वृक्ष-समूहों से खचाखच भरा था । सुगन्धित एवं खिले हुए पुष्पसमूहों से सम्पन्न, कल्पवृक्षों का आश्रय लेने वाले कामधेनु से पुरस्कृत, सिद्धविद्या में अत्यन्त निपुण पुण्यवान् सिद्धों द्वारा सेवित था। जो तीन लाख योजन ऊँचे और सौ योजन के विस्तार वाले थे। जिनमें सैकड़ों मोटी-मोटी डालियाँ थीं, जो असंख्य शाखा समूहों और असंख्य फलों से संयुक्त थे। परम मनोहर शब्द करने वाले विभिन्न प्रकार के पक्षि-समूहों से व्याप्त थे । शीतल-सुगन्ध वायु जिन्हें कम्पायमान कर रही थी, ऐसे अविनाशी वटवृक्षों से, सहस्रों पुष्पोद्यानों से, सैकड़ों सरोवरों से तथा मणियों एवं रत्नों से बने हुए सिद्धेन्द्रों के लाखों भवनों से वह नगर सुशोभित था । उसे देखकर परशुराम का मन अत्यन्त प्रसन्नता से खिल उठा। फिर सामने ही उन्हें शंकरजी का शोभाशाली रमणीय आश्रम दीख पड़ा । विश्वकर्मा ने बहुमूल्य सुनहली मणियों द्वारा उसकी रचना की थी । उसमें हीरे जड़े हुए थे । वह पंद्रह योजन ऊँचा और चार योजन विस्तृत था। उसके चारों ओर अत्यन्त सुन्दर सुडौल चौकोर परकोटा बना हुआ था। दरवाजों पर नाना प्रकार की चित्रकारियों से युक्त रत्नों के किवाड़ लगे थे। वह उत्तम मणियों की वेदियों से युक्त तथा मणियों के खंभों से सुशोभित था । नारद! परशुराम ने उस आश्रम के प्रधान-द्वार के दाहिनी ओर वृषेन्द्र को और बायीं ओर सिंह तथा नन्दीश्वर, महाकाल, भयंकर पिंगलाक्ष, विशालाक्ष, बाण, महाबली विरूपाक्ष, विकटाक्ष, भास्कराक्ष, रक्ताक्ष, विकटोदर, संहारभैरव, भयंकर कालभैरव, रुरुभैरव, ईश की-सी आभा वाले महाभैरव, कृष्णाङ्गभैरव, दृढपराक्रमी क्रोधभैरव, कपालभैरव, रुद्रभैरव तथा सिद्धेन्द्रों, रुद्रगणों, विद्याधरों, गुह्यकों, भूतों, प्रेतों, पिशाचों, कूष्माण्डों, ब्रह्मराक्षसों, वेतालों, दानवों, जटाधारी योगीन्द्रों, यक्षों, किंपुरुषों और किन्नरों को देखा। उन्हें देखकर भृगुनन्दन ने उनके साथ वार्तालाप किया। फिर नन्दिकेश्वर की आज्ञा ले वे प्रसन्न मन से भीतर घुसे। आगे बढ़ने पर उन्हें बहुमूल्य रत्नों के बने हुए सैकड़ों मन्दिर दीख पड़े, जो अमूल्य रत्नों द्वारा निर्मित चमचमाते हुए कलशों से सुशोभित थे। अमूल्य रत्नों के बने हुए किवाड़, जिनमें हीरे जड़े हुए थे और मोतियाँ एवं निर्मल शीशे लगे हुए थे, उन मन्दिरों की शोभा बढ़ा रहे थे। उनमें गोरोचना नामक मणियों के हजारों खंभे लगे थे और वे मणियों की सीढ़ियों से सम्पन्न थे । परशुराम ने उनके भीतरी द्वार को देखा, जो नाना प्रकार की चित्रकारी से चित्रित तथा हीरे-मोतियों की हुई मालाओं से सुशोभित था । उसकी बायीं ओर कार्तिकेय और दाहिनी ओर गणेश तथा शिव- तुल्य पराक्रमी विशालकाय वीरभद्र दीख पड़े । नारद! वहाँ प्रधान- प्रधान पार्षद और क्षेत्रपाल भी रत्नाभरणों से विभूषित हो रत्ननिर्मित सिंहासनों पर बैठे हुए थे। महान् बल-पराक्रम से सम्पन्न भृगुवंशी परशुराम उन सबसे सम्भाषण करके हाथ में फरसा लिये हुए शीघ्र ही आगे बढ़ने को उद्यत हुए। उन्हें आगे बढ़ते देखकर गणेश ने कहा — ‘ भाई ! क्षणभर ठहर जाओ। इस समय महादेव निद्रा के वशीभूत होकर शयन कर रहे हैं। मैं उन ईश्वर की आज्ञा लेकर यहाँ आता हूँ और तुम्हें साथ लिवा ले चलूँगा। इस समय रुक जाओ।’ गणेश की बात सुनकर महाबली परशुराम, जो बृहस्पति के समान वक्ता थे, कहने के लिये उद्यत हुए। ( अध्याय ४१ ) ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त महापुराणे गणपतिखण्डे नारदनारायणसंवादे कैलासवर्णनं नामैकचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४१ ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Content is available only for registered users. Please login or register Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. Type your email… Subscribe